— सुशोभित —
सर्वोच्च न्यायालय ने 400 एकड़ के कांचा गाचीबोवली वनक्षेत्र के विनाश पर रोक लगा दी है। अनधिकृत व्यक्तियों के उस क्षेत्र में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन उससे पहले तेलंगाना हुकूमत की मशीनरी पाँच दिनों तक इस ग्रीन-कवर को रौंदती रही। सर्वोच्च-हस्तक्षेप तक 100 एकड़ का जंगल साफ़ किया जा चुका था। यहाँ आईटी पार्क के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहीत की जा रही थी।
मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने कहा कि इससे हज़ारों जॉब्स क्रिएट होते और करोड़ों रुपए इकोनॉमी में आते। लोकतंत्र में सरकारों पर नौकरियों के सृजन का दबाव रहता है। बेरोज़गारी चुनाव हराने वाला फ़ैक्टर बन सकती है। वनक्षेत्र और वन्यजीव वोटर नहीं होते। इसलिए किसी भी राजनेता को अगर वन्यजीवन के हितों और अपने राजनैतिक हितों में से किसी को चुनने का मौक़ा मिले तो वह जंगलों पर आरियाँ चलवाने से पहले एक बार नहीं सोचेगा। राजनीति के चिंतन का आयाम तात्कलिक लाभ पर केंद्रित होता है, दीर्घकालिक हानि की उसे परवाह नहीं होती। पाँच साल बाद जो होगा, देखा जायेगा वाला चिंतन ही चुनावी-राजनीति को चलाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार से कांचा गाचीबोवली की वन्यभूमि का निरीक्षण करने और रिपोर्ट देने को कहा है। मुख्यमंत्री रेड्डी ने दावा किया था कि “यह वनक्षेत्र नहीं है।” उन्होंने यह भी कहा कि “यहाँ कोई हिरण वग़ैरा नहीं हैं, हाँ कुछ ‘चालाक लोमड़ियाँ’ ज़रूर हमारे काम में दख़ल दे रही हैं।” उनका इशारा विपक्षी दलों की ओर था। हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र इस विनाशलीला के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे थे- शायद मुख्यमंत्री ने उन्हें भी अपोजिशन-कैडर का समझा हो।
किन्तु शीघ्र ही यह मुद्दा सोशल मीडिया पर आ गया और कुछ हाई-प्रोफ़ाइल सितारों ने इसके विरोध में ट्वीट किए। उनमें से कुछ ने राहुल गांधी का नाम मेंशन किया, क्योंकि तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार है। इस सबका असर अवश्य ही पड़ा होगा, और राज्य सरकार की हठधर्मिता को देखते हुए आखिरकार सर्वोच्च अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा। कार्यपालिका के कुकर्म से एक बार फिर न्यायपालिका ने रक्षा की और लोकतंत्र के स्तम्भों के स्वतंत्र होने के महत्त्व को बताया। चौथे खम्भे मीडिया के तो एक बड़े हिस्से को बुलडोज़ किया जा चुका है। किंतु विधायिका में सजग विपक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका से अब भी आशाएँ की जा सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट से पहले तेलंगाना हाईकोर्ट ने बुधवार को कांचा गाचीबोवली में पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने के आदेश जारी किए थे। विनाश-लीला रविवार को शुरू हुई और दर्जनों जेसीबी वनक्षेत्र में अपने राक्षसी मनसूबों को अंजाम देने लगी थीं। राष्ट्रीय पक्षी मोरों का क्रन्दन और हिरणों का व्याकुल पलायन तस्वीरों में दर्ज हुआ। ग्रीन-कवर के विध्वंस के बाद भूरी, समतल भूमि का दारुण दृश्य उभर आया। अदालत ने कहा, “प्रथमदृष्टया वहाँ पर वन्यजीवों का निवास मालूम होता है। सरकार को जंगलों की ताबड़तोड़ कटाई शुरू करने की ऐसी भी क्या जल्दी थी?” अदालत को मालूम हो या नहीं, लेकिन सरकार को- या कहें सरकारों को- अपने मतदाता-वर्ग को लुभाने की हमेशा ही जल्दी रहती है। शेष कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता। राजनीति एक ऐसे ‘हाइपोथेटिकल-प्लेन’ पर विचरण करती है, जिसमें वोट ही अंतिम-सत्य हैं और जो पृथ्वी समूचे जीवन- और उसके भीतर राजनीति के आवर्तों को परिप्रेक्ष्य देती है- वह उसकी सॅंकरी आँख से ओझल रहती है।
सर्वोच्च अदालत के न्यायमूर्ति गवई ने कठोर टिप्पणी की कि “जिस जंगल को सपाट किया गया, वहीं एक अस्थायी कारावास बनवाकर मुख्य सचिव को सरकारी मेहमान बना देंगे!” (इस संवाद पर पाठक तालियाँ बजावें!) तेलंगाना हुकूमत के वकील ने दलील दी कि “यह अधिसूचित वनक्षेत्र नहीं है।” न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “अधिसूचित हो न हो, क्या आपने पेड़ों को काटने के लिए अपेक्षित अनुमति ली? दो-चार दिनों में 100 एकड़ ज़मीन साफ़ कर देना कोई मामूली बात नहीं। लेकिन आप क़ानून से ऊपर नहीं हैं।” तथ्य यही है कि फ़ॉरेस्ट के दायरे में केवल अधिसूचित वनक्षेत्र ही नहीं आते, हर वह क्षेत्र जो ग्रीन-कवर है, उसे अभिधा में यानी शाब्दिक रूप से वन ही समझा जाना चाहिए।
स्तुत्य प्रयास उन छात्रों का भी था, जिन्होंने पहले-पहल इस मामले को उठाया और सरकार के कोपभाजन बने। उनमें से एक छात्रनेता ने बताया कि इकोसिस्टम को नष्ट करने के लिए हुकूमत के औज़ार रातभर काम करते रहे, जबकि इस समूचे 400 एकड़ क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान के रूप में संरक्षित करने की मांग वाली एक याचिका हाईकोर्ट में दायर की गई थी और उस पर 7 अप्रैल को सुनवाई होनी थी।
कांचा गाचीबोवली का यह वनक्षेत्र हैदराबाद यूनिवर्सिटी से बिलकुल सटा हुआ है और युवा छात्रों के लिए वह सुरम्य स्थान निजी रागात्मकता का आश्रय होगा। सपनों-सी सुंदर इस हरित-भूमि पर भी सरकार बुलडोज़र चला सकती है, यह उन्होंने कल्पना नहीं की होगी। कोई भी नहीं कर सकता, पर अंधे और न्यस्त-हित कर सकते हैं। इकोसिस्टम और वन्यजीवों के प्रति जिस प्रकार की संवेदनशीलता का परिचय छात्रों ने दिया, उसके लिए आभारी। वैसा ही रवैया वे फ़ार्म एनिमल्स के प्रति भी दिखलाएँ और माँसाहार नामक महापाप का त्याग करें तो और श्रेयस्कर हो।
क्योंकि वन्यजीव ही नहीं, सभी प्रकार के जीव गरिमा से जीवित रहने के अधिकारी हैं। और वनों की रक्षा केवल इसलिए ही नहीं की जानी चाहिए कि वे सुंदर होते हैं या हमें प्राणवायु देते हैं, बल्कि इसलिए की जानी चाहिए कि मनुष्य इस पृथ्वी पर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का सहचर है, उनका संहारक नहीं। मनुष्य अपने पर्यावास का परिजन है, उसका शत्रु नहीं।
यह धरती और उसका पर्यावरण बेहद नाज़ुक है। फ्रैजाइल है, वल्नरेबल है। यहाँ मनुष्यजाति को एक-एक क़दम ऐसे ऐहतियात से रखने की ज़रूरत है मानो कोई प्रियजन सोता हो और उसकी नींद में ख़लल पड़ सकता है। एक पक्षी भी हमारी जीवनचर्या से चौंककर जाग उठे तो हमारे जीवन पर धिक्कार है। सर्वनाश की शक्तियाँ यह याद रखें ना रखें, हमें अवश्य याद रखना चाहिए।
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