— परिचय दास —
।। एक ।।
मुर्शिदाबाद की हालिया हिंसा को मात्र एक प्रशासनिक विफलता या आकस्मिक घटना कह कर टालना, उस गहरी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना की अनदेखी होगी, जो वर्षों से पश्चिम बंगाल में आकार ले रही है। यह घटना उस लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें धार्मिक अस्मिताएं, चुनावी राजनीति और सांस्कृतिक आत्मगौरव की धारणाएं एक-दूसरे से उलझती जा रही हैं। उमरपुर और आसपास के क्षेत्रों में यह हुआ।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह घटना तृणमूल कांग्रेस की सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। एक ओर वह मुस्लिम बहुल जिलों में अपनी पकड़ बनाए रखना चाहती है, वहीं दूसरी ओर वह हिंदू बहुल क्षेत्रों में भाजपा के बढ़ते प्रभाव से भी जूझ रही है। ऐसे में एक धार्मिक समूह के भीतर से ही सरकार के खिलाफ प्रतिरोध की भावना उभर आना उसकी रणनीति के लिए खतरनाक संकेत है। भाजपा ने इस घटना को तुरन्त लपक कर एक ‘कानून-व्यवस्था की विफलता’ का उदाहरण बताया और उसकी राष्ट्रीय राजनीति में ‘अराजक बंगाल’ की छवि को पुष्ट किया। हाईकोर्ट द्वारा केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश देना इस धारणा को और मजबूत करता है कि राज्य सरकार स्थिति को संभालने में सक्षम नहीं रही।
लेकिन यह राजनीतिक प्रश्न केवल सत्ता और विपक्ष के बीच की खींचतान तक सीमित नहीं है। यह उस गहरे सामाजिक तनाव का भी द्योतक है जिसमें राज्य की बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी के बीच अविश्वास की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक ओर बहुसंख्यक समुदाय को यह भय है कि उनकी सांस्कृतिक पहचान को योजनाबद्ध ढंग से विस्थापित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से में यह भावना गहरी हो रही है कि सरकार उनकी वास्तविक समस्याओं की उपेक्षा कर केवल प्रतीकात्मक पहचान की राजनीति कर रही है। मुर्शिदाबाद की हिंसा में असहमति का स्वर उग्रता में बदल गया।
वक़्फ बोर्ड और उससे जुड़ी संपत्तियों को लेकर अनेक वर्षों से विवाद और जमीनी स्तर पर संघर्ष देखने को मिलते रहे हैं और मुर्शिदाबाद जैसी ऐतिहासिक और मिश्रित आबादी वाली जगहों पर यह मुद्दा और भी संवेदनशील हो जाता है।
वक़्फ बोर्ड की भूमिका और विवाद:
वक़्फ संपत्ति क्या है:
वक़्फ उस संपत्ति को कहते हैं जिसे कोई मुसलमान धार्मिक, परोपकारी या सामाजिक उपयोग हेतु स्थायी रूप से समर्पित करता है। यह संपत्ति व्यक्तिगत स्वामित्व से बाहर हो जाती है और इसकी देखरेख वक़्फ बोर्ड करता है।
बिना राजस्व प्रमाण के कब्जा?
कानूनी रूप से, कोई भी वक़्फ संपत्ति तभी मान्य मानी जाती है जब:
उसका विधिवत रजिस्ट्रेशन वक़्फ बोर्ड में हो।
उसके मालिकाना हक़ का पुराना रिकॉर्ड (often “waqf deed” या शहादतनामा) हो।
राज्य सरकार या तहसील रिकॉर्ड में भी उसे “वक़्फ संपत्ति” के रूप में चिह्नित किया गया हो।
लेकिन व्यावहारिक स्तर पर कई बार:
पुराने जमाने की मौखिक घोषणाओं या धार्मिक उपयोग के आधार पर वक़्फ का दावा किया जाता है।
ज़मीनी स्तर पर, जिन ज़मीनों पर कोई स्पष्ट दावा या दख़ल न हो, वहाँ वक़्फ बोर्ड कभी-कभी कब्जा लेने की कोशिश करता है — खासकर जब उस ज़मीन पर कोई कब्र, मस्जिद, या मजार मौजूद हो।
राजनीतिक आरोप और संसद में बहस:
कई राजनीतिक दलों का आरोप रहा है कि वक़्फ बोर्ड को अत्यधिक अधिकार दिए गए हैं और वो अनेक बार बिना पर्याप्त दस्तावेज़ी प्रमाण के संपत्ति पर दावा करता है। यही कारण है कि संसद में इस विषय पर कई बार कानून संशोधन या पुनर्गठन की माँग उठी है।
मुर्शिदाबाद का संदर्भ:
मुर्शिदाबाद की सांस्कृतिक बनावट में जहाँ एक ओर नवाबों और मुस्लिम वक़्फ संपत्तियों का इतिहास रहा है, वहीं आज़ादी के बाद से लेकर अब तक इन संपत्तियों के नियंत्रण को लेकर संघर्ष रहा है—यह संघर्ष कभी-कभी साम्प्रदायिक तनाव का रूप भी ले लेता है।
वक़्फ बोर्ड कानूनी रूप से तभी किसी संपत्ति पर दावा कर सकता है जब उसके पास पुख़्ता दस्तावेज़ हों लेकिन ज़मीनी हकीकत में, राजनीतिक संरक्षण, प्रशासनिक ढील और दस्तावेज़ों की अस्पष्टता के कारण कब्जा करने की कोशिशें और विवाद दोनों होते हैं। ऐसे में पारदर्शिता, न्यायिक हस्तक्षेप और स्पष्ट कानून संशोधन आवश्यक है।
मुर्शिदाबाद की उग्रता का सामाजिक चेहरा जटिल है। मुर्शिदाबाद न केवल एक मुस्लिम बहुल इलाका है बल्कि वह बंगाल की पारंपरिक सांस्कृतिक चेतना का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा है। वहां की सामाजिक संरचना में अभी भी जाति, वर्ग और धार्मिक पहचान के अनेक स्तर मौजूद हैं जो अक्सर साथ-साथ चलते हुए भी एक-दूसरे से टकराते रहते हैं। जब वक्फ बोर्ड जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन से जुड़े कानूनों में संशोधन होते हैं तो यह केवल धार्मिक नेतृत्व पर प्रभाव नहीं डालते बल्कि सामाजिक अनुशासन, समुदाय की स्वायत्तता और सांस्कृतिकता पर भी सीधा असर डालते हैं।
इस प्रसंग को सांस्कृतिक संदर्भों में देखें तो एक और गहरी परत उजागर होती है। बंगाल में धार्मिक उत्सवों का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही वह साझा संस्कृति का प्रतीक भी रहा है। रामनवमी और मुहर्रम दोनों ही परंपराएँ इस भूमि पर एक सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की तरह रही हैं लेकिन जब धार्मिक उत्सव राजनीतिक हथियार बन जाएँ और उन पर बाहरी रंग चढ़ने लगें तो वे समुदायों के बीच दूरी बढ़ाने का माध्यम बन जाते हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिंसा की घटनाएँ अक्सर उन इलाकों में केंद्रित होती हैं जहाँ आर्थिक हताशा और बेरोज़गारी अधिक होती है। मुर्शिदाबाद की अर्थव्यवस्था परंपरागत शिल्प, बुनकरी और कृषि पर आधारित है जो पिछले एक दशक से लगातार संकट में है। जब आजीविका के स्रोत क्षीण हो जाते हैं और शासन व्यवस्था अपने ही नागरिकों की आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील नहीं रहती तो आक्रोश के लिए कोई भी बहाना पर्याप्त हो सकता है। हिंसा का यह सामाजिक आधार, राजनीतिक उपेक्षा और सांस्कृतिक अस्थिरता तीनों एक साथ मिलकर एक विस्फोटक परिस्थिति तैयार करते हैं।
आज इस पूरे घटनाक्रम को न केवल एक क्षणिक अराजकता के रूप में देखा जाना चाहिए बल्कि उसे भारतीय संघीय ढाँचे, अल्पसंख्यक अधिकारों और राज्य स्तर पर सांस्कृतिक नीति के अभाव के लक्षण के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। यह घटना संकेत करती है कि जब तक राज्य सरकारें केवल राजनीतिक लाभ की दृष्टि से समुदायों को साधने की कोशिश करेंगी और जब तक वे उनकी सांस्कृतिक आकांक्षाओं को समझने और उनमें भागीदारी करने का प्रयास नहीं करेंगी तब तक ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी।
इस प्रसंग में एक व्यापक बौद्धिक विमर्श की आवश्यकता है, जिसमें ‘धार्मिक स्वतंत्रता’, ‘सांस्कृतिक स्वायत्तता’ और ‘राजनीतिक उत्तरदायित्व’ को एक साथ रखकर विचार किया जाए। केवल अपराधियों की गिरफ्तारी या इंटरनेट बंद कर देने से यह संकट टलेगा नहीं बल्कि इसके लिए उस गहरे अविश्वास को समझना होगा जो राज्य और समाज के बीच पनप रहा है। लोकतंत्र केवल मतदान या प्रतिनिधित्व का नाम नहीं है, वह संवाद, विश्वास और सांस्कृतिक सम्मान का ताना-बाना भी है। मुर्शिदाबाद की हिंसा उसी ताने-बाने के टूटने की त्रासदी है जिसे हमें यथाशीघ्र पुनर्निर्मित करना होगा।
किसी भी समाज या समुदाय द्वारा हिंसा का रास्ता अपनाना न केवल गलत है बल्कि वह उस समाज के भीतर के आक्रोश और असुरक्षा की चरम, असंवेदनशील अभिव्यक्ति भी होती है। मुर्शिदाबाद में यदि किसी उग्र समूह ने तीन हिंदू नागरिकों की हत्या की है तो यह न केवल मानवता के विरुद्ध अपराध है बल्कि सांप्रदायिकता के ज़हर को और गाढ़ा करने वाला कृत्य है। खबरें हैं कि दो सौ से ज़्यादा हिन्दू परिवार तांडव के कारण पलायन कर चुके हैं!
किसी भी धार्मिक या राजनीतिक असहमति का समाधान हत्या या हिंसा नहीं हो सकता। यह घटना सिर्फ तीन व्यक्तियों की मृत्यु नहीं है — यह एक समाज की नैतिक हार और उसकी संवैधानिक चेतना का संकट है। भारत जैसे लोकतंत्र में जहाँ विचारों, आस्थाओं और मतों की विविधता को सम्मान मिलना चाहिए, वहाँ यदि हत्या जैसे जघन्य कृत्य सामने आते हैं, तो यह चिंतन का विषय है।
इसका विरोध केवल हिंदू या मुस्लिम के नज़रिए से नहीं, बल्कि एक नागरिक, एक संवेदनशील मानव के नाते भी किया जाना चाहिए — क्योंकि हत्या की वैधता को धार्मिक, सामाजिक या नैतिक : किसी आधार पर उचित नहीं ठहरा सकते।
।। दो ।।
मुर्शिदाबाद की हिंसा: समकालीन प्रभाव और दूरगामी प्रतिध्वनियाँ-
मुर्शिदाबाद की हालिया सांप्रदायिक हिंसा अपने तत्काल राजनीतिक और प्रशासनिक निहितार्थों के अतिरिक्त, एक गहन समकालीन प्रभाव छोड़ती है जिसकी तरंगें केवल बंगाल तक सीमित नहीं हैं। यह घटना भारत के सामुदायिक जीवन, संघीय व्यवस्था, न्यायिक हस्तक्षेप और नागरिक स्वतंत्रता की परिकल्पना पर कई तरह के प्रश्नचिन्ह छोड़ती है। यदि पहले खंड में हमने इस हिंसा की घटनात्मकता और उसके बहुस्तरीय विश्लेषण की चर्चा की थी तो अब आवश्यक है कि हम इसके समकालीन परिप्रेक्ष्य में प्रभावों का विवेचन करें—राज्य, समाज, मीडिया, और नागरिक जीवन के विविध स्तरों पर।
मुर्शिदाबाद की हिंसा न केवल प्रशासन की दक्षता पर सवाल उठाती है बल्कि राजनीतिक दलों के आचरण और उनकी नीयत पर भी। समकालीन संदर्भ में यह देखा जा सकता है कि हिंसा को किस तरह विमर्श में स्थान मिला और किस प्रकार इसने जनता की मानसिकता को प्रभावित किया।
राजनीतिक दलों ने इस हिंसा को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया। भाजपा ने इसे ‘हिंदू अस्मिता’ पर हमला करार दिया, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने इसे केंद्र सरकार की विफलता और बाहरी षड्यंत्र की संज्ञा दी। वाम दलों की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत मद्धिम रही लेकिन उन्होंने भी साम्प्रदायिकता और प्रशासनिक विफलता को रेखांकित किया। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि मुर्शिदाबाद की हिंसा किसी एक समुदाय की असंतुष्टि नहीं थी बल्कि यह प्रशासनिक उदासीनता, धार्मिक असुरक्षा और सत्ता की दोहरी नीति का परिणाम थी।
इस संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि ऐसी हिंसा का नागरिक जीवन पर क्या प्रभाव होता है? एक ओर जहां भय और अविश्वास की भावना आम लोगों के बीच व्याप्त हो जाती है, वहीं दूसरी ओर समाज के विभिन्न वर्गों के बीच पहले से मौजूद दरारें और गहरी हो जाती हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, व्यापारी अपने व्यवसाय नहीं चला पाते, और रोज़मर्रा का जीवन एक अज्ञात भय से भर जाता है। यह भय केवल शारीरिक हिंसा का नहीं होता बल्कि उस सांस्कृतिक अनिश्चितता का होता है, जिसमें यह तय नहीं हो पाता कि कौन-सा धार्मिक उत्सव किस प्रकार से मनाया जाएगा या कोई व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर पाएगा या नहीं।
समकालीन भारत में, जहाँ डिजिटल मीडिया का व्यापक प्रभाव है, वहाँ इस प्रकार की घटनाओं के दृश्य और वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम से तुरंत फैलते हैं। मुर्शिदाबाद की घटना के कई वीडियो वायरल हुए, जिनमें जलते हुए वाहन, भागते हुए लोग, पुलिस पर पथराव और धार्मिक नारेबाजी देखी गई। यह प्रसार न केवल स्थानीय समुदायों में भय और आक्रोश फैलाता है बल्कि देश के दूसरे हिस्सों में भी समाजों को आंदोलित करता है। इस प्रकार एक स्थानीय घटना राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाती है और कई बार इसका उपयोग दूसरे राज्यों में चुनावी लाभ के लिए किया जाता है।
यहाँ एक और समकालीन प्रश्न उठता है—क्या भारत की संघीय व्यवस्था इस प्रकार की क्षेत्रीय हिंसाओं से निपटने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार है? केंद्र और राज्य के बीच शक्ति-संतुलन की बहस एक बार फिर सामने आई है। कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश देना और राज्य सरकार द्वारा उसमें असहयोग का संकेत देना, इस तनाव को और बढ़ाता है। एक लोकतांत्रिक संघीय राज्य में यह आवश्यक है कि राज्यों की सांविधानिक स्वायत्तता का सम्मान किया जाए, लेकिन साथ ही यह भी आवश्यक है कि वे अपने नागरिकों की सुरक्षा की संवैधानिक जिम्मेदारी को प्राथमिकता पर रखें।
इस घटना का एक महत्त्वपूर्ण समकालीन प्रभाव यह भी है कि इससे भारत में धार्मिक संगठनों की भूमिका पर फिर से चर्चा शुरू हुई है। वक्फ बोर्ड, मदरसे, हिंदू ट्रस्ट, अखाड़े—ये सभी न केवल धार्मिक संस्थाएं हैं बल्कि समाज में गहरी पैठ रखने वाले संगठन हैं जिनकी अपनी प्रशासनिक संरचनाएं, वित्तीय स्रोत और वैचारिक अनुशासन है। जब इन संगठनों पर कानूनन हस्तक्षेप किया जाता है या उनकी स्वायत्तता को सीमित करने की कोशिश होती है तो वह केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं होता।
समकालीनता का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि ऐसी घटनाओं के पश्चात, न्यायिक संस्थाएँ अधिक सक्रिय हो जाती हैं। हाईकोर्ट की फटकार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का संज्ञान और नागरिक संगठनों की याचिकाएं यह दर्शाती हैं कि भारतीय लोकतंत्र में अब भी प्रतिरोध की अनेक आवाज़ें जीवित हैं किंतु इनका प्रभाव तभी गहरा होता है जब वे समुदायों में विश्वास बहाल कर पाएं।
मुर्शिदाबाद की हिंसा ने एक बार फिर इस प्रश्न को केंद्र में ला दिया है—क्या हम एक ऐसा समाज बना पा रहे हैं जिसमें विविधता को उत्सव की तरह देखा जाए या हम धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ रहे हैं जहाँ विविधता एक संकट का नाम बन जाए? यह संकट न केवल धार्मिक या सांप्रदायिक है, बल्कि यह हमारे शिक्षा, संस्कृति, और मीडिया के ढाँचों में भी परिलक्षित होता है।
मीडिया की भूमिका यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अनेक समाचार चैनलों ने घटना की कवरेज को सनसनीखेज बनाया, जिससे आक्रोश और भ्रम दोनों बढ़े। किसी चैनल ने इसे ‘रामभक्तों पर हमला’ बताया तो किसी ने इसे ‘सरकार के खिलाफ मुस्लिम विद्रोह’ की संज्ञा दी। इस प्रकार की पक्षधरता और गैर-पेशेवर रिपोर्टिंग ने केवल जनता को गलत जानकारी दी बल्कि घटना को और अधिक राजनीतिक रंग दे दिया।
यदि हम इस घटना को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में अब धार्मिक उत्सव केवल सांस्कृतिक आनंद के अवसर नहीं रह गए हैं। वे अब पहचान की राजनीति, शक्ति के प्रदर्शन और अस्मिता के संघर्ष के मंच बन गए हैं। अब धार्मिक प्रतीक सत्ता, वर्चस्व और असुरक्षा की ग्रंथियों से भी जुड़ गए हैं।
इस समकालीन संकट का हल केवल कानून व्यवस्था या सैन्य बलों के माध्यम से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए उस सांस्कृतिक पुनर्रचना की आवश्यकता है जिसमें संवाद, सह-अस्तित्व और वैचारिक विनम्रता को स्थान मिले। यह कार्य केवल सरकार या राजनीतिक दल नहीं कर सकते। इसके लिए शैक्षणिक संस्थानों, साहित्यकारों, कलाकारों और नागरिक समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी।
साथ ही, यह भी आवश्यक है कि इस प्रकार की घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया जाए। भारत में अभी तक साम्प्रदायिक हिंसा पर एक समग्र, प्रमाणिक और अकादमिक अध्ययन की पर्याप्त परंपरा नहीं है। जब तक हम इन घटनाओं को केवल समाचार के रूप में देखते रहेंगे और उनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों का विश्लेषण नहीं करेंगे, तब तक हम उनसे कुछ नहीं सीख पाएँगे।
मुर्शिदाबाद की हिंसा का समकालीन प्रभाव इस बात में निहित है कि वह केवल एक जिले या एक राज्य की घटना नहीं रह गई बल्कि वह उस व्यापक सामाजिक ताने-बाने की टूटन का संकेत है जो आज के भारत में जगह-जगह से झाँक रही है। यदि हम इसे केवल एक प्रशासनिक समस्या मान कर भूल जाएँगे तो आने वाले वर्षों में हम और भी जटिल और विभाजनकारी परिस्थितियों के लिए तैयार रहना होगा।
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इस घटना को एक चेतावनी की तरह पढ़ा जाए—एक ऐसी चेतावनी जो हमें हमारी सांस्कृतिक नींव की ओर लौटने का संकेत देती है; जहाँ विविधता में सौंदर्य है, असहमति में सहिष्णुता है और धर्म में केवल मार्ग है, सत्ता नहीं। यदि भारत को एक समकालीन लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ना है तो मुर्शिदाबाद की तरह की घटनाओं से उसे केवल क्षोभ नहीं, शिक्षा भी ग्रहण करनी होगी—सांस्कृतिक, राजनैतिक और आत्मिक शिक्षा। यही इस घटना की सबसे गहरी प्रतिध्वनि होगी।