पुस्तक मेला लोकार्पण मेला में सीमित हो रहा है

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— शंभूनाथ —

ब लेखक, शिक्षक और हिंदी अधिकारी सामान्यतः पुस्तकें नहीं खरीदते! पुस्तक मेला हमारे समाज की एक बड़ी घटना है। इसमें बड़ी संख्या में लेखक, प्रोफेसर, हिंदी अधिकारी और कई अन्य पुस्तक प्रेमी आते हैं। वे एक– दूसरे से आनंदपूर्वक मिलते हैं जो अच्छी बात है, पर क्या वे पुस्तकें खरीदते भी हैं? आमतौर पर हिंदी स्टालों पर भीड़ तभी दिखती है, जब किसी पुस्तक का लोकार्पण हो रहा होता है, मानो यह पुस्तक मेला न होकर लोकार्पण मेला हो।

गौर किया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों के स्टालों पर लोकार्पण नहीं होते, जबकि हिंदी पुस्तक के मामले में यह पढ़ने की जगह प्रदर्शन की चीज बना दी गई है। फेसबुक पर जिसे देखो एक किताब हाथ में लेकर प्रदर्शित कर रहा है। अब कुछ ही ऐसे दुर्लभ क्षण होते हैं, जब कोई लेखक अपने हाथ में खरीदी गई हिंदी किताबों का थैला लिए दिख जाए।

कुछ वर्षों से पुस्तक मेला के कॉन्टेंट में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसी नई पुस्तकें ज्यादा दिख रही हैं जो जल्दबाजी में लिखी गई हैं। ऊपर से राजनीति ने विषयों को काफी सीमित और एकरूप कर दिया है। शब्द पर शोर हावी है। प्रकाशक इस दरिद्रता की क्षतिपूर्ति बड़े पैमाने पर पुरानी चर्चित पुस्तकें छाप करके कर रहे हैं। अब ’न्यू अराइवल’ में पुरानी पुस्तकें भी हैं!

पुस्तक मेला के कॉन्टेंट में गिरावट की एक बड़ी वजह यह है कि हिंदी ही नहीं अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों को भी पैसे देकर किताबें छपाई जा रही हैं। प्रकाशन संसार में लेखक के पैसे का प्रवेश इस संसार में भारी गिरावट ला रहा है, जो इस साल के पुस्तक मेला में भी स्पष्ट दिख रहा है। लेखक पहले लंबे समय तक पत्र–पत्रिकाओं में छपने के बाद खूब सोच–समझकर पुस्तक तैयार करते थे। अब पुस्तकें फास्ट फूड की तरह तैयार हो रही हैं!

वर्तमान पुस्तक मेला के चरित्र में एक बदलाव यह आया है कि यह राष्ट्रीय स्वरूप खोकर अधिक स्थानीयतावादी हो गया है। दिल्ली में पुस्तक मेला हो तो दिल्ली के लेखकों की जयजयकार, लखनऊ में हो तो लखनऊ और पटना में हो तो पटना के लेखकों की। इस दुनिया में भी भीतरी– बाहरी है। इधर हिंदी साहित्य का माहौल इतना अधिक स्थानीयतावादी होता जा रहा है कि ट्रंप का ’अमेरिका फर्स्ट’ किसी भी दिन फेल हो सकता है!

सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले कुछ दशकों से पढ़ने का संकट बढ़ा है, भले बड़े–बड़े लिटरेरी फेस्टिवल हो रहे हों या विश्व पुस्तक मेले लगते हों। 20 से 30 साल के हाईफाई नौजवानों की जेब में कलम और हाथ में किताब नहीं दिखेगी, अब यह पिछड़ापन है। एक हिंदी लेखक को दूसरे लेखक की किताब पढ़ना सामान्यतः अपना अपमान करना लगता है। कुछ मित्र लेखक आपस में एक–दूसरे की किताबें पढ़ लें तो पढ़ लें।

21वीं सदी की एक बड़ी सांस्कृतिक घटना यह है कि सुनने ने पढ़ने को विस्थापित कर दिया है। लोगों को समाचार वाचन, भाषण और प्रवचन सुनना अच्छा लगता है। अब पढ़ना एक बोझ सा है। पढ़ने पर सुनने ने जो हमला किया है, उसका बुरा नतीजा यह है कि लोग खुद सोचने और कल्पना करने की शक्ति खोते जा रहे हैं। समाज में क्रिटिकल थिंकिंग का ह्रास हो रहा है। लोग कुछ भी सुनते समय चुप और सम्मोहित रहते हैं, जबकि पुस्तक पढ़ते समय अपना एक व्यक्तित्व पाते हैं। दरअसल जिससे कमाई होती है सिर्फ वह पढ़ना या नई किताबें बिलकुल न पढ़ना बौद्धिक आत्महत्या जैसा है।

यदि आजकल पुस्तक मेला के फूड स्टालों पर बुक स्टालों से ज्यादा भीड़ होती है और हर तरफ केवल रौनक, चहल–पहल और पुस्तकों का प्रदर्शन और ’तुम मेरी गाओ–मैं तुम्हारी गाऊं’ है तो इसका अर्थ है विश्व पुस्तक मेला अपना चरित्र खोता जा रहा है। इससे सबक यह है कि हम पढ़ने के संकट को पर्यावरण के संकट की तरह गंभीरता से लें और पढ़ने की आदत बनाएं!


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