मेरी त्रावणकोर की और उसी प्रसंग में कोचीन की यात्रा बड़ी ही आनंदपूर्ण रही। त्रावणकोर का जलमार्ग बहुत सुंदर है और उसी तरह वहाँ की सड़कें भी बहुत सुंदर हैं। मेरा रास्ता एक सुंदर जलमार्ग होकर पड़ता था, जिसके दोनों ओर हरे -भरे पेड़ पौधों की भरमार थी। मैंने दक्षिण में कन्याकुमारी तक यात्रा की जहाँ सागर प्रतिदिन भारत माता के पग पखारता है।
सारे प्रदेश छोटे छोटे-छोटे फ़ार्मो में बँटा हुआ है जिनमें छोटे-छोटे घर बने हुए हैं। अतः यहाँ पर भारत के अन्य गाँवों जैसी- जहाँ खुली भूमि और खुले वातावरण के बावजूद मनुष्य और पशु थोड़े से ही स्थान में ठूँसे रहते हैं— कुरूपता नहीं थी।
शिक्षा और स्त्रियों का दर्जा:
भारत में औरतों को उतनी आज़ादी और कहीं नहीं है जितनी मलाबार में है। स्थानीय क़ानून और प्रथाओं में उन्हें समुचित सरंक्षण प्राप्त है। शिक्षा की दृष्टि से तो त्रावणकोर वस्तुतः भारत का सबसे उन्नत प्रदेश लगता है। वहाँ 1922 में हजार में 244 लोग साक्षर थे ; पुरुषों में 330 और स्त्रियों में 150। इस आश्चर्यजनक प्रगति में पिछड़े वर्ग के लोग भी पूरा हिस्सा ले रहे हैं।
यदि इस तमाम शिक्षा का मतलब अपने समूचे परिवेश से असंतोष, अतीत से संबंध विच्छेद और भविष्य के प्रति निराशा और रोज़गार के लिए छीना झपटी हो तो निश्चय ही यह पूरा का पूरा सुंदर भवन किसी भी दिन अचानक ढह जाएगा। जिसमें हृदय और हाथ को पर्याप्त प्रशिक्षण न मिले, ऐसी कोरी साक्षरता मेरी दृष्टि में नि:सार है।
राज्य संरक्षिका महारानी और उनकी सादगी;
महारानी से मिलकर तो मुझे हर्ष और आश्चर्य ही हुआ। मेरा खयाल था कि महारानी कोई सजी-धजी महिला होंगी और हीरों से जड़े आभूषण और कंठहार पहने होंगी। किन्तु मैंने वहां कुछ और ही देखा; मैंने देखा कि मेरे सामने एक सुशील युवती खड़ी है, जो सौंदर्य के लिए आभूषणों और सुंदर वस्त्रों पर नहीं, बल्कि अपनी सहज सुंदर मुखाकृति और अपने मर्यादित व्यवहार पर निर्भर है। उनकी वेशभूषा जैसी सादी थी, उनके कमरे की सजावट भी वैसी ही सादी थी। उनकी कठोर सादगी देखकर मेरे मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। मुझे लगा कि वे उन अनेक राजाओं और लखपतियों के सम्मुख एक पदार्थपाठ की तरह हैं, जिनकी तड़क भड़क वाली कीमती कामदार पोशाक, भद्दे दिखनेवाले हीरे, अँगूठियाँ और नगीने और इससे भी ज़्यादा आंख को गड़नेवाला और लगभग गँवारू फ़र्निचर कुरूचिपूर्ण लगते हैं, और जिस जन-साधारण से वे अपनी संपदा का संग्रह करते हैं, उनसे जब तुलना करते हैं तो दोनों की स्थितियों में बहुत बड़ा संतापकारी अन्तर मालूम होता है। मुझे तरूण महाराजा और छोटी महारानी से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने सारे महल में वही सादगी देखी। महाराजा एक हिमधवल धोती पहने थे जो उन्होंने लूँगी की तरह लपेट रखी थी। मेरा खयाल है कि आभूषण के नाम पर उनकी अंगुली में एक अँगूठी भी नहीं थी। छोटी महारानी की वेशभूषा भी उतनी ही सादी थी, जितनी राज्य संरक्षिका बड़ी महारानी की। मैंने देखा उन्होंने केवल एक पतला सा मंगलसूत्र पहन रखा था। दोनों महिलाएँ हाथ की बुनी हुई सफेद साड़ियाँ और उसी प्रकार के कपड़े की आधी बाँह वाली कुरती पहनें थीं। कुरती पर कोई लेस या कढ़ाई का काम नहीं था।
आशा है, पाठक त्रावणकोर राज्य-परिवार के इस सूक्ष्म चित्रण के लिए मुझे क्षमा करेंगे। इसमें हम सबके लिए एक सबक है। राज-परिवार की सादगी इतनी स्वभाविक इसलिए थी कि वह समूचे वातावरण से मेल खाती थी।
स्त्रोत: संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड: 26, पृष्ठ:397-99