— परिचय दास —
।। एक ।।
गाँवों में नए-नए अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों का खुलना एक ऐसा सामाजिक और शैक्षणिक परिदृश्य प्रस्तुत करता है जो बदलते समय और अपेक्षाओं को दर्शाता है। आधुनिकता और वैश्वीकरण के इस युग में शिक्षा को एक माध्यम के रूप में देखा जा रहा है जो सामाजिक और आर्थिक उन्नति की कुंजी है। इसी कारण गाँव के गरीब से गरीब आदमी भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़े। यह प्रवृत्ति समाज में एक खास बदलाव का प्रतीक है और इसके साथ-साथ अनेक चुनौतियाँ जुड़ी हुई हैं। इन चुनौतियों और उनके समाधानों का गहन विश्लेषण करना आवश्यक है।
अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों का आकर्षण समाज में अंग्रेज़ी भाषा के महत्त्व से प्रेरित है। अंग्रेजी को वैश्विक भाषा माना जाता है (?) और इसे सीखने को बेहतर रोजगार, उच्च शिक्षा और एक उन्नत जीवन शैली से जोड़ा जाता है। गाँवों के परिवार (और शहरी परिवार भी) इस धारणा से प्रभावित होते हैं कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ने से उनके बच्चों का भविष्य बेहतर होगा। वे अपनी आर्थिक सीमाओं के बावजूद अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के लिए तत्पर रहते हैं।
हालांकि, इन स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जा सकते हैं। ऐसे शिक्षक आमतौर पर पेशेवर रूप से प्रशिक्षित नहीं होते और उनके पास आवश्यक शैक्षणिक योग्यता और अनुभव की कमी होती है। कई जगह तो मड़ई ( छप्पर ) में भी ऐसे स्कूल खोल दिए गये हैं। कई लोग बिल्डिंग बनवा कर खोल रहे हैं। विश्लेषण से लगता है कि यहाँ बच्चों को अपेक्षित उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं मिल पाती लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से का क्रेज़ आजकल यहीं है। यह एक चुनौती है।
प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में बुनियादी कौशल विकसित करना होता है, जैसे पढ़ना, लिखना और अपने समय की समझ लेकिन जब शिक्षक स्वयं समकालीन कौशलों में दक्ष नहीं होते तो बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है। ऐसे शिक्षक विषय-वस्तु को प्रभावी ढंग से समझाने में भी असमर्थ होते हैं। इससे बच्चों में समझ और आत्मविश्वास की कमी होती है।
गाँव के प्राइमरी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अक्सर अभाव होता है। अधिकांश स्कूलों में पर्याप्त कक्षाएँ, उचित शौचालय, पीने के पानी की सुविधा, पुस्तकालय और खेल का मैदान नहीं होते। यह बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास को बाधित करता है। बच्चों को एक सुरक्षित और प्रेरक वातावरण नहीं मिल पाता जो उनके सीखने की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है।
इसके अतिरिक्त, इन स्कूलों में शिक्षण- माध्यम के रूप में केवल अंग्रेज़ी पर ज़ोर दिया जाता है। गाँव के बच्चे, जिनकी मातृभाषा अंग्रेज़ी नहीं होती, उन्हें अंग्रेज़ी में शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। यह स्थिति उनकी शैक्षणिक प्रगति में बाधा डालती है। भाषा की इस समस्या के कारण बच्चे न केवल विषय-वस्तु को समझने में असमर्थ होते हैं बल्कि वे शिक्षा से विमुख भी हो जाते हैं किन्तु यही स्थिति आगे बढ़ रही है। आज अंग्रेज़ी में बच्चे को पढ़ाना क्रेज़ बन गया है।
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा के नाम पर एक दिखावटी संस्कृति विकसित हो रही है। बच्चों को रटने पर जोर दिया जाता है और उनके रचनात्मक और आलोचनात्मक सोच कौशल को विकसित करने पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह बच्चों के समग्र विकास को बाधित करता है।
प्राइमरी स्कूल, जो पहले से ही संसाधनों की कमी और अन्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, इन अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के कारण और अधिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में अच्छे और प्रशिक्षित शिक्षक होते हैं लेकिन गाँव के लोग अब उन्हें महत्त्व नहीं देते। उनका मानना है कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाई करना बेहतर है। यह मानसिकता सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा को कम करती है और वहाँ की छात्र संख्या घटती जा रही है।
इस समस्या के समाधान के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। सबसे पहले, सरकारी प्राइमरी स्कूलों को अपनी शिक्षा प्रणाली को सुधारने और आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। शिक्षकों को नियमित रूप से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे बच्चों को आधुनिक और प्रभावी तरीकों से पढ़ा सकें।
सरकार को प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए। यह संभव है कि सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी को एक अतिरिक्त भाषा के रूप में पढ़ाया जाए ताकि बच्चे अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करते हुए अंग्रेज़ी सीख सकें। यह बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को सरल और प्रभावी बनाएगा।
गाँव के लोगों को जागरूक करने की भी आवश्यकता है। उन्हें यह समझाना आवश्यक है कि शिक्षा का माध्यम चाहे जो भी हो, गुणवत्ता सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। यह जिम्मेदारी शिक्षकों, सरकारी अधिकारियों और समाज के अन्य वर्गों की है कि वे लोगों को सरकारी स्कूलों की उपयोगिता और गुणवत्ता के प्रति जागरूक करें।
निजी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों को भी अधिक जिम्मेदार और पेशेवर होना चाहिए। सरकार को इन स्कूलों के लिए न्यूनतम मानदंड और दिशानिर्देश तय करने चाहिए ताकि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करें। शिक्षकों की योग्यता और उनके वेतन को भी इन मानदंडों में शामिल किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही, गाँवों में शिक्षा के प्रति एक सकारात्मक माहौल बनाना होगा। शिक्षा को केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि समग्र विकास का माध्यम समझा जाना चाहिए। इसके लिए स्कूलों में सह-पाठ्यक्रम गतिविधियाँ, जैसे खेल, कला और संगीत को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को केवल पढ़ाई-लिखाई तक सीमित नहीं करना बल्कि उन्हें एक जिम्मेदार और सशक्त नागरिक बनाना है। यह तभी संभव होगा, जब गाँवों में शिक्षा प्रणाली को सुदृढ़ किया जाए और सरकारी और निजी दोनों प्रकार के स्कूल मिलकर बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की दिशा में काम करें।
।। दो ।।
गाँवों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति बढ़ती रुचि एक बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव भी है, जिसे शिक्षा के पारंपरिक संदर्भ से अलग हटकर देखने की ज़रूरत है। यह केवल एक शैक्षणिक समस्या नहीं है बल्कि आधुनिकता, अस्मिता और सामाजिक प्रतिष्ठा के जटिल विमर्शों से जुड़ा हुआ है।
सामाजिक प्रतिष्ठा और अंग्रेजी का मिथक:
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई का सीधा संबंध समाज में उच्च वर्गीय प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। गाँवों में यह धारणा बन गई है कि अंग्रेजी माध्यम का स्कूल केवल शिक्षा नहीं बल्कि एक पहचान और सामाजिक उन्नति का प्रतीक है। गरीब परिवार यह सोचकर अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजते हैं कि यह उन्हें सामाजिक भेदभाव से उबरने और एक नई पहचान दिलाने में मदद करेगा, हालाँकि यह सोच अक्सर आर्थिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं से मेल नहीं खाती।
मातृभाषा की उपेक्षा और सांस्कृतिक अलगाव:
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होने से बच्चों का अपनी मातृभाषा और स्थानीय संस्कृति से जुड़ाव कमज़ोर हो जाता है। गाँवों में, जहाँ भाषा और संस्कृति का गहरा सामाजिक और सामुदायिक महत्त्व है, यह अलगाव बच्चों में पहचान संकट पैदा कर सकता है। यह बच्चों को अपनी जड़ों और सांस्कृतिक परंपराओं से काट देता है जिससे उनकी व्यक्तित्व विकास प्रक्रिया प्रभावित होती है।
शिक्षा का व्यावसायीकरण और ‘एजुकेशन इकोनॉमी’:
अंग्रेजी माध्यम के स्कूल केवल शैक्षिक संस्थाएँ नहीं हैं बल्कि यह शिक्षा के बढ़ते व्यावसायीकरण का परिणाम भी हैं। इन स्कूलों का उद्देश्य लाभ कमाना है, जिसके लिए वे शिक्षा को एक उत्पाद की तरह बेचते हैं। स्कूलों के प्रबंधन इस तथ्य को भुनाते हैं कि ग्रामीण परिवार अंग्रेजी माध्यम को अपनी आर्थिक और सामाजिक प्रगति के साधन के रूप में देखते हैं।
असमानता की नई परतें :
जहाँ सरकारी स्कूल शिक्षा को सुलभ और समतामूलक बनाने के लिए कार्यरत हैं, वहीं निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल गाँवों में नई असमानताएँ पैदा कर रहे हैं। यह असमानता न केवल आर्थिक है, बल्कि भाषाई और सांस्कृतिक भी है। सरकारी स्कूलों के बच्चे, जो अपनी मातृभाषा में पढ़ते हैं, और अंग्रेजी माध्यम के बच्चों के बीच एक अनकहा भेदभाव उभर रहा है। यह असमानता समाज में आगे चलकर गहरी खाई पैदा कर सकती है।
समाधान के लिए रचनात्मक दृष्टिकोण :
गाँवों में शिक्षा के इस बदलते स्वरूप को एक समस्या के रूप में देखने के बजाय इसे अवसर के रूप में समझना होगा। यह इंगित करता है कि लोग शिक्षा के महत्व को समझने लगे हैं और बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत हैं। अब ज़रूरत इस बात की है कि इस परिवर्तन को सही दिशा में ले जाया जाए।
द्विभाषी शिक्षा का मॉडल: शिक्षा का माध्यम ऐसा हो जो अंग्रेजी और मातृभाषा, दोनों को समान महत्व दे। बच्चों को उनकी जड़ों से जोड़े रखते हुए उन्हें वैश्विक भाषा में दक्ष बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
समुदाय आधारित स्कूल: गाँवों में ऐसे स्कूल विकसित किए जा सकते हैं, जो सामुदायिक भागीदारी पर आधारित हों। इन स्कूलों में शिक्षकों का चयन, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति स्थानीय समुदाय के सुझावों के आधार पर हो।
शिक्षकों का ‘ग्लोकल’ दृष्टिकोण: गाँवों के शिक्षकों को स्थानीय और वैश्विक दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाए। उन्हें बच्चों को उनकी संस्कृति से जोड़ते हुए आधुनिक कौशल सिखाने की कला में दक्ष बनाया जाए।
सांस्कृतिक शिक्षा का समावेश: पाठ्यक्रम में स्थानीय इतिहास, परंपराएँ, और सांस्कृतिक गतिविधियों को शामिल करना चाहिए, ताकि बच्चों में अपनी पहचान और जड़ों के प्रति गर्व की भावना विकसित हो।
गाँवों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की चुनौतियों का समाधान शिक्षा प्रणाली के पुनर्गठन और सामुदायिक सहभागिता के साथ किया जा सकता है। यह समाधान बच्चों की मातृभाषा और वैश्विक भाषा के बीच संतुलन स्थापित करने, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने, और शिक्षा को समावेशी और सुलभ बनाने पर केंद्रित होना चाहिए।
द्विभाषी शिक्षा का मॉडल:
गाँवों के स्कूलों में द्विभाषी शिक्षा प्रणाली अपनाई जानी चाहिए, जिसमें बच्चों को उनकी मातृभाषा और अंग्रेजी, दोनों में दक्ष बनाया जाए। प्रारंभिक कक्षाओं में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाई कराई जाए, जिससे वे शिक्षा को आसानी से समझ सकें। इसके साथ ही अंग्रेजी को धीरे-धीरे पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। यह मॉडल बच्चों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखते हुए उन्हें वैश्विक भाषा में निपुण बनाएगा।
शिक्षकों का प्रशिक्षण:
शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ। शिक्षकों को आधुनिक शिक्षण तकनीकों, द्विभाषी शिक्षा, और बच्चों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझने का प्रशिक्षण दिया जाए। शिक्षकों के वेतन और सुविधाओं में वृद्धि की जाए, ताकि योग्य और प्रतिबद्ध शिक्षक गाँवों में काम करने के लिए प्रेरित हों।
सरकारी और निजी स्कूलों का सहयोग:
सरकारी और निजी स्कूलों के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित किया जाए, जिससे संसाधनों और शिक्षण पद्धतियों का आदान-प्रदान हो। निजी स्कूलों को सख्त दिशानिर्देशों के तहत संचालित किया जाए, ताकि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करें और केवल लाभ कमाने पर ध्यान न दें।
सामुदायिक भागीदारी:
शिक्षा के क्षेत्र में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जाए। स्थानीय पंचायतों, अभिभावकों और शिक्षकों की एक संयुक्त समिति बनाई जाए, जो स्कूलों के प्रबंधन और सुधार में सक्रिय भूमिका निभाए। यह समिति बच्चों की उपस्थिति, शिक्षा की गुणवत्ता, और स्कूल के बुनियादी ढाँचे पर निगरानी रखे।
सांस्कृतिक और कौशल शिक्षा का समावेश:
पाठ्यक्रम में स्थानीय इतिहास, परंपराएँ, और सांस्कृतिक गतिविधियाँ शामिल की जाएँ। इसके साथ ही बच्चों को डिजिटल साक्षरता और व्यावसायिक कौशल सिखाने पर ध्यान दिया जाए, जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें।
डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता:
ग्रामीण स्कूलों में डिजिटल उपकरण और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। बच्चों और शिक्षकों को डिजिटल माध्यमों का उपयोग करने का प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे आधुनिक तकनीकों का लाभ उठा सकें।
इन उपायों के माध्यम से गाँवों में शिक्षा का स्तर सुधारा जा सकता है, बच्चों में आत्मविश्वास और दक्षता विकसित की जा सकती है, और समाज को एक मजबूत शैक्षणिक आधार प्रदान किया जा सकता है।