डॉ. लोहिया की विरासत

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Ram Manohar Lohiya

— आनंद कुमार —

(1) यह मेरे लिए सौभाग्य और सम्मान की बात है कि आईटीएम विश्वविद्यालय ने मुझे डॉ. राम मनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यानमाला का दसवां पुष्प अर्पित करने हेतु आमंत्रित किया। इसके लिए मैं विश्वविद्यालय के संस्थापक, मार्गदर्शक, और मेरे दशकों पुराने समाजवादी मित्र भाई रमाशंकर जी सहित समस्त आईटीएम विश्वविद्यालय परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।

(2) राष्ट्रीय आंदोलन के प्रशिक्षण केंद्र के रूप में स्थापित काशी विद्यापीठ के परिवेश और समाजवादी पारिवारिक माहौल के कारण, डॉक्टर लोहिया के विशिष्ट व्यक्तित्व और अनूठे विचारों ने मुझे बचपन से ही आकर्षित किया। मेरे परिवार की तीन पीढ़ियों पर आचार्य नरेन्द्र देव, लोकनायक जयप्रकाश और डॉ. लोहिया की समाजवादी त्रिमूर्ति का गहरा प्रभाव रहा है। स्वयं मेरा प्रवेश भी समाजवादी आंदोलन में डॉ. लोहिया द्वारा आयोजित एक युवजन-शिविर के उद्घाटन के अवसर पर हुआ। उनकी जाति-नीति, भाषा-दृष्टि, आर्थिक नवनिर्माण की योजना, संस्कृति की समीक्षा, राष्ट्र-रक्षा की रणनीति, और अन्यायों के प्रतिरोध की पद्धति में निहित ऊर्जा और प्रकाश ने हम जैसे हजारों भारतीयों की जीवन यात्रा को दिशा प्रदान की।

हमें डॉ. राम मनोहर लोहिया की जन्मशताब्दी के कार्यक्रमों में दिल्ली और बनारस से लेकर बर्लिन तक सहभागिता करते हुए, लोहिया के अनुयायियों की विविधता और व्यापकता को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री गिरिराज किशोर के साथ मिलकर लोहिया के 100 बरस का संपादन किया गया, और श्री किशन कालजयी के सौजन्य से निबंध-संकलन गांधीलोहियाजयप्रकाश और हमारा समय भी प्रकाशित हुआ। देश के सबसे पुराने अंग्रेज़ी समाजवादी साप्ताहिक जनता के तीन अंकों के माध्यम से लोहिया जन्मशताब्दी विशेषांक का संपादन करने का सौभाग्य भी मुझे मिला।

हाल के वर्षों में, आईटीएम विश्वविद्यालय ने मुझे गांधीयन स्कूल ऑफ डेमोक्रेसी एंड सोशलिज्म की स्थापना में विनम्र योगदान देने का बहुमूल्य अवसर प्रदान किया। इस प्रकार, 1967 से अब तक मैं डॉ. लोहिया के व्यक्तित्व, कृतित्व और चिंतन का साक्षी, समीक्षक और अनुयायी रहा हूँ। इन सबके बावजूद, मुझे लगता है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे अद्वितीय व्यक्तित्व पर स्मृति व्याख्यान प्रस्तुत करने के लिए मुझमें पर्याप्त योग्यता नहीं है। अब तक देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन और समाजवादी धारा के कई आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के बावजूद, लोहिया जी के दर्शन की गहराई, उनके इतिहास-बोध की व्यापकता, उनकी आर्थिक दृष्टि, समाज-परिवर्तन के विज्ञान की समझ, सत्याग्रही जीवन के यथार्थ को जीने की शक्ति, और समाजवाद की स्थापना के लिए कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलने की प्रेरणा—इन सबका संतोषजनक समग्र प्रस्तुतीकरण एक विशिष्ट क्षमता की माँग करता है। फिर भी, यह एक कर्तव्य है, जिसे अपनी सामर्थ्यानुसार निभाना हमारी पीढ़ी की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि डॉ. लोहिया ने हमारी पीढ़ी के घावों पर मरहम लगाया था। वे 1966 के ऐतिहासिक विद्यार्थी मार्च के प्रणेता थे। उन्होंने विद्यार्थियों और युवाओं के प्रश्नों को संसद के भीतर उठाया और सड़कों पर उतरकर गिरफ्तार भी हुए। 1967 के आम चुनाव के पश्चात उन्होंने देश के युवजनों को राजनीति में सक्रिय भागीदारी का आह्वान किया था। इसीलिए मैंने आज के स्मृति व्याख्यान हेतु ‘डॉ. लोहिया की विरासत’ जैसा एक सहज और समयानुकूल विषय प्रस्तावित किया है।

(3) आज आपके समक्ष लोहिया-विमर्श से जुड़ी कुछ बातें रखने के तीन अन्य कारण भी हैं।

पहला यह कि आज की दुनिया का वैश्विक पूंजीवाद से मोहभंग हो रहा है। अमेरिका और इंग्लैंड से लेकर रूस और चीन तक सांस्कृतिक कट्टरता और आर्थिक राष्ट्रवाद की वापसी देखी जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर दक्षिण एशिया और दक्षिण अमेरिका तक, मानव समाज की बुनियादी समस्याओं के समाधान हेतु पूंजीवाद से अलग रास्तों की तलाश फिर से शुरू हो गई है। आज के विश्व नेताओं के पास भूख, निरक्षरता, बेरोजगारी, सामाजिक हिंसा और पर्यावरण संकट से मुक्ति दिलाने का कोई ठोस मार्ग शेष नहीं रह गया है। ऐसी धुंधली परिस्थिति में डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित सप्त क्रांति की नई प्रासंगिकता स्पष्ट होती जा रही है। दुनिया एक बार फिर गांधी और बम के दोराहे पर आ खड़ी हुई है।

दूसरा कारण यह है कि हाल के वर्षों में डॉ. लोहिया की विरासत को लेकर कुछ भ्रम फैलाए जा रहे हैं। 1962 के चीनी हमले के बाद देशभर में ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ’ की पुकार गूँजी थी। डॉ. लोहिया ने 1964 से 1967 के बीच जनहितकारी परिवर्तन की राजनीति को संभव बनाने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम आधारित संयुक्त मोर्चा की रणनीति प्रस्तुत की। इस गैर-कांग्रेसवाद की नीति के तहत अनेक प्रदेशों में गैर-कांग्रेसी संयुक्त सरकारें बनीं और 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ।

श्रीमती इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार को समाजवादी और कम्युनिस्ट सांसदों का समर्थन मिला, और इस कारण गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अप्रासंगिक हो गई। 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर कांग्रेस (इंदिरा) को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ और गैर-कांग्रेसवाद का दौर समाप्त हो गया। डॉ. लोहिया का 1967 में निधन हो गया और 1969 तक सभी गैर-कांग्रेसी प्रादेशिक सरकारें भी समाप्त हो गईं। फिर भी, आज देश में सांप्रदायिक ताकतों के मौजूदा राष्ट्रीय उभार को, सत्ताधीशों द्वारा 1948 से 1998 तक फैलाए गए सांप्रदायिक वातावरण के बजाय, लोहिया के अल्पकालिक गैर-कांग्रेसवाद से जोड़ने की शरारत की जा रही है। इस पर चुप रहना झूठ के धंधे को बढ़ावा देना होगा।

तीसरा कारण तो अत्यंत रोमांचक है। यह व्याख्यानमाला पिछले एक दशक से भाई रमाशंकर जी और उनके समर्पित सहयोगियों द्वारा बड़े सलीके और प्रतिबद्धता के साथ ग्वालियर में आयोजित की जा रही है। उल्लेखनीय है कि दूरदर्शी डॉ. लोहिया ने ग्वालियर को वर्ष 1962 में ही राष्ट्र-निर्माण की एक विशिष्ट प्रयोगशाला के रूप में चिन्हित किया था।

इसी धरती पर एक ऐतिहासिक पहल के तहत, समाजवादी पार्टी ने एक महारानी के मुकाबले में एक मेहतरानी को लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाकर लोकतंत्र की जड़ों को सुदृढ़ करने का अविस्मरणीय कदम उठाया। डॉ. लोहिया स्वयं इस चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से शामिल हुए थे। ‘महारानी बनाम सुक्खोरानी’ की इस चुनावी टक्कर की चर्चा पूरे देश में हुई थी। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि पच्चीस हज़ार से अधिक ग्वालियरवासियों ने डॉ. लोहिया की अपील को सम्मान देते हुए सामंतवादी महारानी के बजाय समाजवादी सुक्खोरानी के पक्ष में मतदान किया। इस सराहनीय मतदाता समुदाय ने ग्वालियर के गौरव को बढ़ाया और डॉ. लोहिया के विश्वास को और भी दृढ़ किया। इसलिए, सामाजिक क्रांति के महानायक डॉ. राममनोहर लोहिया की 115वीं जयंती की पूर्व संध्या पर ‘डॉ. लोहिया की विरासत’ पर चर्चा के लिए ग्वालियर का प्रतिष्ठित आई.टी.एम. विश्वविद्यालय हर दृष्टि से उपयुक्त स्थान है।यहाँ नहीं, तो फिर कहाँ?

4) आज आईटीएम विश्वविद्यालय के सौजन्य से संभव हुई मेरी इस विनम्र चेष्टा से आप सभी जनों में डॉ राम मनोहर लोहिया की विरासत को जानने पहचानने की इच्छा कुछ प्रबल हो जाए तो मैं अपने को धन्य मानूंगा। इस सिलसिले में यह शुभ समाचार जोड़ लीजिए की डॉक्टर लोहिया की विचार संपदा से परिचित होने की एक अच्छी शुरुआत प्रसिद्ध चिंतक प्रोफेसर नंद किशोर आचार्य की 2024 में आईटीएम प्रकाशन द्वारा प्रस्तुत पुस्तक ‘लोहिया: मानव सामीप्य का दर्शन ‘ के पाठ से की जा सकती है। इसी क्रम में एक दूसरी किताब वरिष्ठ पत्रकार श्री अरविंद मोहन द्वारा 2023 में संपादित सेतु प्रकाशन की ज्ञान श्रृंखला की अंतर्गत प्रस्तुत ‘राम मनोहर लोहिया’ बहुत उपयोगी रहेगी.

(5) आइए, डॉ. राम मनोहर लोहिया की विरासत को समझने के लिए उनकी रोमांचक जीवन-यात्रा की कुछ महत्त्वपूर्ण झलकियों को जान लें। डॉ. लोहिया को 1910 से 1967 तक कुल 57 वर्षों का जीवन मिला। इनमें प्रारंभिक 22 वर्ष उन्होंने देश-विदेश के श्रेष्ठ विद्याकेन्द्रों से शिक्षा अर्जित करने में व्यतीत किए। इसके बाद 1933 से 1947 तक की 14 वर्षों की अवधि का प्रत्येक क्षण उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की आज़ादी की लड़ाई को समर्पित कर दिया। इनमें से 5 वर्ष उन्होंने ब्रिटिश शासन की जेलों में बिताए—1940-41 और फिर 1944 से 1946 तक।

इसी अवधि में एक बार नेपाल की राणाशाही और दो बार पुर्तगाली शासन ने उन्हें गोवा की आज़ादी की अगुवाई के लिए कैद किया। भारत की स्वतंत्रता के बाद के 20 वर्षों में भी वे सक्रिय रहे और आंदोलनों एवं अभियानों के नेतृत्व के कारण उन्हें 13 बार गिरफ्तार किया गया। स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी उन्हें नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रदर्शन करने पर तीन महीने तक बंदी बनाकर रखा। बिना परमिट उत्तर-पूर्वी सीमांत प्रदेश की यात्रा के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। अंग्रेज़ी शासकों के पुतले हटाने की माँग पर भी वे बंदी बनाए गए। मैसूर से लेकर आगरा तक के किसान आंदोलनों में भाग लेते हुए भी उन्हें कारावास भुगतना पड़ा।

जब लखनऊ जेल में उन्हें कुर्सी से बाँधकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस व्यवहार को “एक सुशिक्षित नागरिक के साथ वर्दीधारी गिरोह की गुंडागर्दी” करार दिया। उनके सरोकारों में चीनी कम्युनिस्ट क्रांति के बाद तिब्बत की दासता और पूंजीवादी अमेरिका में रंगभेदी लोकतंत्र के विरुद्ध चिंता भी शामिल थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद की डॉ. लोहिया की ज़िंदगी में जेल (सिविल नाफरमानी), वोट (चुनाव) और फावड़ा (रचनात्मक कार्य) के संतुलन का एक प्रयास दिखाई देता है। वे चार बार लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बने, और हर चुनाव को उन्होंने लोकशिक्षण का माध्यम माना। दो बार पराजय के बाद वे दो बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए।

रचनात्मक कार्यों में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी—जिसका कारण था साथियों की उदासीनता, सरकारी अवरोध और संसाधनों की कमी। जैसे, समता विद्यालय की कल्पना, रामायण मेला का आयोजन, सिंचाई सेना का संकल्प और हिंद-पाक महासंघ की योजनाएं कागज़ों से ज़मीन पर नहीं उतर सकीं। फिर भी, ‘एक घंटा देश को’, जन और मैनकाइंड जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन और विचार-प्रशिक्षण के क्षेत्र में उन्हें संतोषजनक परिणाम मिले। उन्होंने हर परिस्थिति में महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित सत्याग्रह की धारा को एक ‘कुजात गांधीवादी’ के रूप में प्रवाहमान बनाए रखा। अनेक बार उनकी गिरफ्तारी को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित किया। अपनी आत्म-समीक्षा में उन्होंने स्वीकार किया कि विचार-प्रचार और संगठन निर्माण को एक सूत्र में जोड़कर ही वोट, फावड़ा और जेल के माध्यम से समाजवादी निर्माण का अभियान सफल हो सकता है।

(6) डॉ. लोहिया की विरासत के रूप में सिद्धांतों और कार्यक्रमों का एक अत्यंत आकर्षक भंडार है। इसमें एक नई मानव सभ्यता की संभावना को साकार करने वाले सूत्र, सिद्धांत और कार्यक्रमों की एक सुसंगत श्रृंखला निहित है। इसका मूल आधार मानव-सामीप्य का दर्शन है। परंतु इस भंडार को उसकी संपूर्णता में अपनाना तभी संभव है जब सत्ता की राजनीति के स्थान पर निराशा के कर्तव्य के मार्ग को स्वीकार करने का साहस हो। यही कारण है कि संसदवाद और समाजवाद के बीच संतुलन साधने की समस्या एक सनातन संकट का रूप ले लेती है।

लोहिया की कथा एक ऐसे अनोखे राजनीतिक कार्यकर्ता की कहानी है जिसमें पैगंबरी और रहबरी, दोनों के तत्व कार्य करते हैं। आज का मानव, लिंगभेद, नस्ल-जाति, धर्म और राष्ट्र की दीवारों के बीच जीता-मरता, डूबता-उतराता जीवन व्यतीत कर रहा है—वह सीमित ममत्व और असीम अन्यता के द्वंद्व में क्रियाशील है। उसके जीवन का केंद्र स्वार्थ और ‘स्व’ की प्रधानता बन चुका है; वह लोभ और भय के बीच की निरंतर भाग-दौड़ में उलझा हुआ है।

ऐसे में, लोहिया के कुछ सूत्रों का उपयोग कर और उनका नाम लेकर राजनीति करना कठिन नहीं है। कई संगठन हैं जो उन्हें अपने पुरखों में गिनाते हैं। लेकिन ऐसे संगठन, अवसर आने पर, सत्ता के लिए सिद्धांत को और लाभ के लिए लोहिया को त्याग देने की प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। परिणामस्वरूप, उनकी विरासत के प्रभावी दावेदार नगण्य रह गए हैं। यही लोहिया की विरासत की खूबी भी है और कमज़ोरी भी। छोटे-छोटे सपने देखने वाले लोहिया की विरासत के लिए अयोग्य हैं, और जो बड़े सपने देखते हैं वे लगातार घटते, बंटते और बिखरते जा रहे हैं।

लोहिया विचार का विस्तृत विवरण उनकी नौ खंडों में संकलित रचनाओं तथा 16 खंडों में संग्रहित ‘लोकसभा में लोहिया’ में उपलब्ध है। इनमें ‘इतिहास चक्र’, ‘जातिप्रथा’, ‘भाषा’, ‘भारत विभाजन के अपराधी’, ‘भारत, चीन और उत्तरी सीमाएँ’, तथा ‘मार्क्स, गांधी और समाजवाद’ जैसे ग्रंथ उनके विचार-प्रवाह का समग्र परिचय देते हैं। निराशा के कर्तव्य का दर्शन, मानव-सामीप्य की ओर उन्मुख इतिहास चक्र का सिद्धांत, और सप्त क्रांति का कार्यक्रम—इन तीनों में उनके बौद्धिक योगदान का सार समाहित है। सत्याग्रही समाजवाद की ओर मानवता को अग्रसर करने की उनकी अखंड साधना ने डॉ. लोहिया को एक अनूठे चिंतक, आकर्षक नायक और अन्यायों से जूझते हुए स्वयं को मिटा देने वाले मसीहा के रूप में अमर बना दिया है।

आजादी के विस्तार, लोकतंत्र की स्थापना, और समता-संपन्नता के स्वप्नों एवं संघर्षों से ओतप्रोत उनकी रोमांचक जीवन-यात्रा पिछले आठ दशकों से अनगिनत आदर्शवादी व्यक्तियों, विशेष रूप से विद्यार्थियों और युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है, हमारा देश, ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के संघर्ष से लेकर स्वाधीनोत्तर राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में नर-नारी समता, जाति से मुक्ति, हिंदू-मुस्लिम सद्भाव, भाषा-स्वराज और गरीबी उन्मूलन के सूत्रों की खोज के माध्यम से भारतीय अस्मिता के नवनिर्माण में डॉ. लोहिया के योगदान के लिए सदैव ऋणी रहेगा।

(7) लेकिन इससे यह समस्या हल नहीं होती कि आज डॉ. लोहिया की विरासत के वास्तविक दावेदार कहाँ हैं? कौन हैं वे? उनमें कौन-से गुण होने चाहिए? और उन्हें कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए? आइए, इन प्रश्नों का उत्तर हम स्वयं डॉ. लोहिया से प्राप्त करें। डॉ. लोहिया ने लिखा है कि समाजवाद की परिभाषा में दो शब्दों की अनिवार्यता है—समता और संपन्नता। देश-काल के अनुसार जो समता संभव है, वह प्राप्त की जानी चाहिए; और आदर्श के अनुसार जो समता संपूर्ण है, उसका स्वप्न देखा जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा है कि पूरी समता एक सपना है। “जो लोग कोई सपना नहीं देखते, वे अवसरवादी होते हैं; और जो केवल सपना ही देखते हैं, वे यथार्थ से हटकर प्रभावहीन सनकी बन जाते हैं।”

संपूर्ण समता का सपना लेकर चलने वाला आदर्शवादी मस्तिष्क यह प्रयास करता है कि देशकाल को समझते हुए अधिकतम समता को प्राप्त किया जाए, क्योंकि समता और संपन्नता जुड़वां मूल्य हैं। यह भी सही है कि मुक्त व्यापार के समर्थक आर्थिक सुधारों में निजी लाभ को अत्यधिक महत्व देते हैं। वहीं, मार्क्सवाद के दो प्रमुख घटक हैं—एक आधुनिकता अथवा औद्योगीकरण, और दूसरा निजी संपत्ति में कमी। व्यक्तिगत आय और व्यय में असमानता का अंत इसका उद्देश्य है। भारत में प्रचलित मार्क्सवाद ने पहले घटक को तो अपनाया, पर दूसरे को त्याग दिया—इसीलिए वह असंतुलित और कुंठित बन गया।

हमारे देश में सदियों से संचित गरीबी और संसाधनों की विषमता एक भीषण यथार्थ बन चुकी है। अब इस देश को संपन्न बनाने का केवल एक ही वास्तविक मार्ग शेष रह गया है—समता का मार्ग।

आज भारत के लिए समता और संपन्नता केवल जुड़वां मूल्य नहीं हैं, बल्कि समता साधन है और संपन्नता उसका साध्य। यदि कोई पूंजीवादी भी हो, तो उसके सामने भी कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं बचता। भारत जैसे देश में पूंजी निर्माण के लिए स्वयं पूंजीवाद भी पूंजी एकत्र नहीं कर सकता। इस देश में केवल समता के माध्यम से ही संपन्नता प्राप्त की जा सकती है।

डॉ. लोहिया ने भारत को समता और संपन्नता से विभूषित करने—अर्थात समाजवाद की रचना—के उद्देश्य से वर्ष 1966 में एक ग्यारह सूत्रीय कार्यक्रम सूची प्रस्तुत की थी। उनमें से कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं:

1. सभी प्राथमिक शिक्षा समान स्तर और पद्धति की हो। स्कूल का खर्च और शिक्षकों का वेतन एक समान हो। प्राथमिक शिक्षा के सभी विशेष स्कूल बंद किए जाएं।

2. कृषि में अलाभकारी जोतों से लगान समाप्त किया जाए। यह भी संभव है कि समस्त भूमि से लगान समाप्त कर खेतिहर आयकर की शुरुआत की जाए।

3. सभी खेतों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने हेतु 5 या 7 वर्षों की योजना बनाई जाए, ताकि किसान न्यूनतम दर पर अपने खेतों के लिए पानी प्राप्त कर सकें।

4. अंग्रेज़ी भाषा का माध्यम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, शिक्षा और व्यापार—से हटाया जाए।

5. व्यक्तिगत खर्चों पर सीमा निर्धारित की जाए।

6. अगले 20 वर्षों तक रेलवे गाड़ियों में यात्रियों के लिए केवल एक ही दर्जा (क्लास) हो।

7. अगले 20 वर्षों तक मोटर कारखानों की कुल उत्पादन क्षमता केवल बस, मशीन हॉल अथवा ट्रैक्टर जैसे सार्वजनिक और कृषि उपयोगी वाहनों के निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाए। निजी उपयोग की गाड़ियाँ न बनाई जाएं।

8. एक ही फसल के अनाज के मूल्य में उतार-चढ़ाव 20% की सीमा के भीतर रखा जाए, और आवश्यक औद्योगिक वस्तुओं की बिक्री मूल्य उनके लागत मूल्य से डेढ़ गुना से अधिक न हो।

9. पिछड़े समूह—जैसे आदिवासी, दलित, महिलाएं, हिंदू समाज की पिछड़ी जातियाँ—को 60% तक विशेष अवसर (आरक्षण) दिया जाए। यह विशेष अवसर उन व्यवसायों पर लागू नहीं होगा जिनमें विशेष कौशल की आवश्यकता होती है, जैसे चीर-फाड़ (सर्जरी)। किंतु थानेदारी या विधायक होना ऐसे पेशों में नहीं गिने जाएंगे।

10. दो से अधिक मकानों की निजी मिल्कियत का राष्ट्रीयकरण किया जाए।

11. भूमि का प्रभावी पुनर्वितरण (बंटवारा) किया जाए और उसकी कीमतों पर नियंत्रण लगाया जाए।

डॉ. लोहिया ने यह भी याद दिलाया था कि इस ग्यारह सूत्रीय कार्यक्रम के प्रत्येक बिंदु में बारूद भरा हुआ है, और यदि इनमें से किसी एक को भी पूरी गंभीरता से अपनाया जाए, तो बड़े सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन संभव हैं। दुर्भाग्यवश, गैर-कांग्रेसी सरकारों के गठन के बावजूद यह कार्यक्रम उपेक्षित रह गया और समाजवादी सपना साकार नहीं हो सका।

(8) डॉ. लोहिया की मान्यता थी कि अब तक का समूचा मानव इतिहास, आंतरिक रूप से, वर्ण और वर्गों के बीच बदलता रहा है, और बाह्य रूप से, शक्ति और समृद्धि के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरण का इतिहास रहा है। ये बाहरी और अंदरूनी परिवर्तन एक-दूसरे से गहराई से जुड़े रहे हैं। जब किसी ऐतिहासिक समुदाय ने शक्ति, समृद्धि और महान उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, तब वर्ण-व्यवस्था ढीली पड़ी है और समाज में आंतरिक समानता की दिशा में प्रगति हुई है।

वर्गों के संघर्ष में, प्रत्येक वर्ग अपनी स्थिति सुधारते हुए ऐसी अवस्था प्राप्त करना चाहता है जिसमें मानवों के बीच समानता संभव हो सके। जब पूरे समाज की स्थिति में गिरावट आती है, तब वर्ग-संघर्ष ऐसी रूपरेखा अख्तियार कर लेता है कि कोई भी नई न्यायपूर्ण व्यवस्था तत्कालीन व्यवस्था की अपेक्षा अधिक समतामूलक प्रतीत होती है। भले ही कोई नई न्यायपूर्ण व्यवस्था बन पाए या नहीं—इस स्थिति में सड़न आ ही जाती है और समाज पिछड़ने लगता है।

यह भी समझना आवश्यक है कि जब बाहरी शक्ति और समृद्धि बढ़ती है, तब आंतरिक असमानता घटती है, जबकि बाहरी ताक़त घटने पर आंतरिक असमानता बढ़ जाती है। इस परिवर्तन के सिद्धांत को स्वीकार करने के बावजूद, लोहिया निराशा के कर्तव्य को राजनीति का बुनियादी गुण मानते थे।

वे जानते थे कि दुनिया तीन तरह की निराशाओं से गुजर रही है:

पहली, राष्ट्रीय निराशा, जिसमें यह विडंबना निहित है कि जिन्हें क्रांति की सबसे अधिक आवश्यकता है, उनमें क्रांति की क्षमता नहीं है; और जिनमें यह क्षमता है, वे क्रांति के प्रति उदासीन हैं।

दूसरी, वैश्विक निराशा, क्योंकि राजनीतिक साम्राज्यवाद के पतन के बावजूद, ज़मीन का साम्राज्यवाद, तकनीकी साम्राज्यवाद, ज्ञान का साम्राज्यवाद, मूल्य-व्यवस्था का साम्राज्यवाद और हथियारों का साम्राज्य अभी भी बना हुआ है। परिणामस्वरूप, पूरी दुनिया यथास्थितिवादी ताकतों के इशारे पर चल रही है।

तीसरी, मानवीय निराशा, जिसका कारण यह है कि हर व्यक्ति क्रांति और सुधार के बीच, स्वाभाविक रूप से सुधार की ओर झुकता है। क्रांति की संभावना के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध नहीं है। दूसरी ओर, बिना बड़े सपनों के मानवता अगली ऊँचाइयों तक नहीं पहुँच सकती।

इस प्रकार, डॉ. लोहिया की विरासत में आशा और निराशा, संभावना और समस्या—दोनों निहित हैं। इसी को समझते हुए उन्होंने सप्त क्रांति के कार्यक्रम को रेखांकित किया। उनका मानना था कि 20वीं सदी अत्यंत निर्मम रही है; इसने करोड़ों लोगों को युद्धों में निगल लिया। लेकिन इसी सदी में मानवता ने सात प्रमुख अन्यायों के विरुद्ध एक साथ लड़ना भी शुरू किया है—इसे ही सप्त क्रांति कहा जाना चाहिए।

1. पहली क्रांति, नर-नारी समता की स्थापना की है। दुनिया की महिलाएं पुरुषों के साथ सहयोग और समता पर आधारित संबंध चाहती हैं। पुरुषों का स्त्रियों के प्रति अन्यायपूर्ण रवैया समाप्त होना चाहिए।

2. दूसरी क्रांति, रंग और नस्ल के आधार पर होने वाली गैर-बराबरी के विरुद्ध संघर्ष है, जो आज वैश्विक आंदोलन बन चुका है।

3. तीसरी क्रांति, राष्ट्रीय स्वतंत्रता की है—यानी विदेशी शासन का अंत। यह भी इस युग की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।

4. चौथी क्रांति, वर्ग-संघर्ष के रूप में—निजी संपत्ति पर आधारित अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने की दिशा में वैश्विक दबाव है।

5. पाँचवीं क्रांति, हथियारों के विरोध और सिविल नाफरमानी के समर्थन में है। इसकी शुरुआत गांधी से हुई और इसकी गूंज आज अमेरिका व दक्षिण अफ्रीका तक सुनाई दे रही है।

6. छठी क्रांति, जन्म आधारित जाति व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में हो रहे प्रयासों की है—जो समता के पक्ष में वातावरण तैयार कर रहे हैं।

7. सातवीं क्रांति, व्यक्ति के निजी जीवन में राज्य के अन्यायी हस्तक्षेप के विरोध की है—यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।

यही सप्त क्रांति डॉ. लोहिया की विरासत का सबसे आकर्षक पक्ष है। इससे मानव-सामीप्य की संभावना और भी व्यापक होती है। आज बिना मानव जाति की एकता के हमारी दुनिया का आगे बढ़ना असंभव हो चुका है। अतः मानव एकता के लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए हमें एक सुनियोजित प्रशिक्षण पद्धति विकसित करनी होगी।

(9) लोहिया जानते थे कि जब समाज अत्यंत गरीब हो जाता है, तो उसमें समानता की भूख कम हो जाती है। लोग संघर्ष करने की बजाय झुकने में ही राहत महसूस करने लगते हैं। समानता की आकांक्षा की जगह कृपा या बख्शीश पाने की इच्छा जन्म लेती है। यही कारण है कि यह विडंबना बनी रही कि जीवित रहते हुए हम मान सिंह का सम्मान करते हैं, लेकिन मृत्यु के बाद राणा प्रताप की पूजा करते हैं।

लोहिया चाहते थे कि यह विचित्र मानसिकता बदले और हम सत्याग्रही समाज की रचना करें। इसी उद्देश्य से उन्होंने सत्य, कर्म, प्रतिकार और चरित्र निर्माण की एकजुटता पर विशेष ज़ोर दिया। यही सूत्र उन्हें मार्क्स और गांधी—दोनों का उत्तराधिकारी बनाते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या हम लोहिया की विरासत के महत्व को अपने जीवन में चरितार्थ कर सकते हैं? क्या दुनिया, अब तक के अपने सुखद और दुखद अनुभवों के आधार पर, इतिहास चक्र के प्रकोप से बचते हुए सप्त क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता, समानता, संपन्नता, लोकतंत्र और अहिंसा की ओर अग्रसर हो सकती है? इसका उत्तर प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं खोजना होगा।

भारतीय समाज के संकट को स्पष्ट करते हुए, डॉ. लोहिया ने आगे कहा कि हमारे इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता के बीच रही है। सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों के बीच संघर्ष हुआ है, लेकिन हिंदू धर्म में, इस निरंतर संघर्ष के बावजूद, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म की तरह कोई निर्णायक विभाजन नहीं हुआ। इस कारण, सिद्धांतों के प्रश्न कभी एक साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का स्थायी समाधान नहीं हो सका।

वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के मुद्दों पर हिंदू धर्म समय-समय पर कभी उदारवादी तो कभी कट्टरपंथी रुख अपनाता रहा है। लेकिन गांधी के नेतृत्व में पाँच हज़ार वर्षों से अधिक पुरानी उदारवादी धाराओं ने एकजुट होकर आगे बढ़ने का प्रयास किया है। दूसरी ओर, उन्हीं पाँच हज़ार वर्षों की कट्टरपंथी धाराएँ भी इस प्रयास को विफल करने के लिए सक्रिय हैं।

लोहिया मानते थे कि केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है, क्योंकि हिंदू धर्म एक संकुचित धर्म-सिद्धांत या सघन संगठित व्यवस्था का धर्म नहीं है। हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता के बीच यह महान संघर्ष वस्तुतः देश की एकता और बिखराव की शक्तियों के बीच का संघर्ष भी है।

अब तक हिंदू चेतना से कट्टरता कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकी है। इसलिए इसमें संदेह नहीं कि हिंदू व्यक्तित्व दो भागों में विभाजित हो गया है। आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता का यह संघर्ष हिंदू-मुस्लिम विवाद का एक बाहरी रूप धारण कर चुका है। यदि कट्टरपंथी हिंदू सफल हो गए, तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य खंडित हो जाएगा—न केवल हिंदू-मुस्लिम दृष्टिकोण से, बल्कि वर्ण और जाति के स्तर पर भी।

इसलिए, पाँच हज़ार वर्षों से अधिक समय से चला आ रहा यह संघर्ष अब एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया है, जहाँ राजनीतिक समुदाय और भारतीय राज्य के रूप में हिंदुस्तान की अस्मिता इस बात पर निर्भर करती है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर विजय हो।

डॉ. लोहिया की विरासत में किसी स्थायी समाधान का दावा नहीं, बल्कि एक विनम्र प्रार्थना है—

“हे भारत माता!

हमें शिव का मस्तिष्क दो,

कृष्ण का हृदय दो,

तथा राम का कर्म और वचन दो।

हमें असीम बुद्धि, उन्मुक्त हृदय और जीवन की मर्यादा से रचो।”

इसी के साथ, उन्होंने प्रत्येक स्त्री से द्रौपदी की तेजस्विता, आत्मविश्वास और अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की क्षमता को धारण करने का आह्वान किया।

आइए, लोहिया की विरासत को समझने और उसे आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी उठाएँ।

जय हिंद, जय जगत।

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