— चंद्रभूषण —
पूरब के साहित्य में गाय और पश्चिम के साहित्य में घोड़ा लौट-लौटकर आते हैं। सिर्फ इंसान की जरूरत की तरह नहीं, उसके मन, देह और परिवार के विस्तार की तरह। हिंदी के महानतम उपन्यास का नाम ‘गोदान’ होना कोई संयोग नहीं। अपने बच्चे को मैंने ‘दो बैलों की कथा’ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन इसके प्रति उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं जगा पाया। कारण यह कि इंसान और जानवर के आपसी लगाव से परिचित होने के बावजूद किसान और बैल का रिश्ता उसकी समझ से बाहर था। अभी तो गांव के बच्चों को भी इसकी याद दिलाना मुश्किल है।
कहानियों और कविताओं में जाहिर होने वाला यह मन का नाता न जाने कितने हजार वर्षों से चला आ रहा था। रामायण में गाय-बैल और घोड़ों का जिक्र उतने प्यार से नहीं आता। बस नंदिनी गाय का चलताऊ जिक्र राम के पुरखे दिलीप के संदर्भ में आता है। हां बंदर, भालू, हिरन, यहां तक कि गिद्ध जैसे जंगली जीव जरूर रामायण के केंद्रीय चरित्रों के दोस्त हैं। लेकिन महाभारत में घोड़ों का जलवा है। पहले पर्व में ही दो सगी बहनों- गरुड़ की मां वनिता और सांपों की मां कद्रू के बीच शर्त लगती है कि इंद्र के घोड़े उच्चैःश्रवा की पूंछ काली है या सफेद।
यह भी मजेदार है कि किस्सों के इस महापिटारे में जितने किस्से आदमियों के हैं, तकरीबन उतने ही सांपों के भी हैं। जन्मेजय के नागयज्ञ में सांपों का नाश करने जा रहे एक ऋषि को बहकाने की कोशिश कुरुवंश के किस्से की ओर ले जाती है। अजीब बात है कि इंसानों और जानवरों का यह पुरातन संबंध बीसवीं सदी के मध्य में या उसके थोड़ा ही पहले कमजोर पड़ना शुरू होता है, और फिर यूं टूटता है कि लिखारियों को पशु-पक्षियों के पीछे छूट जाने की याद भी नहीं आती।
कोई इसकी वजह सभ्यता के शहरीकरण या मशीनीकरण में खोज सकता है। लेकिन याद रहे, शहराती मिजाज के सबसे बड़े लेखक अंतोन चेखव की संसार में सबसे ज्यादा सराही गई कहानी ‘मिज़री’ (दुःख) एक कोचवान द्वारा अपनी घोड़ी को सुनाई गई व्यथा-कथा ही है।
घोड़े और बैल पहले हमारे परिवेश से गायब हुए, फिर वे हमारे मन से भी निकल गए। इंजन ने उन्हें कालातीत बना दिया। बैलों को ट्रैक्टरों ने और घोड़ों-हाथियों को कारों, ट्रकों और बैटल टैंकों ने। इनके पीछे-पीछे ऊंट और गधे भी चले गए और याक बड़ी तेजी से जाने की प्रक्रिया में हैं। कुत्तों का मामला कुछ उलझा हुआ है। इंसान के करीब रहकर ही खुश रहने वाले इस आजाद जानवर की गली-कूचों से विदाई हो रही है लेकिन घरों में कुत्ते खूब पाले जा रहे हैं। सुदूर, अनजाने इलाकों के कुत्ते, जो अपरिचित वातावरण में इंसानों पर कुछ ज्यादा ही निर्भर हो जाते हैं।
मन की बीमारियों से परेशान लोग जब मनोचिकित्सकों के पास जाते हैं तो शुरुआती मामलों में दवा के अलावा दो सलाहें उनके हाथ लगती हैं। एक, किसी देवी-देवता में आस्था हो तो पूजा-पाठ का समय बढ़ा दें। और दो, कोई ‘पेट’ (पालतू जानवर) पाल लें। दुनियादारी की ज्यादातर जरूरतें इंजन, बिजली और कंप्यूटर से पूरी हो जाती हैं, लेकिन जानवरों और चिड़ियों के मार्फत मन में बैठी जो सामूहिकता हममें हौसला जगाती थी, उसकी जगह खाली हो गई है।
एक समय था जब हम जंगली हुआ करते थे। कोई भी जीव, कोई पेड़-पौधा ऐसा नहीं था, जिससे हमारी दोस्ती या दुश्मनी नहीं थी- ‘हे खग-मृग हे मधुकर स्रेनी, तुम देखी सीता मृगनयनी?’ लेकिन अभी तो अपने दोस्त और दुश्मन, सब हमीं हैं। बहरहाल, आज मामला सिर्फ साथ छूटने का नहीं, कई मनुष्येतर जीवजातियों के वंशनाश का है। इन्हें जरूरत के नजरिये से बचाने की बात कहकर हम खुद से झूठ बोल रहे होते हैं। कोई जरूरत देखकर या दयावश आपने किसी जानवर या चिड़िया को बचा भी लिया तो उसकी जाति पर आए संकट में इससे कोई कमी नहीं आएगी।
संकट के दो पहलू
पर्यावरण और जैव-विविधता ऊपरी तौर पर दो अलग-अलग चिंताएं जान पड़ती हैं। लेकिन इनका मामला एक ही सिक्के के दो पहलुओं जैसा है। धूल और धुएं से हमारा दम घुटने लगता है, तब हमें पर्यावरण की चिंता सताती है। औद्योगिक कचरा और अवैध कब्जा किसी नदी का पंचनामा लिख देता है तो हम नदियों को लेकर परेशान हो जाते हैं। गर्मियों में टेंपरेचर का रिकॉर्ड टूटना, सूखा-बाढ़ और भूस्खलन जैसी असाधारण प्राकृतिक आपदाएं ग्लोबल वॉर्मिंग की याद दिलाती हैं। गर्मियों में पानी की किल्लत होती है तो जल संकट की गुहार लगाते हैं। पड़ोस में कूड़े का पहाड़ दिखने पर कचरा सभ्यता की मुख्य समस्या लगने लगता है।
असमय मौतों की खबरें आने पर हम कयास लगाते हैं कि हमारे अनाज और सब्जी से लेकर मांस-मछली और दूध तक में जहर मिला है क्योंकि रासायनिक खादों, कीटनाशकों और खर-पतवार नाशकों की भरमार से हवा-पानी और मिट्टी, सब कुछ जहरीला हो चुका है। बस, यह सब कहते हुए हम भूल जाते हैं कि धरती पर हमारे अलावा और भी बहुत सारे जीव रहते हैं, जिनके पास खुद को और अपने बच्चों को बचाए रखने का कोई उपाय नहीं है।
वे ईंट-पत्थर के घरों में नहीं रहते, न ही अपनी तकलीफें बयान करने के लिए मीडिया उनके पास है। वे जंगलों में रहते थे, जो अब लगभग सारे के सारे साफ हो चुके हैं। बस्तियों के आसपास रहने लगे तो हाका लगाकर उन्हें मारा जाने लगा। नदियों-तालाबों में जीने वाले, घोसला बनाकर रहने वाले, छोटी झाड़ियों में या बिलों में रहने वाले पशु-पक्षियों के ठिकाने बुलडोजरों से नुचवा लिए गए, फिर उनपर सीमेंट, लोहे, प्लास्टिक और शीशे की तहें चुन दी गईं। अभी वैज्ञानिक शोधपत्रों में रोज ही कोई जानवर, कोई चिड़िया, कोई कीड़ा बीसों साल से कहीं न नजर आने की रिपोर्टें छपती हैं। उनकी गैरहाजिरी तेजी से बढ़ रही है।
बेचैनी पैदा करने वाली जिन बातों का जिक्र ऊपर आया है, वे प्रायः पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का वंशनाश करके हमें अपनी झलक भर दिखा रही होती हैं। जैव विविधता की चिंता करने का अर्थ है उनके संहार पर ध्यान देना। साथ में यह विचार करना कि हमारा ही उकसाया हुआ जो शैतान उनकी नैया डुबो रहा है, उस नैया के एक सवार हम भी हैं।
ग्लोबल वॉर्मिंग और बहुतेरी दूसरी-तीसरी वजहों से भी पैदा हो रहा पर्यावरण संकट इक्कीसवीं सदी में दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। काफी आगा-पीछा सोचने के बाद 2016 में पैरिस जलवायु समझौता हुआ तो लगा कि सारी सरकारें अब इस समस्या को गंभीरता से लेंगी। लेकिन आने वाली मुश्किलों से आंखें मूंदकर ‘यहीं और अभी’ पर फोकस करना हमारे युग की सत्ताओं का स्वभाव है, भले ही उनका संबंध किसी भी देश-प्रदेश से क्यों न हो।
गौर से देखें तो ऐसी चीजें कम मिलेंगी जो हमारे अंदर अपने इर्द-गिर्द मौजूद बहुविध जीवन से जुड़ाव पैदा करती हों, उनसे सघन परिचय कराती हों। ज्यादातर लोगों को लगता है, सारे काम कानून से हो जाएंगे। लेकिन कोई भी बड़ा काम तब होता है जब कानून के साथ-साथ समाज का मन भी सक्रिय होता है। एक समय था जब हाथीदांत के गहनों से किसी महिला की कुलीनता पहचानी जाती थी। फिर जब हाथियों के शिकार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सख्ती बरती गई, साथ ही यह बात भी लोगों के जेहन में अंट गई कि हाथीदांत के जेवरों के लिए हजारों शानदार अफ्रीकी हाथी हर साल मार दिए जाते हैं, तो सार्वजनिक दायरों में कुलीनता के इस प्रतीक का प्रदर्शन बंद हो गया।
ग्लोबल वॉर्मिंग का हिसाब
कोरोना महामारी के कारण सन 2020 और 2021 में कार्बन उत्सर्जन का ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगाया जा सका, लेकिन एक बात तय है कि लॉकडाउन के चलते इस दौरान इसमें तीखी गिरावट का जो अनुमान लगाया जा रहा था, वह निराधार साबित हुआ। धरती के वातावरण में कार्बन डायॉक्साइड के हिस्से का पता लगाने का जुगाड़ नासा के पास मौजूद है। इसी से पता चला कि ग्राफ में इसको दर्शाने वाली रेखा महामारी के दो वर्षों में रत्ती भर भी नीचे नहीं आई।
2022 की शुरुआत में वातावरण के प्रति दस लाख कणों में 417 कण कार्बन डायॉक्साइड के मौजूद पाए गए। फिर यूक्रेन की लड़ाई शुरू हो गई तो कार्बन उत्सर्जन के आंकड़े यूं गायब हुए जैसे यह कोई समस्या ही न हो। 2019 के पक्के हिसाब में इंसानी गतिविधियों के चलते 43.1 अरब टन कार्बन डायॉक्साइड वातावरण में छोड़ी गई थी। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और ज्वार ऊर्जा जैसे वैकल्पिक उपायों को लेकर हल्ला तो काफी मचाया जा रहा है लेकिन इनके बल पर सन 2050 तक सालाना कार्बन उत्सर्जन को 40 अरब टन से नीचे लाया जा सकेगा, ऐसा यकीन किसी को भी नहीं है।
मोटा हिसाब यह है कि सन 1850 में औद्योगिक युग की शुरुआत से लेकर सन 2019 तक कुल 2400 अरब टन कार्बन इंसानी हरकतों से निकलकर वातावरण में पहुंचा। इसमें से 950 टन पृथ्वी की आबोहवा में बना रह गया और बाकी कार्बन समुद्रों ने सोख लिया। इसके अलावा वातावरण में कार्बन जाने का एक बड़ा जरिया मीथेन है, जिसका ग्रीनहाउस प्रभाव (गर्मी को अंतरिक्ष में वापस न जाने देने का रसायनशास्त्र) कार्बन डायॉक्साइड की तुलना में 28 गुना है और जिसपर इंसानों का ज्यादा वश भी नहीं चलता।
सदी के बाकी वर्षों में यह कितनी निकल सकती है, इसका भी कोई अंदाजा नहीं है क्योंकि मीथेन जैविक पदार्थों की सड़न से पैदा होने वाली गैस है। दुनिया के पर्माफ्रॉस्ट इलाके- ध्रुवीय और हमेशा जमे रहने वाले पहाड़ों-पठारों में युगों से बर्फ के नीचे दबे क्षेत्र- अगर बर्फ गलने के साथ एकदम नंगे हो गए तो वे बहुत सारी मीथेन उगल देंगे। रूस में उनका काफी हिस्सा पहले ही नंगा हो चुका है और वहां गर्मियों में ऐसे इलाके अपने आप सुलग जा रहे हैं।
धरती का गर्म होना
सन 1850 को औद्योगिक सभ्यता की औपचारिक शुरुआत मानते हुए इस बात का हिसाब लगाया जाता है कि उसकी तुलना में दुनिया का औसत तापमान बढ़ने या घटने का पैटर्न क्या है। 2019 में दुनिया का औसत तापमान सन 1850 की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज किया गया था। 2016 के पैरिस जलवायु समझौते में इसे इक्कीसवीं सदी के अंत तक 2 डिग्री या भरसक डेढ़ डिग्री से ऊपर न जाने देने का लक्ष्य लिया गया था। लेकिन एक आकलन के मुताबिक, डेढ़ डिग्री की बढ़त तो अल नीनो के चलते 2023 में ही हासिल कर ली गई, और 2024 में दुनिया का औसत तापमान पीछे के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 2023 से तो हर हाल में ऊपर ही रहा है।
ध्यान रहे, पैरिस समझौते में आए इस वैज्ञानिक आकलन तक दुनिया की तमाम खरबपति तेल कंपनियों और उनके इशारे पर कठपुतली की तरह काम करने वाले ज्यादातर राष्ट्राध्यक्षों के विरोध के बावजूद पहुंचा गया था। जलवायु समझौते पर दस्तखत इन महाशयों ने यह जानकर ही किए थे कि इस बात को लेकर अब और ज्यादा पांव पीछे घसीटना उनके लिए संभव नहीं है। यह और बात है कि उसी साल अमेरिका पर काबिज हुए डॉनल्ड ट्रंप ने 2017 में सत्ता संभालते ही पहला काम यही किया कि अपने शीर्ष प्रदूषक देश को इस समझौते से बाहर घोषित कर दिया। उनकी दूसरी आवक संकट को कहां पहुंचाएगी, कहना मुश्किल है।
बहरहाल, जिन वैज्ञानिकों ने डेढ़ डिग्री की सीमा बांधने वाला नतीजा निकाला था, उन्हीं की लिखित राय है कि वातावरण में अगर 500 अरब टन कार्बन डायॉक्साइड और चली गई तो औसत ग्लोबल तापमान सन 1850 की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस ऊपर शर्तिया जाएगा। इसके मतलब को लेकर आगे बात की जाएगी। अभी यह देखें कि 40 अरब टन सालाना के हिसाब से यह एक्स्ट्रा 500 अरब टन का आंकड़ा छूने में हमारे पास कितना वक्त बचा है।
ज्यादा मुश्किल हिसाब नहीं है। सन 2030 से 2035 के बीच के किसी साल में यह ‘उपलब्धि’ हम हासिल कर ही लेंगे। समुद्रों द्वारा कार्बन के अवशोषण को लेकर थोड़ी धुंध अभी बची है। पीछे यह रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है। 1850 से 2019 तक गुजरे 170 वर्षों में कुल 2400 अरब टन में से 1450 अरब टन जहर समुद्र पी गए और हवा में हमारे लिए 950 अरब टन ही छोड़ा। कितना अच्छा हो कि आगे आने वाले 500 अरब टन में भी आधे से ज्यादा वे ही पी जाएं। लेकिन दुर्भाग्यवश, इस बात को लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते। खतरा कुछ उलटा हो जाने का ज्यादा है।
पानी के साथ कार्बन डायॉक्साइड की रासायनिक क्रिया दोतरफा चलती है। यानी सामान्य स्थितियों में पानी इसे घुलाकर थोड़ा अम्लीय हो जाता है लेकिन गर्म होने पर वापस उगल भी देता है। डर है कि धरती का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र कहीं अपनी पचाई हुई कार्बन डायॉक्साइड को वापस न उगलने लगें।
अभी 1.1 डिग्री औसत तापमान बढ़ने का मतलब यह निकला है कि आर्कटिक क्षेत्र के पर्माफ्रॉस्ट इलाके मीथेन उगलने लगे हैं। 2023-24 के उपग्रहीय आंकड़े जारी हों तो पता चले कि ग्लोबल तापमान का हाल क्या है। कहा जा रहा है कि समुद्रों की ओर से कार्बन डायॉक्साइड उगलने का किस्सा तापमान वृद्धि के 2 डिग्री सेल्सियस पहुंचने के पहले ही शुरू हो सकता है।
औसत तापमान का बढ़ना धरती के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरीके से जाहिर होता है। अभी बर्फीले क्षेत्रों में, खासकर आर्कटिक सर्कल और तिब्बत में तापमान वृद्धि बाकी दुनिया की तुलना में बहुत ज्यादा है। हमारे हिमालयी इलाकों में बादल फटने, झीलें टूटने और पहाड़ दरकने में इसकी बड़ी भूमिका है। भारी तबाही ला रहे समुद्री चक्रवातों तथा यूरोप और अमेरिका के दक्षिणी इलाकों को तबाह करने वाली जंगलों की आग में ग्लोबल वॉर्मिंग अलग ही रूप धारे हुए है।
पश्चिमी साइबेरिया के पास कारा सागर में महीनों बर्फ न होने को अभी उत्तरी भारत में जाड़ों की बारिश ज्यादा होने के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है। 2022 की जनवरी हमारे यहां समूचे दर्ज इतिहास में सबसे ज्यादा नम गुजरी। यह नई नमी भी ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए 36 से 72 प्रतिशत तक जिम्मेदार है।
वेट बल्ब टेंपरेचर
जीवन पर ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव को समझने के लिए हमें एक छोटे से तकनीकी ब्यौरे को ध्यान में रखना पड़ सकता है। ‘वेट बल्ब टेंपरेचर’ पर्यावरण विज्ञान से जुड़ी एक बहुत जरूरी अवधारणा है। इसे नापने के लिए हवा का तापमान लेने वाले थर्मामीटर की घुंडी (बल्ब) पर एक पतला सूती कपड़ा सामान्य तापमान वाले पानी में भिगोकर बांध देते हैं, फिर उसकी रीडिंग लेते हैं। इस नाप का इस्तेमाल हवा में मौजूद नमी के आकलन के लिए होता है।
ड्राई बल्ब टेंपरेचर और वेट बल्ब टेंपरेचर के बीच अंतर ज्यादा होने का अर्थ यह बनता है कि वातावरण में नमी कम है। बारिश के मौसम में, जब हवा में नमी ज्यादा होती है तब सीधे लिए गए तापमान और गीला कपड़ा लपेटकर लिए गए तापमान में ज्यादा अंतर नहीं दिखता। हिसाब यह है कि किसी जगह वेट बल्ब टेंपरेचर अगर 32 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया जाए तो वहां मौजूद सभी जीव-जंतुओं को उतनी ही गर्मी महसूस होगी, जितनी उन्हें 55 डिग्री सेल्सियस के सूखे तापमान में महसूस हो सकती थी। यूं कहें कि सारे ही जीवों के लिए यह भारी बेचैनी की स्थिति होगी।
वेट बल्ब टेंपरेचर को लोगों द्वारा महसूस किए जाने वाले तापमान में बदलने का एक गणितीय फॉर्मूला है। मोटा अनुमान है कि 35 डिग्री का वेट बल्ब टेंपरेचर इंसानों और अधिकतर जीव-जंतुओं को मार डालने के लिए काफी होगा। इतना ऊंचा वेट बल्ब टेंपरेचर संसार में अबतक कहीं भी और कभी भी दर्ज नहीं किया गया है। अलबत्ता 34 डिग्री का वेट बल्ब टेंपरेचर सिर्फ एक बार, अमेरिका के शिकागो शहर में 1995 की हीट वेव में नापा गया था।
वैसे तो यह एक चमत्कार ही कहलाएगा, लेकिन मान लीजिए, दुनिया कार्बन उत्सर्जन को 500 अरब टन से ज्यादा न होने देने को लेकर अड़ जाए। ऐसे में जरा यह हिसाब लगाकर देखें कि यह काम कितना मुश्किल होने जा रहा है।
संसार की बड़ी तेल अर्थव्यवस्थाओं ने अपने-अपने यहां मौजूद तेल, गैस और कोयले का जो हिसाब लगा रखा है, उसमें कुल 3000 अरब टन कार्बन उत्सर्जन की संभावना मौजूद है। कई देशों के लिए यह एकमात्र राष्ट्रीय संसाधन है तो कुछेक की दुनिया में हनक इसी पर निर्भर करती है। लोग अगर तेल-गैस खरीदना ही बंद कर दें तो बात और है, लेकिन ये देश अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे कि जमीन के नीचे मौजूद उनका खजाना नीचे ही न पड़ा रह जाए।
ध्यान रहे, इस खजाने के बारे में फैसला लेने का अधिकार ज्यादातर सरकारी कंपनियों के पास है। हालांकि उनमें कुछेक के निदेशक मंडल में प्राइवेट प्रतिनिधि भी बैठते हैं। बड़ी से छोटी के क्रम में ऐसी उन्नीस कंपनियों के नाम हैं- सऊदी अरामको, शेवरॉन, गैज़प्रोम, एक्सॉनमोबिल, नेशनल ईरानियन ऑयल कंपनी, बीपी, रॉयल डच शेल, पेमेक्स, पेट्रोलिओस डि वेनेजुएला, पेट्रोचाइना, पीबॉडी एनर्जी, कोनोकोफिलिप्स, अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी, कुवैत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन, इराक नेशनल ऑयल कंपनी, टोटल एसए, सोनाट्रैक, बीएचपी बिलिटन और पेट्रोब्रास। कोई हिंदुस्तानी नाम अभी इस सूची में शामिल नहीं है, हालांकि अंबानी का रिलायंस किसी भी समय इसमें जुड़ सकता है।
बदलाव का रास्ता
चेतना के स्तर पर नई दिशा पकड़ने का तो विकल्प ही नहीं है लेकिन यह तुरत-फुरत होने वाला बदलाव नहीं है। जिस बड़े झटके से दुनिया की सोच बदलती है, उसका कोई खाका खींचना मुश्किल है। हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिरे तो उनसे हुआ विनाश देखकर लगा कि इसके डर से दुनिया अब बड़ी लड़ाइयों से बाज आएगी। यह बात कुछ हद तक सच साबित हुई लेकिन इतनी ही कि पहले विश्वयुद्ध में पैदा हुई पीढ़ी के जवान होते ही दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया था, जबकि दूसरे विश्वयुद्ध में पैदा हुई पीढ़ी या तो मर चुकी है या मरने के बहुत करीब है, लेकिन तीसरा विश्वयुद्ध उसने नहीं देखा है।
जाहिर है, इसका यह अर्थ नहीं है कि लड़ाइयां रुक गई हैं। वे चल रही हैं, सालोंसाल चलती ही जा रही हैं, और एटमी शक्तियां भी उनमें शामिल हैं। पर्यावरण और जैव विविधता के विनाश पर लोगों का नजरिया पलटने के लिए शायद हिरोशिमा-नागासाकी से भी ज्यादा भयानक किसी घटना की जरूरत पड़े, लेकिन वहां तक पहुंच जाने के बाद करने के लिए कुछ बचेगा भी या नहीं, कहना मुश्किल है। फिलहाल जो चीजें समझ के दायरे में हैं वे कैंसर से निपटने के लिए बैंड-एड के इस्तेमाल जैसी ही हैं, फिर भी नैतिकता का तकाजा है कि जो सही लगे वह किया जाए और गलत के खिलाफ बोला जाए।
मध्यम स्तर के बदलाव का एक रास्ता रीन्यूएबल एनर्जी या अक्षय ऊर्जा का है, जिसमें पिछले कुछ वर्षों में तकनीक के स्तर पर क्रांतिकारी प्रगति देखने को मिली है। खासकर चीनियों के इस क्षेत्र में कूद पड़ने से खोजों की रफ्तार बहुत बढ़ गई है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी और इंग्लैंड में भी अक्षय ऊर्जा पर महत्वपूर्ण काम हो रहा है। सौर ऊर्जा अभी थर्मल और हाइडेल पावर से भी सस्ती पड़ने लगी है, हालांकि इसमें काफी बड़ा योगदान सरकारी सहायता का है।
इसकी सबसे अच्छी बात छतों को पावरहाउस बना देने की है और इसकी अकेली बीमारी सिलिकॉन बेस्ड सोलर मॉड्यूल्स का वजनी होना है। पेरोव्स्काइट नाम के केमिकल्स पर आधारित सोलर सेल्स इस बीमारी का इलाज हो सकते हैं। उनका जमाना भी आ रहा है, लेकिन उनपर गंभीर चर्चा 2030 के बाद ही चल पाएगी।
रही बात पवन ऊर्जा की तो चीन और यूरोप में इसके नतीजे अच्छे हैं लेकिन भूमध्य रेखा के पास पड़ने के कारण भारत में हवा ज्यादा नहीं चलती। यह बड़े पूंजी निवेश की मांग करती है और एक पवन चक्की अपनी क्षमता की औसतन साढ़े आठ फीसदी बिजली ही पैदा कर पाती है। भारत में अभी इन्हें ज्यादातर तटीय इलाकों में आजमाया जा रहा है, हालांकि समुद्र में पवन चक्कियां लगाने की गुंजाइश बढ़ने के साथ इस क्षेत्र में हमारी उम्मीद भी बढ़ रही है।
सौर ऊर्जा के लिए हमारे यहां ज्यादा संभावना मौजूद है लेकिन इसकी 40 मेगावाट क्षमता एक किलोमीटर लंबी और इतनी ही चौड़ी जमीन मांगती है, जिसमें एक बड़ा गांव अपनी खेती-बाड़ी समेत आराम से बस सकता है।
इन वैकल्पिक ऊर्जा उपायों से और एलईडी जैसे कम बिजली खपत वाले जुगाड़ों से इतना ही हो सकता है कार्बन डायॉक्साइड छोड़ने वाले नए बिजली प्रॉजेक्ट खड़े होने की रफ्तार में कुछ कमी आ जाए। लेकिन कार्बन उत्सर्जन में मौजूदा स्तर की तुलना में गिरावट आने लगे, इसकी तो 2050 तक कल्पना भी नहीं की जा सकती। और यह सारा जुगाड़ चाहे जितना भी सफल क्यों न हो, संबोधित तो यह पर्यावरण संकट के सिर्फ एक पहलू, ग्लोबल वार्मिंग को ही करेगा।
यह चर्चा शुरू करते हुए हमने देखा था कि इस संकट के कई सारे पहलू हैं और उनमें से ज्यादातर पर तो अब कुछ खास बातें भी नहीं होतीं। कोई एक कदम भी आगे बढ़ता है तो उसका सामना पूंजी के ताकतवर हितों से होता है, जिनके पक्ष में सरकारें खड़ी होती हैं। उम्मीद है, ‘प्रकृति के मानवीकरण और मनुष्य के प्राकृतीकरण’ की चिंता मानव समाज में समय रहते पैदा हो सकेगी और इसे ‘मार्क्सीय जुमलेबाजी’ बताने का चलन बौद्धिक दायरे से उठ जाएगा।