संसद में चर्चा से पहले संविधान के अंत:करण में झाॅंकता एक नागरिक

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Indian Parliament

Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

लोकतंत्र में मतदान एक ऐसा निर्णय है जो किसी विचलित चित्तदशा में नहीं लिया जा सकता। मतदान केन्द्र पर इकट्ठे लोगों के बीच जिस एकान्त कोने में नागरिक अपने मत का गुप्त दान करते हैं अगर मतदान करते समय राजनीतिक दलों द्वारा विचलित किया गया उनका चित्त देश के पूरे जीवन पर एकाग्र नहीं होगा और वे केवल अपने संप्रदाय, जाति और कौम के तात्कालिक स्वार्थ में लिप्त होकर वोट दे रहे होंगे तो यह मतदान लोकहितकारी नहीं हो सकता। लोकतंत्र के पक्ष में मतदान करते हुए अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अहंकार को त्यागना पड़ता है। मतदान का आधार बंधुता है। वोट केवल अपने लिए नहीं, सबके लिए न्याय के पक्ष में दिए जाना चाहिए। जिस तरह देश के नागरिकों का उसी तरह ‘संविधान का भी अंत:करण है। दार्शनिकों ने मनुष्य के अंत:करण की पहचान चार करणों के रूप में की है — मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त। देश के संविधान की उद्देशिका भी उसके अंत:करण को चार करणों से पहचानती है — समानता, न्याय,स्वतंत्रता, और बंधुता।

किसी देश के नागरिकों के अंत:करण में अपने-अपने मन, बुद्धि और अहंकार के अनुसार उनकी चित्तदशा एकाग्र और विचलित होती रहती है। इसी आधार पर उनकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां व्यक्तिगत और सार्वजनिक व्यवहार करती हैं। संविधान के अंत:करण में स्थापित बंधुता का मूल्य ही भारत के नागरिकों का चित्त है। समानता नागरिकों का मन है। न्याय ही नागरिकों की बुद्धि है और स्वतंत्रता ही अहंकार है। लोकतंत्र में बंधुता पर नागरिकों की एकाग्रता ही समानता, न्याय और स्वतंत्रता को संभाले रख सकती है।

नागरिकों के द्वारा बंधुता के मूल्य पर एकाग्रचित्त हुए बिना समानता, न्याय और स्वतंत्रता के मूल्य को केवल तात्कालिक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रबंधन के बाहरी आश्वासन से संभाला नहीं जा सकता। क्योंकि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में समानता का व्यवस्थापन करते हुए भी जीवन में अभावों के कई रूप दिखायी पड़ते हैं। कितना भी करो, लोगों का मन नहीं भरता और बराबरी की कोई एक कसौटी नहीं बन पाती और लोगों के कामनाओं से भरे अभावग्रस्त मन दिन-रात विचलित होते रहते हैं। स्वतंत्रता भी अराजक स्वच्छंदता में बदलने लगती है और एक-दूसरे के अहंकार आपस में टकराने लगते हैं। ऐसी हालत में न्याय बुद्धि को किसी समुचित निर्णय पर पहुंचने में बड़ी देर लग जाती है।

संविधान में समूचे देश का चित्त बंधुता ही है और उसकी मर्यादा अलिखित है। समानता, न्याय और स्वतंत्रता को लिखित प्रारूपों में व्याख्यायित जरूर किया गया है पर संविधान के रचनाकारों को यह चिन्ता बनी रही कि भले ही हम देश के लोगों को समानता, न्याय और स्वतंत्रता के नाम पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय देने का आश्वासन दे रहे हैं पर जब तक बंधुता के आंतरिक मूल्य पर देश का चित्त एकाग्र नहीं होगा तब तक देश के लोकतांत्रिक अंत:करण में उस सन्मति को जगह कैसे मिलेगी जो धर्म, मज़हब, जाति, वर्ण, कुल, कौम, संप्रदाय आदि से निरपेक्ष होकर एक बड़ी बहुविश्वासी इंसानी बिरादरी को बंधुता की अलिखित मर्यादा की प्रतीति में ले आती है। सहज और शान्त जीवन बंधुता के बिना संभव नहीं।

जब देश के जीवन में विभेदकारी मतान्धता राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्य-व्यवहार में परिलक्षित हो रही है और नागरिकों का मन स्वार्थपूर्ण अधिकारों की होड़ में विभाजित करके विचलित किया जा रहा है तब संविधान के अंत:करण में बसी बंधुता के मूल्य पर एकाग्र होने के लिए किसी बड़े देशव्यापी चित्तवृत्ति निरोध अभियान की जरूरत होगी। क्या लोकहित में हमारे राजनीतिक दल इस सत्याग्रह के लिए मानसिक रूप से कोई तैयारी कर पा रहे हैं?

संविधान की उद्देशिका में समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के मूल्य उकेरे गये हैं। ये मूल्य संविधान में भली प्रकार परिभाषित हैं और संविधान के रचनाकार पहले ही चेता गये हैं कि केवल संविधान लिख देने से लोकतंत्र का फल तब तक नहीं आयेगा जब तक लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि और ख़ुद लोग देश के जीवन में उसके प्रति अपनी व्यावहारिक योग्यता प्रमाणित नहीं करेंगे। प्रश्न संविधान को फिर से परिभाषित करने का नहीं है। वास्तविक प्रश्न तो यह है कि हम भारत के लोग अपने मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त को समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता की कसौटी पर कैसे प्रमाणित करें? विधि-विधान बदलने से किसी का जीवन नहीं बदलता, सब एक-दूसरे से दूर बने रहते हैं। देश के जीवन में साधन और साध्य के प्रति सद्भावपूर्ण कर्मकुशलता ही लोगों को परस्पर आश्रय का बोध करवाती है। यह बोध ही बंधुता का आधार है।

लोकतंत्र में जनता के चुने हुए राजनीतिक प्रतिनिधियों के बीच सत्ता का अनुबंध तब तक अर्थहीन है जब तक वे अपने क्षेत्रीय स्वार्थ त्यागकर देशबंधु होने का प्रमाण नहीं देते। संविधान को केवल माथे से लगाकर टेबिल पर रख देने से काम नहीं चलेगा। अम्बेडकर की दृष्टि में बंधुता का अर्थ है — सभी भारतीयों की मैत्रीपूर्ण भावना। यही बात हमारे सामाजिक जीवन को अखण्डता प्रदान कर सकती है और यह बहुत ही कठिन काम हमें कर दिखाना चाहिए। अम्बेडकर जी ने कहा था कि — २६ जनवरी १९५० से हम कई अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में नहीं होगी। हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ को मान्यता देते रहेंगे पर हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।

अम्बेडकर की यह आशंका अब तक सही साबित होती आयी है। धर्म जाति संप्रदाय के भेदभावों से ग्रस्त समाज में आर्थिक न्याय भी तब तक काफी नहीं है जब तक उसके साथ सामाजिक न्याय जुड़ा हुआ न हो। संविधान की रचना करते हुए अम्बेडकर जी महसूस कर रहे थे कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान में चाहे कितनी भी कमियां क्यों न हों, यदि उसे अमल में लाने वाले ईमानदार हों तो संविधान अच्छा साबित होगा।

अम्बेडकर कहते हैं कि — किसी संविधान पर अमल उसके स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। वह तो केवल विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान ही कर सकता है। इन अंगों का नीतिपूर्वक संचालन जनता और उसकी आकांक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से बने राजनीतिक दल ही कर सकते हैं। अम्बेडकर गहरे सोच में डूबकर यह भी रेखांकित करते हैं कि — अभी से यह कौन कह सकता है कि आने वाले समय में भारत के लोगों और राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा?

अम्बेडकर को जो शंका थी वह सही साबित हो रही है। वे देख पा रहे थे कि हमारी अतीतजीवी स्मृति में जाति और संप्रदायों के रूप में पुराने शत्रु तो बने ही रहेंगे। परस्पर विरोधी विचार रखने वाले राजनीतिक दल भी बना लिये जायेंगे। ऐसी हालत में क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? आज हम देख ही रहे हैं कि जात-पांत और पंथ की सीमाओं में जकड़ी राजनीतिक ज़मीन पर अंध सत्तावाद की धूल उड़ रही है और जिसकी धुंध में देश अदृश्य हो रहा है।

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