शब्द रंग

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— डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’ —

आज जो उमंग है प्रिय,
खेल रही हो तुम रंगों से होली।
लाल, हरे, पीले रंगों से,
सुर्ख चटखीले रंगों से।
वैसे ही,
मैं तो‌ प्रतिदिन खेलता हूं,
शब्दों की होली।
पानी भी, पिचकारी भी।
ये कलम का सामर्थ्य, स्वाभिमान हैं,
कभी इंसान की लाचारी भी।
ये रंग मैंने कभी-
प्रेयसी के गालों पे लगायें हैं।
पानी में भिगोया है उनको,
कितने ही मनोभाव पन्नों पर आये हैं।
इन रंगों से बचपन और जवानी खेली है,
वस्ल और हिज़्र की कहानी खेली है।
प्रिय! ये रंग मैंने लगायें हैं-
बच्चों के कोमल हाथों पर,
जवान के जज्बातों पर।
पेड़ो को, पंछियों को, नदियों को,
इस युग को, बीती सदियों को।
मुझे जो मिला मैंने कोशिश की है,
उसे अपने रंगों से सींच दूं।
मेरी चाह कि एक रेखा
मेरे ये रंग कभी गरीबों और ग़मगीनों पे लगे हैं।
युद्ध में मरे जवाने के सीनों पे लगे हैं।
कभी रोते अनाथ बच्चों, अबला नारियों पर,
कभी किसान की, मजदूर की दुश्वारियों पर।
लगायें हैं इंसान की उमंगों और मजबूरियों पर,
जब तुझे न लगा सका तो अपनी दूरियां पर।
कभी दिखाए सब्ज बागों, जन्नतों, हूरों पर,
कभी घुटते सांसों पर, बहते हुए नासूरों पर।
इसी राह पर मुझे यूवा बेरोजगार मिले
नशे में उजड़े हुए घर-बार मिले
अटालिका के वजन से धसती झोपड़ियां
बारूद से उड़ती हुई खोपड़ियां
मंजर वो भी थे जो यहां बताये न गये,
कुछ जगह ऐसी भी, कि रंग लगाये ना गये।
मैं जैसे-जैसे बढता गया,
ये सुर्ख रंग स्याह होते गये।
जो खेले जाने थे तरानों के संग,
वो मेरी आह होते गये।
आज मेरे इन रंगों से सब को दिक्कत है,
मेरे तो यही रंग हैं और यही हकीकत है।
मेरे ये रंग-
कभी उमंग जगाते थे, अब हुड़दंग मचाते हैं,
कभी विनोद करते थे, अब आक्रोश लाते हैं।
पर जैसी भी हो मैंने हर तस्वीर बनाई है,
प्रिय! मैंने इन्हीं रंगों से ही होली मनाई है।

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