— केयूर पाठक और रणधीर गौतम —
बिहार के मिथिला क्षेत्र में महिलाओं के लिए आदर्श वर शिव है. वहां वर के रूप में न तो कामदेव की आकांक्षा है, और न देवराज इंद्र की. आकांक्षा है तो बस पशुपति शिव की- जिसके पास न कोई घर है और न कोई संपत्ति. आधुनिक पूंजीवाद जिस तरह से मानवीय संबंधों को वस्तुकृत कर रहा है ऐसे समय में उसका एक जोरदार प्रतिवाद है-शिव.
आराधना अंधविश्वास नहीं है. यह तार्किक प्रक्रिया भी सिद्ध हो सकता है- यह “दाता” के प्रति सम्मान प्रकट करने का पारंपरिक तरीका है. सम्मान उसके प्रति जिसके विचार, दर्शन, मूल्य से हमारा भौतिक-अभौतिक अस्तित्व संचालित होता है. आज शिवरात्रि है. शिव की आराधना कमोबेश पूरे भारत में की जाएगी. शिव को सनातन माना गया है. सनातन का अर्थ है, जिसकी सार्थकता हर काल में हो. शिव के विचार-दर्शन का महत्व जितना कल था, उससे अधिक आज इस उपभोक्तावादी दुनिया में है. शिव वर्तमान समय में भी एक वैकल्पिक जीवन दर्शन प्रस्तुत करता है. शिव के प्रतीकवाद को हम कुछ सन्दर्भों में देख सकते हैं:
उपभोक्तावाद के विरुद्ध एक विचार दर्शन: जंगलों, पहाड़ों और कंदराओं में रहने वाला एक ऐसा व्यक्ति, जिसका गृहस्थ जीवन तो है, लेकिन समकालीन गृहस्थों की तरह कोई सांसारिक जरूरत नहीं है. एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी जरूरतों को अपने अनुसार निर्धारित कर रखा हो. आज पूरी दुनिया में लोगों की जरूरतें लोगों के बदलें उत्पाद बनाने वाली कम्पनियां तय कर रही हैं. वे हमें बता रही है कि हम अधिक से अधिक उत्पादों को प्रयोग में लाकर ही सफलता को प्राप्त कर सकते हैं- थोपी गयी जरूरतों के साथ हमें जीना पड़ता है. शिव का जीवन दर्शन हमें इस बाजारू सफलता और उपभोक्तावाद से बाहर निकलने को प्रेरित करता है. शिव आनंद का पर्याय है, शिव सुख का पर्याय है. और यह आनंद और सुख निश्चय ही मानव के हृदय से निकलती है. यह किसी कम्पनी के उत्पाद के होने या न होने से तय नहीं होता. मनुष्य अपनी सांसारिक जरूरतों को नियंत्रित करके ही आनंदमय जीवन व्यतीत कर सकता है. उपभोक्तवाद की कोई सीमा नहीं, लेकिन जरूरतों का निर्धारण किया जा सकता है.
जैव-विविधता को बचाए रखने में: आज स्कूल से लेकर विश्विद्यालय के पाठ्यक्रमों में एक विषय के रूप में जैव-विविधता का पढाया जाना, जैव-विविधता पर आये संकट को ही बताता है. आज से कुछ ही दशक पहले की पीढ़ी के पास जैव-विविधता का जो अनुभव था, वह आज की पीढ़ी के पास नहीं है. आज की पीढ़ी को सियार, चील, गिद्ध, कौवे, हिरण, लोमड़ी, गोरैया, जुगनू, चमगादर, तितली, तितर जैसे सामान्य जीवों को भी देखने के लिए चिड़ियाघर जाना पड़ता है, जबकि यह सब कुछ दशक पहले तक लोक-जीवन के अंग होते थे. शिव के परिवेश को देखिये-वहां नदी है, पहाड़ है, जानवर है, अनगिनत जीव है, और सबके साथ शिव का एक साहचर्य है. कोई संघर्ष नहीं- उनके गले में तो जहरीले सांप हैं. हमने “वैज्ञानिकता” के नाम पर जो ‘बाइनरी’ बनाई उससे हम इस विविधता से वंचित हुए हैं. हमने मानवीय समाज को प्राकृतिक समाज से पृथक कर लिया, बिना इस बात को समझे कि उनसे हमारा अस्तित्व है न कि हमसे उनका. हमने “सभ्य-समाज” और “जंगली-समाज” कहकर अपने जीवन के सबसे अहम् अंग को अपने से अलग कर लिया.
समावेशी जीवन दर्शन के संरक्षण में : शिव के दर्शन में “जंगली”, “असभ्य”, “भदेश”, “गंवार”, “अशिक्षित” आदि कोई शब्द नहीं है. इसमें सबकी स्वीकार्यता है. सबकी अपनी सत्ता है. शिव मात्र व्यक्ति केन्द्रित विचार-दर्शन नहीं है, बल्कि यह धरती केन्द्रित जीवन दर्शन है जिसमें सभी जीव-अजीव के साथ धरती के तमाम अस्तित्व के प्रति एक सजगता है. शिव का दर्शन आम आदमी का दर्शन है, जिस कारण इसमें किसी का बहिष्करण नहीं है. शिव के पास लिंग, आयु, पंथ, विचार, मत, जाति, वर्ग किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं है. शिव का दर्शन एक तरह से विश्व का सबसे पुरातन समाजवादी दर्शन है. शिव के साथ सुर, असुर, नर, नारी, जीव, अजीव, गन्धर्व, किन्नर, पशु, पक्षी सबकुछ है. शिव सबके हैं, और सब शिव के हैं.
लोक-सत्ता के प्रति निष्ठा: लोक-कल्याण के लिए विष वही पी सकता है जिसे लोक की चिंता होगी. जो लोक के प्रति, उसके हितों के प्रति संवेदनशील है, वह बड़े से बड़े विष को पी सकता है. शिव ने समुद्र मंथन के बाद इसी भाव से विष को पिया और नीलकंठ कहलाये. शिव के चिंतन में ‘स्व’ से अधिक ‘सर्व’ है. व्यक्तिवादी होती दुनिया में सामाजिक हितों के प्रति यह भाव शिव का भाव है.
लैंगिक समानता: अर्धनारीश्वर की संकल्पना शिव से संयुक्त है. पुरुष और स्त्री के जिस बाइनरी विभाजन को पश्चिमी आधुनिकता ने जन्म दिया उसका प्रतिवाद है अर्धनारीश्वर की संकल्पना. स्त्री पुरुष ही नहीं, बल्कि तीसरे लिंग की स्वीकार्यता उस विमर्श की प्राचीन विरासत को बताता है जिसे समझने में पश्चिमी देशों को सैकड़ों वर्ष लगें. लिंग आधारित विमर्शों को समझने के लिए शिव अकादमिक विमर्शों का एक प्रस्थान बिंदु है.
इसके आलावा भी शिव को अनेक सन्दर्भों में समझा जा सकता है. आज शिव की भक्ति में लीन लोगों को आत्ममंथन करने की जरुरत है कि वे कितना शिव के विचार दर्शन को अपने जीवन में उतार पाते हैं. भारतीय समाज में शिव दर्शन की स्वीकार्यता अन्य किसी “देवता” से कम नहीं रही है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक शिव के प्रति एक विशेष अनुराग है. और इस अर्थ में सम्पूर्ण भारत को जोड़ने वाली एक आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक इकाई है- शिव.