क्या नीतीश-केजरी की राजनीति खत्म होने वाली है?

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shravan garg

— श्रवण गर्ग —

विष्यवाणी की जा सकती है कि विपक्ष की राजनीति में नया साल सिर्फ़ दो नेताओं के ‘निर्मम’ चमत्कारों की बलि चढ़ने वाला है। नए साल में इन दो नेताओं की सफलता-असफलता कई आशंकाओं और समीकरणों को जन्म देने वाली है। कहा जा सकता है साल की शुरुआत ‘पर्दे के पीछे’ से ‘मुख्यमंत्री’ पद सम्भाल रहे अरविंद केजरीवाल के चौथी बार भी भाग्योदय या फिर राजनीतिक पराभव से होगी और 2025 का पटाक्षेप मोदी द्वारा नीतीश कुमार के भविष्य निर्धारण के साथ।

माना जा सकता है भाजपा और कांग्रेस के बीच कम से कम एक मुद्दे पर तो मौन सहमति बनी होगी कि केजरीवाल की तरह की राजनीति के लिये दिल्ली विधानसभा का चुनाव हर क़ीमत पर आख़िरी किश्त साबित होना चाहिए। ‘आप’ नेता को इस बात का अगर संदेह भी हो गया हो कि दोनों दल उनके ख़िलाफ़ एक हो गए हैं तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। केजरीवाल चतुर हैं। वे ‘आप’ को लेकर मोदी और राहुल दोनों के ख़ौफ़ को समझते हैं। इसीलिए उन्होंने अब दोनों दलों पर समान रूप से हमले प्रारंभ कर दिये हैं। केजरीवाल के निशाने पर पहले सिर्फ़ मोदी-शाह ही थे, कांग्रेस नहीं !

अजय माकन के बहाने कांग्रेस नेतृत्व पर पर जिस तरह के आरोप संजय सिंह और आतिशी से ‘लगवाए’ गए और कांग्रेस को ‘इंडिया ब्लॉक’ से बाहर करने की धमकी दी गई उससे केजरीवाल के इरादे ज़्यादा उजागर हो गए। दस सालों की सत्ता में अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर केजरीवाल इतने आशंकित पहले कभी नज़र नहीं आए जितने इस समय दिखाई पड़ रहे हैं।

अपनी पार्टी को लेकर जैसे डर का सामना केजरीवाल कर रहे हैं वैसी ही कुछ स्थिति जेडीयू को लेकर नीतीश कुमार की बिहार में है। केंद्र द्वारा आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को केरल से हटाकर बिहार का राज्यपाल बनाने का वैसे तो जेडीयू ने स्वागत किया है पर उससे ये आशंकाएँ ख़ारिज नहीं हो जातीं कि चुनावों के बाद नीतीश कुमार भी ‘एकनाथ’ को प्राप्त हो सकते हैं। अमित शाह एक बार तो सिक्का उछाल ही चुके हैं कि बिहार चुनावों के लिये मुख्यमंत्री का चेहरा अभी तय नहीं है और दूसरी ओर भाजपा नेता गिरिराज सिंह नीतीश को ‘भारत रत्न’ बनाने का सुझाव दे चुके हैं।

भाजपा और कांग्रेस दोनों जानते हैं कि कड़े विरोध के बावजूद केजरीवाल अगर चौथी बार भी मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए तो उसके राजनीतिक परिणाम क्या निकलने वाले हैं ! उस स्थिति में मोदी को चुनौती देने का काम राहुल गांधी नहीं बल्कि केजरीवाल करेंगे। क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि 2014 के बाद से मोदी कांग्रेस को तो देश भर में हराते रहे पर सत्ता की ठीक नाक के नीचे दिल्ली में केजरीवाल के सामने विफल साबित होते रहे। केजरीवाल में कोई तो बात होगी जो राहुल में नहीं है !

राहुल के सामने चुनौती यह है कि केजरीवाल की जीत विपक्ष की राजनीति में उस घातक गठजोड़ (लीथल कॉम्बिनेशन) की प्रसूति करेगी जिसकी कि ममता बनर्जी कोलकाता में प्रतीक्षा कर रही हैं। ममता अपने इरादे पहले ही ज़ाहिर कर चुकी हैं कि वे कांग्रेस को हटा कर ‘इंडिया ब्लॉक’ का नेतृत्व करना चाहती हैं। उस स्थिति में शरद पवार की एनसीपी सहित अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस की छत्रछाया से अपने को आज़ाद कर लेंगे। राहुल के लिये इस समय दिल्ली चुनावों में भाजपा को हराने से ज़्यादा बड़ा काम केजरीवाल को फिर से सत्ता में आने से रोकने का है।

मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारों के ग्रंथियों को अठारह हज़ार रुपये महीने देने की केजरीवाल की नई योजना को भाजपा और कांग्रेस दोनों की कमजोर नसों पर सुनियोजित तरीक़े से प्रहार करने की रणनीति का हिस्सा माना जा सकता है। महाराष्ट्र की तर्ज पर केजरीवाल ने 12 दिसंबर को घोषणा की थी कि महिलाओं को अभी हर महीने हज़ार रुपए और चुनाव बाद 2,100/- रुपए दिए जाएँगे। उसके बाद 18 दिसंबर को घोषणा कर दी कि साठ साल से ऊपर के बुजुर्गों का निजी और सरकारी अस्पतालों में निशुल्क इलाज होगा। दिल्ली सरकार ने बाद में दोनों योजनाओं को ‘फ़र्ज़ी’ करार दिया। पूछा जा सकता है जिन योजनाओं का पिछले दस सालों के दौरान केजरीवाल के मन में विचार भी नहीं आया उन्हें इस वक्त क्यों लागू किया जा रहा है ?

नीतीश कुमार और केजरीवाल हाल के सालों में भारतीय राजनीति के सबसे ज़्यादा महत्वाकांक्षी राजनेताओं के रूप में अवतरित हुए हैं। आरोप है दोनों नेताओं ने ही सत्ता की लालसा के चलते भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्ष की साझा लड़ाई का सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है। नीतीश अपने आपको ‘इंडिया ब्लॉक’ का रचनाकार बताते रहे पर उसे सबसे ज़्यादा चोट भी उन्होंने ही पहुँचाई। केजरीवाल की छवि को लेकर ढाई दशकों के बाद भी मुल्क तय नहीं कर पाया रहा है कि वे किसकी टीम के खिलाड़ी हैं।

अन्ना-केजरीवाल का ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ गवाह है भाजपा और संघ की मदद लेकर किस तरह पहले शीला दीक्षित और बाद में डॉ मनमोहन सिंह की साफ़-सुथरी सरकारों को तबाह किया गया। महसूस किया जाने लगा है कि भारतीय राजनीति का वह क्षण विलक्षण होगा जब नीतीश कुमार और केजरीवाल जैसी महत्वाकांक्षाओं वाले लोग इतिहास के पन्नों में हाशियों पर धकेल दिये जाएँगे। केजरीवाल के पास तो मोदी जैसी राजनीति करने के लिए अभी बीस-पच्चीस साल की उम्र भी बची है। कल्पना की जा सकती है कि ‘आम आदमी पार्टी’ का यह धुंआधार नेता अगर सफलताओं के झंडे गाड़ता गया तो राजनीति को किस मुक़ाम पर ले जाकर छोड़ेगा !

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