निराशा के कर्तव्य : दूसरी किस्त

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Ram manohar lohia
(23 मार्च 1910 - 12 अक्टूबर 1967)

— राममनोहर लोहिया —

धर एक वक्ती निराशा की भी बात मैं बताऊँ कि साधारण तौर पर किसी भी जनता के युग हुआ करते हैं। एक तो तेजी का, क्रिया का, कुछ करो ऐसा जमाना, जोखिम उठाओ, कुछ आगे बढ़कर बहादुरी का काम कर लो। दूसरा युग यह हुआ करता है कि जो कुछ मिला है, उसको बैठकर भोगो। एक भोग का युग और दूसरा जोखिम और कर्तव्य का युग। इसके ऊपर मैं कोई सामाजिक कानून नहीं बनाना चाहता, लेकिन साधारण तौर से ऐसे युगों का झूला हरेक राष्ट्र में, हरेक समय देखने को मिलता है। मोटी तरह से, जितना कि हिंदुस्तान के लिए संभव है, आज से 15 बरस पहले एक वह जोखिम वाला युग रहा। मैं नहीं समझता कि वह युग भी बहुत क्रांति और ज्यादा त्याग या तकलीफ वाला था लेकिन अपने देश के लिए जितना भी संभव हो सकता है उतना वह क्रांतिकारी, जोखिम, तकलीफ, त्याग वाला युग था।

अब जब गद्दी मिली, तो लाजिमी तौर से यों भी भोग वाला युग तो आता ही। उसके अलावा, काफी मेहनत हो चुकी थी। अपने लिए तो इतनी मेहनत कम थी, सत्याग्रह और आंदोलन चला लेना, उसकी भी एक प्रक्रिया थी। सब मिलाकर ऐसा लगता है कि यह भोग वाला युग चल रहा है। कितने लोग उस भोग के युग का फायदा उठा रहे हैं, यह बात अलग है। अपने देश में जितना भी शासक वर्ग है, वह इस भोग के युग में फँसा हुआ है।

इस शासक वर्ग की परिभाषा थोड़ी-बहुत आवश्यक है। हर देश में 2 सौ, 4 सौ बरस में शासक वर्ग कुछ थोड़ा-बहुत बदलता है। अपनी तेजी और फुर्ती के हिसाब से हर देश के लिए अलग-अलग समय होता है। किसी समय कोई गिरोह अपनी हुकूमत चला रहा है, उसकी हुकूमत कमजोर पड़ गयी, उसमें अन्याय के बीज ज्यादा आ गए तो फिर एक दूसरा गिरोह खड़ा होता है। जो गिरोह खड़ा होता है, वह आमतौर से ज्यादातर इस पिछले गिरोह को हटाकर फिर अपना राज्य चलाता है। कोई उदाहरण देने की मुझे कोई जरूरत नहीं, लेकिन आप चाहें तो यूरोप के किसी भी देश को देख लो या एशिया वाले भी। गिरोह के हिसाब से उसमें एक तरह का करीब-करीब आमूल परिवर्तन हुआ करता है। हिंदुस्तान में ऐसा नहीं हुआ, पंद्रह सौ या हजार बरस से ऐसा नहीं हुआ है।

शासक वर्ग या राजा वर्ग के मतलब खाली सबसे बड़े लोग नहीं, जो गद्दी पर बैठकर राज चलाते हैं या बादशाह या राजा कहलाते हैं बल्कि वह जो उनके इर्द-गिर्द जो भी एक राजा वर्ग रहता है, सूबों में या राजधानी में, व्यापार करनेवाले या दिमाग वाले या राजकीय शक्ति वाले। यह राजा वर्ग, साफ बात है, पहले दुश्मन से- इधर 1,500 बरस में तो विदेशी दुश्मन भी रहे हैं– मुकाबला करता है लेकिन जब हार जाता है तो उसके साथ घुल-मिल जाता है और वह खत्म नहीं होता। इसमें एकाध अपवाद भले ही हैं, जैसे चित्तौड़ अपवाद है। वह भी कुछ अरसे तक रहा लेकिन आखिर तक नहीं रहा। नए विदेशी शासकों के साथ यहाँ का राजा वर्ग आमतौर से घुल-मिल जाता है और वह बना रह जाता है।

ये दो नंबर के राजा हिंदुस्तान में कभी खत्म नहीं हो पाते। एक नंबर वाला राजा तो बदलता रहता है। पठान गए, मुगल आया, मुगल गए, मराठा आया, मराठा गए, अँग्रेज आया, अँग्रेज गए, तो जो भी कोई आया। पुश्तैनी गुलाम, दो नंबर के राजा, शासक वर्ग, जो भी आप इनको कह लें, इनकी कसौटियाँ बनाना काफी मुश्किल होगा लेकिन मोटी तरह से आज की दुनिया में ये कसौटियाँ हो सकती हैं- एक हजार रुपए महीने से ऊपर की आमदनी अथवा खर्चा, दो, सामंती भाषा। आज अँग्रेजी सामंती भाषा है, किसी जमाने में पुश्तैनी गुलाम के लिए फारसी रही होगी। इस तरह की कुछ कसौटियों पर आज मौटेतौर से करीब 50 लाख आदमी हैं। यह शासक वर्ग, पुश्तैनी गुलाम, दो नंबर के राजा, बदलते नहीं। ये सब चीजों से मिलाप कर लेते हैं और हिंदुस्तान हर किसी तूफान के सामने झुक जाता है। झुकने का माध्यम है यही शासक वर्ग, पुश्तैनी गुलाम।

अगर कभी आधुनिक राजनीति के क्रांतिकारी कार्यक्रम भी चलाना होता है तो इसी में से नेता भी मिलते हैं, क्योंकि यही तो नयी हवा पकड़ते हैं। नयी हवा पकड़कर ये नए विचारों को ले लेते हैं, लेकिन इस ढंग से कि कलेवर में आज की तादाद में 50 लाख बड़े लोग, साढ़े बयालीस करोड़ छोटे लोग– कोई फर्क नहीं आने पाता। किसी पुराने युग में संभवतः उस वक्त 15 लाख बड़े लोग रहे हैं, तो 20 करोड़ छोटे लोग। खास बात संख्या की नहीं है, बल्कि रिश्ते की है। वैसे, पूरी जनसंख्या का करीब 1 सैकड़ा या 2 सैकड़ा या कुछ ज्यादा यह शासक वर्ग रहता है। यह वर्ग स्थायी है, क्योंकि झुक जाता है। और अपना कुछ थोड़ा अपनापन भी रख लेता है, मेल-मिलावट करता है, अपनी गद्दी को बरकरार रखना जानता है। जनता के अंदर नयी जान डालने की या तो इसकी तबियत ही नहीं रह गयी है, और/या इस कला को वह भूल चुका है। दोनों बातें संभव हैं, शायद दोनों ही हैं।

आज भी जितनी राजनैतिक पार्टियाँ हैं, उनका जो मुख्य नेता वर्ग है वह इसी गिरोह में से निकलता है। उसके पिछलग्गू लोग चाहे दूसरे वर्गों में से निकल जाएं, लेकिन वही सचमुच चलानेवाले हैं। ये लोग हिंदुस्तान की क्रांति को कभी भी आखिरी हद तक ले नहीं जाएंगे। उनके साथ-साथ बाकी जो साढ़े बयालीस करोड़ हैं उनमें क्रांति की शक्ति, ऐसा लगता है, प्रायः नहीं रह गयी है। अजीब हालत है कि जिसको क्रांति चाहिए उसके अंदर शक्ति है ही नहीं और वह शायद सचेत होकर उसकी चाह रखता ही नहीं है, और जिसमें क्रांति कर लेने की शक्ति है उसको क्रांति चाहिए नहीं या तबियत नहीं है। मोटेतौर पर राष्ट्रीय निराशा की यह बात है। साथ में छोटी-छोटी और बातें भी हैं कि हिंदुस्तानी झूठा होता है। समय का खयाल नहीं रखता। बकवासी हो गया है। मेहनत करना नहीं जानता, आलसी हो गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस वक्त हिंदुस्तान, हम लोग, दुनिया में सबसे झूठे, सबसे आलसी और सबसे निकम्मे हो गये हैं।

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