मधु लिमये की याद में!

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Madhu Limaye

— विनोद कोचर —

ये एक सुखद और एक तरह से, क्रांतिकारी संयोग ही था कि आपातकाल के बंदीवास के दौरान मुझे दो महीनों तक बालाघाट जेल में रखने के बाद सरकार ने मुझे 25 अगस्त 1975 को और मधुजी को, रायपुर जेल में दो महीनों तक रखने के बाद, 7 सितंबर 1975 को नरसिंहगढ़ जेल में भेज दिया।

सोचता हूँ कि अगर ये संयोग नहीं मिलता तो मेरे जैसे, आरएसएस के पूर्ण प्रशिक्षित और कई संघ शिविरों में प्रशिक्षक रह चुके,14वर्ष की संघ आयु वाले स्वयंसेवक का क्या होता?

आज मेरे पास इस सवाल का यही जवाब है कि अगर जेल में मुझे मधुजी का सान्निध्य नहीं मिला होता तो मैं शायद अभी तक राष्ट्रवाद की हिन्दूराष्ट्रवादी जहरीली और नशीली नागिन के मोहपाश में लिपटे रहकर, अन्य स्वयंसेवकों की तरह गांधी का आलोचक और गोडसे का प्रशंसक बनकर छद्म आत्मगौरव के नशे में झूम रहा होता

आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने और स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने के लिए गिड़गिड़ाहट की भाषा में इंदिरा गांधी को , आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाळासाहेब देवरस द्वारा लिखा गया पत्र तथा हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के अवैध घोषित चुनाव को, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में किये गए संशोधन द्वारा बेअसर करने के बाद, सुप्रीमकोर्ट द्वारा वैध घोषित करते हुए श्रीमती गांधी को दी गई क्लीन चिट पर इंदिरा गांधी को बधाई देने वाला पत्र पढ़कर, जेल में ही मेरी संघ के प्रति आस्था चरमराने लगी थी।

मीसाबंदी स्वयंसेवकों का पारिवारिक और कारोबारी चिंता में डूबकर, छाती पीट पीटकर रोना चिल्लाना भी मैंने देखा तो संघियों की खोखली देशभक्ति ने भी मुझे शर्मसार किया।

इसके अलावा, मधुजी के साथ घंटों लंबी बातचीत के जरिये और जेल में बिताई गई उनकी जीवन शैली के जरिये भी मेरा वैचारिक कायाकल्प हिन्दूराष्ट्रवाद से भारतीय समाजवाद की तरफ होता चला गया और मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं समाजवादी आंदोलन की विचारधारा में दीक्षित हो गया!

आपातकाल के खिलाफ जेल में ही अपने लेखन के जरिये, मधुजी ने जो बेमिसाल लड़ाइयां लड़ीं उनका भी मैं चश्मदीद गवाह बन गया।

मधुजी के सत्संग में नरसिंहगढ़ जेल में 14 नवंबर 1976 तक मैं रहा और पढ़ने लिखने का शौकीन होने के कारण, सिर्फ मधुजी की ही बदौलत मुझे जीवन में पहली बार महात्मा गांधी और डॉ राममनोहर लोहिया के जीवन, चरित्र, लेखन और कर्मों का अध्ययन करने मिला क्योंकि आरएसएस ने ये ज्ञान न उस समय और न ही उसके बाद आजतक कभीं भी अपने स्वयंसेवकों को मुहैया कराया।

मधुजी के निजी सहायक की भूमिका निभाते हुए मुझे उनके,जेल में लिखे गए लेखन की हिंदी व अंग्रेजी की फेयर प्रतियां भी अपने स्वाक्षरों से तैयार करने का सुअवसर भी मिलता चला गया।

14 नवंबर 1976 को बीमारी के इलाज के लिए भोपाल जेल जाने के पहले मधुजी अपनी काफी किताबें,पढ़ने के लिए मेरे पास छोड़कर गए थे जिन्हें 1977 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद ,उनके बुलावे पर दिल्ली जाकर ही मैं वापस कर पाया था।दिल्ली में भी मधुजी के, पंडारा रोड स्थित सरकारी बंगले में 11 दिनों तक मैं मधुजी के साथ रहा और वहाँ भी उनके कई पेंडिंग कामों को उनके निर्देशानुसार निबटाता रहा।मधुजी चाहते थे कि मैं दिल्ली में उनके साथ ही उनके घर में रहूं लेकिन अपरिहार्य परिवारिक कारणों से ये मेरे लिए संभव नहीं था।

आज मधुजी की देह का 30वां चिरविश्राम दिवस है और उनकी तमाम यादें और प्रेरक जीवन मेरे दिलोदिमाग में चलचित्र की तरह तैर रहे हैं।

महादेवी वर्मा के शब्दों में:-

क्या भूलूँ क्या याद करूँ?
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
अगणित उन्मादों के क्षण हैं।
याद दुखों के आंसू लाती,
दिल का दुख भारी कर जाती!
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन किन से आबाद करूँ?

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