डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में दो कार्यकाल मिला. मेरी समझ से उनका पहला कार्यकाल दूसरे कार्यकाल के मुकाबले अच्छा था. दूसरा कार्यकाल निराशाजनक रहा. उनकी अर्थनीति का प्रशंसक न होने के बावजूद मैं कुछ प्रमुख नीतिगत फैसलों और गवर्नेंस की शैली के हिसाब से उनके पहले कार्यकाल को देश और समाज के लिए बेहतर दौर मानता हूं. लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों के क्षेत्र में सरकार का कामकाज पहले की कई सरकारों से अच्छा रहा. हालांकि सुदूर के अनेक क्षेत्रों में सबाल्टर्न और वंचित समूहों पर पहले से जारी दमनचक्र का सिलसिला तब भी जारी रहा. पर समग्रता में देखें तो कई कमियों और गलतियों के बावजूद उनके पूरे कार्यकाल का शासन-प्रशासन बेहतर था! कम से कम तब देश में भय, कटुता और नफ़रत का माहौल नहीं था. तब शासन और समाज के स्तर पर असहिष्णुता और प्रतिशोध की राजनीतिक संस्कृति इस कदर भयावह नहीं थी.
अपने चार दशक के पत्रकारिता-जीवन में हमने दस प्रधानमंत्रियों का शासन देखा. इनमें पांच(एच डी देवगौड़ा से नरेंद्र मोदी तक) के शासन को पत्रकार के तौर पर ‘कवर’ करने का मौका मिला. निस्संदेह, इन पांच में श्री देवगौड़ा, गुजराल और डाॅ. सिंह के पहले कार्यकाल के शासन को मैने बेहतर पाया. इन तीनों प्रधानमंत्रियों ने भले ही कोई चमत्कार न किये हों लेकिन समाज और देश के सर्वोच्च हितों को नजरंदाज नहीं किया. नागरिक स्वतंत्रता, संवैधानिकता और लोकतांत्रिकता को कमज़ोर करने वाले कठोर कदमों को उठाने से परहेज किया. ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ को हावी नहीं होने दिया.
देश के कई अशांत इलाकों में शांति स्थापना के लिए ठोस कदम उठाये. इसमें पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर जैसे इलाके खासतौर पर उल्लेखनीय हैं. इन प्रधानमंत्रियों के शासनकाल में मतभेद, आलोचना और असहमति को कभी ‘देशद्रोह’ नहीं समझा गया! हां, अपने-अपने राजनीतिक समर्थकों, सत्ता के दरबारियों और चाटुकारों की तब भी चांदी रही. आलोचना करने वालों की उपेक्षा भले हुई हो पर उनके लिए काम और रोजगार के न दरवाजे बंद किये गये और न ही शासन ने उनके साथ शत्रुतापूर्ण बर्ताव किया.
डाॅ सिंह के कार्यकाल के दौरान मैं देश के तीन प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में अलग-अलग समय पर कार्यरत रहा. ये थे: हिन्दुस्तान(HT Media Group), भास्कर ग्रुप और राज्यसभा टीवी. विभिन्न मौकों पर प्रधानमंत्री से मिलने के कई अवसर मिले. ज्यादा मौके संसद सत्र के दौरान मिले. कम से कम चार-पांच मौके याद हैं, जब मैंने व्यक्तिगत तौर पर या पत्रकार-मित्रों के समूह के साथ संसद के गलियारे में चलते हुए या उनके चैम्बर में जाकर किसी तात्कालिक मुद्दे पर उनकी राय ली. कुछेक बार प्रधानमंत्री निवास( श्री वाजपेयी से डाॅ सिंह के प्रधानमंत्रित्व के दौरान) में आयोजित चाय-पान पार्टियों में भी गया.
एक बार विज्ञान भवन में आयोजित प्रधानमंत्री डाॅ सिंह की खचाखच भरी प्रेस कांफ्रेंस में उनसे सवाल पूछने का भी मौका मिला. जहां तक याद है, उन दिनों हरीश खरे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार थे. आमतौर पर प्रेस कांफ्रेंसों में सवाल पूछने की मेरी वृत्ति नहीं रही है. पर उस लाइव प्रेस कांफ्रेंस में मैने डाॅ सिंह से एक ऐसा सवाल पूछ डाला जो संभवत: उनके लिए और उनके सलाहकारों के लिए बिल्कुल अप्रत्याशित सा था. ऐसे सवाल के लिए शायद वह तैयार नहीं थे. दिल्ली स्थित पत्रकार आमतौर पर ऐसे सवाल नहीं पूछते!
अपना सवाल मैने UPA के गवर्नेंस के एजेंडे से उठाया था. उसमें कहा गया था कि सरकार निजी क्षेत्र में (SC,ST, OBC आदि के रोजगार हेतु) एफर्मेटिव एक्शन(आरक्षण आदि) के लिए आवश्यक कदम उठायेगी! मैने डाॅक्टर सिंह से पूछा: ‘आपकी सरकार के कुछ साल बीत चुके हैं पर निजी क्षेत्र में आरक्षण आदि के वादे को पूरा करने के लिए अब तक सरकार ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया, क्या दिक्कतें हैं?’ प्रेस कांफ्रेंस में देश-विदेश के तमाम जटिल मसलों पर सवालों की बौछार हो रही थी और प्रधानमंत्री डाॅ सिंह उनका अपने अंदाज में जवाब दे रहे थे. इसी बीच मेरा यह सवाल आया! सवाल सुनने के बाद डाॅ सिंह कुछ सेकेंड तक शांत रहे, जैसे वह कुछ याद कर रहे हों! फिर उनके ठीक पीछे बैठे PMO के किसी उच्चाधिकारी ने डाॅ सिंह के सामने एक पर्ची रखी. उन्होंने उसे देखा और बोलना शुरू किया. अपने संक्षिप्त जवाब में उन्होंने बताया कि इस मामले में एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाई जा चुकी है..उसकी रिपोर्ट के आधार पर ठोस कदम उठाया जायेगा. फिर मैंने एक पूरक सवाल भी किया. प्रधानमंत्री ने फिर एक संक्षिप्त सा जवाब दिया. दरअसल, सरकार ने उस दिशा में कोई ठोस कदम उठाया ही नहीं था. ऐसे में उनके पास कोई ठोस जवाब था ही नहीं! मेरे सवाल से प्रेस कांफ्रेंस का माहौल थोड़ा असहज सा हुआ! जहां तक याद आ रहा है, उस समय अम्बिका सोनी सूचना-प्रसारण मंत्री थीं और वह भी प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मंच पर मौजूद थीं.
हमारा मानना है कि डाॅ सिंह का पहला कार्यकाल जितना बेहतर और आशा भरा था, उनका दूसरा कार्यकाल उतना ही निराशाजनक रहा. दूसरे कार्यकाल की विफलताओं की जमीन पर ही नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के आगमन की पृष्ठभूमि तैयार हुई. पर इसके लिए सिर्फ डाॅ मनमोहन सिंह को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. इसके लिए कांग्रेस नेतृत्व और उसके योजनाकार व सलाहकार ज्यादा जिम्मेदार माने जायेंगे! यूपीए के दूसरे कार्यकाल में अगर अर्जुन सिंह जैसा कोई दिग्गज कांग्रेस नेता या स्वयं
राहुल गांधी प्रधानमंत्री बने होते और उस सरकार का राजनीतिक विचार, एजेडा व काम का अंदाज तरक्कीपसंद व जनपक्षी(आज के राहुल के विचारों जैसा )होता तो 2014 में भाजपा को बड़ी कामयाबी हरगिज न मिली होती! प्रधानमंत्री जैसे बडे पद पर दस साल तक लगातार आसीन रहे एक व्यक्ति के मूल्यांकन के लिए राजनीति और शासन में ऊसकी सफलता-विफलता निश्चय ही महत्वपूर्ण पैमाने हैं. इसी पैमाने पर डाॅ सिंह का भी मूल्यांकन होगा. पर उनकी ईमानदारी, सादगी और सहजता अप्रतिम हैं. हमारे जैसे सामंती दबदबे वाले समाज के बड़े ओहदेदारों में ऐसे गुण बहुत दुर्लभ हैं. डाॅ सिंह अपने इन दुर्लभ गुणों के लिए हमेशा याद आयेंगे!