– देवी नागरानी —
मौत से भीख मांगती जिंदगी क्या होती यह सिर्फ उसका दिल ही जानता है जो उस दौर से गुजरा है, कुछ चोट पर चोट सहते हुए, जख्म पर जख्म की रिसन को मरहम लगाते हुए. पिछले दो सालों में निरंतर अपने आप से, अपने भीतर की इच्छा के विरुद्ध उस सच से लड़ता आ रहा है वह. जिसे वक्त, जिंदगी के नाम पर मौत से भी कड़ी से सजा देता आ रहा है.
हाँ, ज़िंदगी जो अनेक पड़ावों पर हमें बहुत कुछ देकर एक पड़ाव पर आकर सबकुछ छीनलेती है. यहां तक कि अपनी खुद की पहचान भी. ऐसी ही एक अवस्था में डॉ. रमण कुमार को यह मर्ज़ अपनी गिरफ्त में लेता रहा और धीरे-धीरे वे बहुत कुछ भूलने लगे. अपने प्रियजनों को भी वे भूलने लगे, उनकी अवस्था में नित नये बदलाव आते रहे.
एक दन खुद अपने आपको आईने में देखकर चीख उठे थे.
‘देखो कौन आया है यह लुटेरा, जो मुझसे मेरे कपड़े छीन कर ले जाना चाहता है?’ वे ज़ोर से चिल्ला उठे.
मुझे याद है उनकी इस चीख पर मैं सीढ़ियां फलांग कर उनके कमरे में गई. वे वहाँ नहीं थे, आवाज़ का पीछा करते हुए उस ओर गई जहाँ वे अपनी बेचैनियों से जूझ रहे थे, साथ वाले बाथरूम में फुल साइज आईने के सामने खुद से लड़ झगड़ रहे थे.
यही तो एक अग्निपथ है, जहाँ इंसान इंसान की अवस्था से वाकिफ होता जाता है, इसी राह पर वह कभी न कभी जीवन का सफर तय करते हुए खुद से रूबरू होता है. रमण जी ने भी अपने आपको आईने में अपना प्रतिद्वंद्वी बना लिया. अपने हाथ का तौलिया पीछे खींचते रहे जैसे कोई उनसे छीन रहा हो. मैं स्तब्ध खड़ी उनकी और उनकी खुद की परछाई की हाथापाई देखती रही और गाली गलौज को भी सुनती रही.
‘हरामखोर मैं कपड़े नहीं दूंगा, ये मेरे हैं’
मुझे देखते ही बोल पड़े- ‘देखो यह कौन बदमाश चोर इस वक़्त बाथरूम में घुस आया है. कमीना मेरे कपड़े मुझसे छीनने की कोशिश कर रहा है.’
बेबसी से मेरी ओर देखते हुए जैसे मुझसे इल्तिजा कर रहे थे-‘इसे बाहर निकालो तो मैं स्नान कर लूँ, देखो कब से मुझे परेशान किए जा रहा है. ‘
मैंने तुरंत बाथरुम की लाइट बंद कर दी, और अंधेरे में वह परछाई भी विलीन हो गई. मैं उन्हें कमरे तक ले आई और आराम करने के लिए कहकर उलटे पाँव लौटने को थी कि उनकी आवाज़ सुनी.
‘आराम ही तो नहीं मिलता, बेचैनी, छाई रहती है. मैं अपने बच्चों के पास जाना चाहता हूँ, वहीं रहना चाहता हूं. तुम मुझे उनके पास ले चलो.’
‘ले चलूंगी, ज़रूर ले चलूंगी’-कहते हुए मैंने उनका हाथ थामा और रेलिंग के सहारे सीढ़ियों से उतरकर नीचे हॉल में आई जहां उनके दोनों बेटे बैठे हुए थे. शोक सभा का माहौल था. डॉक्टर रमण साहब की पत्नी को गुजरे आठ दिन हुए थे, और उन्हें यह तक पता नहीं था कि वह किस की शोक सभा में हर रोज आरती के समय बैठते हैं, हाथ जोड़ते हैं, जहाँ नित आए हुए लोग उनके काँधे को थपथपाते हुए उठ जाते हैं.
‘अरे बेटा अनिल, पिताजी तुम्हें और सुनील को याद कर रहे हैं, तुमसे मिलकर बात करना चाहते हैं- कहते कहते हुए मैंने डॉ रमण की ओर देखा.
‘यह कौन है?’ पास खड़े डॉक्टर रमण का सवाल था यह. मुझे लगा कि मैं उन परिस्थितियों की दलदल में धंसी जा रही हूँ. अचानक अपने सवाल के जवाब में खुद ही अनिल की ओर मुखातिब होकर कहने लगे-‘ देखो अनिल घर में कोई चोर घुस आया था और फिर सिलसिलेवार सारांश में बीस साल पहले की पुरानी बात बिना विराम के करते गए. अनिल चुपचाप जाकर अपने काम में लग गया और बेबसी देखिए, चाह कर भी वह उन्हें चुप न करा सका.
‘अनिल क्या तुम मुझे अपने दो बेटों के पास ले चलोगे मैं वहाँ जाकर उनके साथ रहना चाहता हूँ’ -पिता ने पुत्र से कहा, पर यह मान लिया गया कि एक मरीज़ ने अपने शुभचिंतक से कहा.
और बड़ा बेटा अनिल अपने पिता की ओर टकटकी बांधकर देखते जा रहा था. एक बाप अपने बेटे को नहीं जानता. बेटा सामने है और पिता कह रहा है कि मुझे बेटे के पास ले चलो. कैसी संवेदनात्मक स्थिति है जो रिश्तो के बीच में एक अजनबी दीवार बनकर खड़ी हो गई. यह दिमाग की ऐसी स्थिति है जहाँ पर चालीस साल के बाद की याद जैसे लुप्त हुई हो और समय ठहर गया हो. सत्तर साल की उम्र में पिछले 30 साल की याददाश्त गायब हो गई. 40 साल की उम्र के पड़ाव पर खड़े होकर अपने बेटों को तलाश रहे हैं उन पुराने घर के आस-पास, जहाँ वे पढ़ लिख कर बड़े हुए थे. उसके बाद का उन्हें कुछ भी याद नहीं.
अनिल से कुछ भी जवाब न पाकर डॉ. रमण ने मेरी ओर देखते हुए कहा –‘ आप चोर को हमेशा के लिए भगा दें, ताकि वह मुझे नहाने के समय बार-बार आकर तंग ना करें.’
ऐसी हालत में मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता था, कोई भी? वे खुद एक बड़े डॉक्टर थे, मरीजों का इलाज करते-करते कब खुद मरीज हो गए यह उन्हें भी पता न चला. बस वक़्त जो करे सो कम है, जिंदगी मिली है, लेकिन कुदरत की मौज, इंसान उसके दायरे में जिए न जिए, पर ज़िंदगी अपनी खलकत को ज़रूर जी लेती है.