— कुमार कलानंद मणि —
बापू की ज़िंदगी की बड़ी सच्चाई यह भी है कि उन्होंने मतभेदों का हमेशा सम्मान किया और सतत संवाद से इसे सुलझाते रहे। उन्होंने मतभेद के कारण न अपने अंदर अहंकार को जागृत किया और न ही इसका संबंधों पर लेशमात्र असर होने दिया। गांधी को मानने, पूजने वाले गांधी जी की इस मानवीय गुण की अहमियत को नहीं समझ सके।
दूसरा बेमिसाल गुण वे नहीं समझ सकते जो जीवन भर “मैं, मेरा परिवार “ में खोए रहे तथा सामाजिक संपर्कों का इस्तेमाल खुद को तथा अपने परिवार को चमकाने के लिए किया। बापू सब को उसी रूप में मानते, चाहते थे जैसे वे अपने चार पुत्रों की ओर देखते थे। वे मणिबेन पटेल को 1924 में डांटते हुए लिखते हैं कि “मैने तुम्हें चार पत्र लिखे लेकिन तुमने उसका जवाब नहीं दिया । क्या तुम समझ सकती हो कि तुम्हारा जवाब नहीं आने पर मैं कितना बेचैन होता हूँ “। वहीं जून 1925 में वे मणिबेन को उनके भाई डाहयाभाई के जीवन के बारे में, अपने पिता की सेवा के बारे में समझाते हैं “। वे जब जवाहरलाल को पत्र लिखते हैं तो उसमें युवा जवाहरलाल के प्रति चिंता, प्रोत्साहन , सुझाव , प्यार और फटकार सब पढने को मिलता है । वे जब श्री मोतीलाल नेहरू जी को लिखते हैं तो उसमें उनके प्रति असीम सम्मान , उनके साथ मतभेदों तथा स्वतंत्रता आंदोलन व कांग्रेस को मज़बूत करने की चर्चा होती है । वे जब पुत्रीवत प्रभावती को लिखते हैं तब जयप्रकाश के स्वास्थ्य की चिंता करना नहीं भूलते ।बापू तो मानव-शाला थे और हैं बशर्ते कि हम अहंकार, लोभ, संकीर्णता, पदलोलुपता के चश्मे उतार सकें तो आजन्म उनसे सीखना ही होता है ।
एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में हम अपने परिवार, आसपास, संगठन-संस्था-कार्य में ऐसी परिस्थितियों से गुज़रते रहे हैं , लेकिन बापू सशरीर उपस्थित न होकर भी हमें उबार लेते हैं तथा आगे बढ़ने का सुयोग्य खुराक देते रहते हैं।