व्यष्टि में समष्टि

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Rajendra Ranjan Chaudhary

— राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी —

तुम उसे व्यक्ति समझ रहे थे ,
आज भी उसे व्यक्ति समझ रहे हो ।

तुम कल भी नहीं समझे थे
तुम आज भी नहीं समझ रहे ।
समझ भी नहीं पाओगे।

क्योंकि जब तुम्हारी दृष्टि में स्थूल था
तब वह सूक्ष्म बन चुका था.
भाव और विचार।

तुमने शरीर को देखा
आत्मा को नहीं जाना
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः।

तुम्हारे मन में व्यक्ति है
व्यक्तिस्वार्थ है।

तुम नहीं समझ सके कि
धर्म और राष्ट्र
समष्टि होते हैं.
व्यष्टि की सीमा के बाहर,
व्यापक।

माना कि व्यक्ति व्यक्ति से समाज बनता है ,बूँद बूँद से घट भरता है
लेकिन सोचो यह बूँद आती कहाँ से है?

उसी व्यापक से
समष्टि से,
समुद्र से।

वह तो समष्टि था
वह युग बन चुका था
बूँद समुद्र में जाकर समुद्र बन जाती है
वह समुद्र था
युग था.
युग है।

चल पड़े जिधर दो डगमग पग
चल पड़े कोटि पग उसी ओर।

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