कर्पूरी ठाकुर : सामाजिक न्याय और समाजवाद का संगम

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— प्रो. अजीत झा —

कुछ नेताओं का राजनीतिक पुनर्जन्म उनकी मृत्यु के बाद भी होता है। बाबा कु साहब अंबेडकर अपने जीवन काल में एक महत्वपूर्ण नेता थे। पर आज उनका राजनीतिक कद और सामाजिक वैचारिक महत्व उनके जीवन काल से कई गुणा ज्यादा है। बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी और आज शायद ही कोई इस तथ्य पर यकीन करेगा कि, जब 1977 में महाराष्ट्र को जनता पार्टी सरकार ने मराठवाडा विश्वविधालय का नाम अंबेडकर के नाम पर रखा तो, पूरे महाराष्ट्र में जातिवादियों ने हिंसा और विरोध का माहौल बना दिया। महाराष्ट्र के गौरव, समाजवादी नेता, एस. एम. जोशी को जातिवादियों ने जूते-चप्पलों की माला पहनाई। पर आज अंबेडकर को अपनाने की होड़ लगी है। उनके विचारों के दुश्मन भी आज अंबेडकर के नाम प्रतीक पर हमला करने से परहेज करते हैं। अंबेडकर को मूर्ति पूजा करके उनकी क्रांतिकारिता को निगलना चाहते हैं।

भारतीय राजनीति में पिछड़े, दलितों, आम लोगों के एक और सशक्त प्रतीक की, कर्पूरी ठाकुर के रूप में उभरने की पूरी संभावना है। कर्पूरी ठाकुर अपनी मृत्यु के बाद बिहार की राजनीति में एक सर्वमान्य/जरूरी (कई दलों के लिए मजबूरी में भी सही) प्रतीक के रूप में उभरे। अब बिहार के बाहर भी इस व्यक्तित्व के प्रभाव का समय आ गया है।

सभी भारतीयों को एक सूत्र में बांधने, और विश्व पटल पर एक सशक्त भारतीय राष्ट्र को स्थापित करने के लिए समता, समृद्धि और विकास का जो सपना हमारे शहीदों ने देखा था उसको पलटने का काम तब के अंग्रेजों के दलालों के वंशज आज कर रहे हैं। ऐसे में कर्पूरी जी के जीवन और राजनीति से प्रेरणा लेना, सीखना और उसे प्रचारित करना देश-सेवा का एक जरूरी काम है। कर्पूरी ठाकुर की छवि आम तौर पर पिछडों का नेता की रही है। पिछड़े इस देश का बहुत बड़ा हिस्सा हैं। आज भी इनकी स्थिति काफी खराब है।

कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन काल में, पिछड़ों की स्थिति बहुत खराब थी। पिछडो का नेता होना अपने आप में गौरव की बात है । पर इस छवि को चाहे उनके समर्थक बनाएं या उनके विरोधी, इसका आशय, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक विकास के आधार पर एक मजबूत और समृद्ध, समता-मूलक राष्ट्र निर्माण के उनके सपने को कहीं ना कहीं धूमिल करना होता है । उस सपने की चमक के बिना कोई सामाजिक न्याय संभव नहीं है। यह सामाजिक न्याय के पक्षधरों को समझना होगा। सामाजिक न्याय और समता के विरोधियों के लिए वह सपना एक ऐसा आग का गोला है जिसे वह चाहे भी तो प्रतीक बनाकर निगल नहीं सकते।

कर्पूरी ठाकुर 1940 में राजनीति में आए और 1988 में अपनी मृत्यु तक राजनीति में रहे। इस पूरे दौर में उन्होंने कभी भी केवल जाति आधारित राजनीति या पिछडी जाति की राजनीति नहीं की । जाति विषमता को खत्म करना उनकी राजनीति के केंद्रीय सवालों में जरूर था। पर यह एकमात्र सवाल नहीं था। वह लोहिया द्वारा प्रतिपादित जाति व्यवस्था पर चौतरफ़ा हमले के पैरोकार थे।

एक अत्यंत गरीब परिवार, संख्या की दृष्टि से और सामाजिक हैसियत के हिसाब से पिछड़ों में पिछड़ी, अत्यंत कमजोर जाति से आने के बावजूद, कर्पूरी ठाकुर युवा अवस्था से ही पहले प्रदेश में और बाद में देश के एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे। उनकी गाथा का मुख्य आधार कभी भी जाति नहीं रहा । वह जाति के कारण नहीं, जाति के बावजूद नेता बने। उन्होंने भारतीय राजनीति में ऐसे बदलाव के लिए काम किया जिसमें केवल उनके जैसे असाधारण क्षमता के व्यक्ति ही नहीं बल्कि गरीब, पिछडी दलित जातियों के भी सामान्य क्षमता के राजनीतिक कार्यकर्ता सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद सत्ता में हिस्सेदारी कर सके।

1940 से ही कांग्रेस में शामिल होकर वह स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही बने। 1940 में ही कांग्रेस समाजवादी दल में शामिल होकर वह कांग्रेस के उस समूह का हिस्सा बने जो सामाजिक और आर्थिक समता के लिए प्रतिबद्ध था। आजादी के बाद वह सोशलिस्ट पार्टी का हिस्सा बने। 1952 में विधानसभा के लिए चुने गए। 1952 से 1967 तक वह सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता रहे। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने विधानसभा मे 67 सीटों पर जीत हासिल की। जो लोग उस समय की राजनीति को जानते हैं उनको यह भी जानकारी होगी कि सामाजिक न्याय “पिछड़ा पावे सौ में साठ “ केवल और केवल संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) का नारा था। अन्य सभी पार्टियां इसके विरोध में थीं या कम से कम समर्थक तो नहीं थीं। पर यह पिछड़ा कौन था? यह पिछड़ा था सभी महिलाएं- (अगड़ी/द्विज जातियो की भी महिलाएं). दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ी जातियां (केवल हिन्दू नहीं-मुस्लिम, ईसाई समाज के पिछड़े भी) सौ में साठ -एक प्रमुख नारा था, कार्यक्रम था और नीति थी। पर यह पार्टी की नीति का एकमात्र अंग नहीं था । केवल नारों की ही गूंज सुने तो आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक क्षमता और विकास पर आधारित राष्ट्र निर्माण के संकल्प का संगीत सुनाई देगा।

“धन और धरती बँट कर रहेगी” “पिछड़ा पावें सौ में साठ”

“राष्ट्रपति का बेटा हो या मजदूर की संतान – सबकी शिक्षा एक समान” “ अंग्रेजी में काम ना होगा फिर से देश गुलाम न होगा”

धन और धरती बाँटने के ठोस कार्यक्रम थे । महंगाई रोकने के लिए दाम-नीति । आर्थिक विकास और समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिये- फिजूल खर्ची, विलासिता और गैर उत्पादक खर्चों पर रोक की नीति थी । राष्ट्रीयता को मजबूत करने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जन अभियान और सरकारी तैयारी के लिए दबाव था।

भारत की बहुसंख्यक आबादी का खेती पर निर्भर होने के कारण और भूमि व्यवस्था पर सामाजिक आर्थिक विकास के विरोधी शक्तियों के काबिज होने के कारण, नीति और संघर्ष में जमीन का सवाल सबसे प्रमुख सवाल बना। जमींदारी उन्मूलन, भूमि हदबंदी, भूमि वितरण, लगान माफी, सिंचाई शुल्क, खेती के विकास के लिए समुचित संसाधनो की व्यवस्था, खेती उत्पाद को उचित मूल्य – इन सभी सवालों पर आंदोलन चलाए गए। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यक्रम नीतियां सारे देश के लिए थीं। पर इसका सबसे मजबूत आधार बिहार में था। बिहार में पार्टी को मजबूत बनाने में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व का महत्वपूर्ण योगदान था ।

पार्टी को जातिवादी चश्मे से देखने वाले और कर्पूरी ठाकुर को जातिवादी नेता बताने वाले (पहले खुल कर बताते थे अब काना-फूसी करके प्रचार करते हैं) इन सभी तथ्यों का सामना नहीं करते। वह इस बात को भी छुपा लेना चाहते हैं कि 1973 तक जब तक रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर एक ही पार्टी में थे तब तक सोशलिस्ट पार्टी में कांग्रेस के नेहरू पटेल को तर्ज पर बिहार में इन दोनों नेताओं का संयुक्त नेतृत्व था। 1967 में बिहार से पार्टी के टिकट पर चुने गए सांसदों में ज्यादा अगड़ी जातियों के थे। पिछड़ों का प्रतिनिधित्व राजनीति में बढ़ें इसके लिए पार्टी प्रतिबद्ध थी, और यह प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ता गया। महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल पर पार्टी असफल रही। कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए इस असफलता को दूर करना होगा।

सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन की राजनीति के सामने कई खतरे थे और हैं। डॉक्टर लोहिया इसके बारे में सजग थे और बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहते थे। पिछड़ा वर्ग फेडरेशन के अध्यक्ष चांदपुरी जी को 1957 में लिखे पत्र में लोहिया ने लिखा- यह संभव है कि कुछ शूद्र, द्विजों के खिलाफ बदले की भावना से काम कर रहे हैं। यह ना तो उचित है, न संभव है। अगर यह मानसिकता हावी होगी तो वही शूद्र नेतृत्व में आएंगे जो दोमुंहे होंगे, जो चापलूसी करेंगे और जिनमें नफरत का इस्तेमाल करने की विशेष प्रवृत्ति होगी। हमें तो ऐसा नेतृत्व खड़ा करना है, जो शूद्र और द्विज पहचान को हमेशा के लिए खत्म कर दे। लोहिया सामाजिक न्याय की राजनीति की चुनौतियों और ख़तरों के बारे में सचेत थे। लोहिया इस संभावना से चिंतित थे, की संख्या में बड़ी कुछ पिछड़ी जातियां राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने पर सामाजिक न्याय और बदलाव को राजनीति से पल्ला झाड़ ले और अपने से पिछड़ी जातियों के साथ अन्यायपूर्ण बर्ताव करें।

सामाजिक न्याय की राजनीति की अनिवार्यता /प्रतिबद्धता और खतरों के प्रति सजगता के साथ लोहिया ने भारतीय राजनीति में एक अनुपम स्थाई योगदान दिया। इस राजनीति को सबसे ज्यादा मजबूती बिहार में मिली। कर्पूरी ठाकुर ने न केवल लोहिया की नीति को पूरी तरह आत्मसात किया बल्कि उसको दक्षता और सक्षमता से लागू किया। वह लोहिया की ऐसे सक्षम नेतृत्व की, जो द्विज-शूद्र पहचान मिटा दे, कामना के जीते-जागते मिसाल थे। अम्बेडकर की ही तरह, कर्पूरी ठाकुर के लिए सामाजिक न्याय – जाति विनाश, सामाजिक समता, सामाजिक विकास, राष्ट्र निर्माण की राजनीति का एक जरुरी हिस्सा भी था और धारदार हथियार भी।

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