इतिहास क्या है?

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— सच्चिदानंद पांडेय —

नुष्य को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर थ्युसिडाइड्स ने इतिहास की‌ घटनाओं का‌ सही चित्रण करने का प्रयास किया और मानव स्वभाव के आलोक में कहा कि भविष्य में भी वही घटनाएं घटेंगी जो अतीत में घट चुकी हैं। आधुनिक युग के खुलते द्वार पर मैकियिावैली ने भी थ्युसिडाइड्स का अनुसरण किया और मानव स्वभाव व समाज के अध्ययन पर बल दिया क्यों कि एक ही नियमों के अधीन मनुष्य जन्म लेते हैं और दुनिया से विदा हो जाते हैं और सभी समाजों, नगरों और राष्ट्रों में एक ही आकांक्षाएं, अपेक्षाएं और भावनाएं पाई जाती हैं। अतीत की प्रशंसा करना, वर्तमान को कोसना, सदैव कुछ न कुछ चाहना और सदैव अपनी उपलब्धि से असंतुष्ट रहना, सामान्यजनों में सुरक्षा की तथा अभिजनों में शक्ति की चाहत आदि‌ विशेषताएं मनुष्य ‌ में निरंतर बनी‌ रहती हैं।

लेकिन ऐतिहासिक प्रक्रिया मूलतः प्रगतिपूर्ण या‌ बुध्दिसंगत ही नहीं होती। मनुष्य न तो इस प्रक्रिया को समझ सकता है और ‌न ही उसे अतिक्रमित कर सकता है क्योंकि अतीत की सभी व्याख्याएं वर्तमान अथवा संक्रांतिकालीन परिप्रेक्ष्यों ‌से‌ रंजित एवं ‌विदुप्रित होती हैं। कोई सनातन शिव नहीं जिसका अभिज्ञान मनुष्य प्राप्त कर सकता है। इतिहास की यह अधिमान्यता उचित नहीं है कि मानव चिंतन इतिहास के परिवर्तनशील क्षितिजों से ‌आबध्द है। प्राकृतिक विधि‌ इतिहास में बार बार विस्मृत, अदृश्य और‌ लुप्त हुई है।

इतिहास सत्य में अस्तित्व की अविरल धारा नहीं है, बल्कि उसमें विद्रुपित अस्तित्व की अवधियां भी व्यवधान के रूप में पाई जाती हैं। मानवता का इतिहास सत्य और असत्य के तनाव को अंतर्विष्ट किए हुए हैं। यह मानव अस्तित्व को उन्मुक्तता और अवरुद्धता, ईश्वर प्रेम और आत्मप्रेम, समानुरुपण और विद्रोह, विवेकपूर्ण जीवन और अविवेकपूर्ण मनोग्रंथि आदि के बीच तनाव से ग्रसित ‌क्षेत्र मानता है। इसके अनुसार, मानव अस्तित्व ज्ञान और अज्ञान के बीच, जीवन और मृत्यु के बीच उद्वेलक यात्रा है।

राजनीतिक वास्तविकता को मनुष्य, समाज और इतिहास के आयामों में ही विश्लेषण का विषय बनाया जाना चाहिए। इन‌ आयामों में ‌यह वास्तविकता प्रकट होती है। इतिहास राजा-रानी का किस्सा भर नहीं है। वस्तुतः किस्सा- कहानियों का इतिहास में अब महत्त्व नहीं रहा। हरमों के ‌किस्से कहानियों, दरबारी‌ साजिशों- षडयंत्रों और मंत्रणाओं और युद्ध के विवरणों से अलग भी इतिहास होता है और इसकी चिन्ता के केद्र में समाज और लोग होते हैं। तथ्यों का चयन और वैज्ञानिक विश्लेषण इतिहास- लेखन के मुख्य सरोकार होते हैं।

मनुष्य, समाज‌ और इतिहास के क्रम को उलट कर इतिहास, समाज और मनुष्य के क्रम में बदल दिया गया। विचारवादी विद्रुपण की‌ इस‌ प्रक्रिया में ‌मानो मनुष्य का ही उन्मूलन हो गया। हेगेल और मार्क्स ने यह काम किया और यही काम आज के वामपंथी और संघी इतिहासकार कर रहे हैं। ऊपरी‌ तौर पर ये दोनों धाराएं परस्पर विरोधी और एक दूसरे को काटती हुई लगतीं हैं। लेकिन काल और इतिहास की दृष्टि से ‌देखें तो ऐसा नहीं है। वस्तुतः ये दोनों ही ‌धाराएं हेगेल की विचारधारा से उद्भुत हुई हैं। एक की‌ सर्वश्रेष्ट उपज हिटलर है, तो दूसरे की स्टालिन।

पाश्चात्य मार्क्सवादी चिंतन धारा से प्रेरित-प्रभावित वामपंथी इतिहासकारों ने मार्क्सवादी विचारधारा के पोषण के‌ लिए अकादमिक क्षेत्र का दुरुपयोग किया। अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि ‌वामपंथी इतिहासकार अपनी सैध्दांतिक प्रतिबध्दता के जोश में इतिहास की वस्तुगत प्रक्रिया को भूल जाते रहे हैं और ‌समकालीन राजनीति के प्रभाव में इतिहास- बोध की गंभीरता को अनदेखा करते रहे हैं।

संघ परिवार भी जिस इतिहास- दृष्टि को लेकर अभी तक चलता रहा है, उसमें भी कुछ भी भारतीय नहीं है। यह‌ विशुद्ध रूप से यूरोपीय है, पश्चिमी है, जर्मन-इटालवी ‌है। राष्ट्र को सर्वोच्च स्थान देना हेगेल के उसी दर्शन में ‌है जिससे हिटलर और मुसोलिनी ‌ने जातिवाद और फासीवाद को चलाया था। हेगेल राष्ट्र- राज्य को धरती पर भगवान का अवतरण कहता था। इसी‌ हेगेल के ऐतिहासिक भौतिकवाद ने मार्क्सवाद की भी ऐतिहासिक दृष्टि तय की थी।

मंत्र चाहे मार्क्स का‌ हो या मुसोलिनी का, यह‌ उसका‌ अनिवार्य ‌तत्व है कि पश्चिम में, गोरों की दुनिया में जो कुछ हुआ है और हो‌ रहा है , वही असली ‌है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास लेखन को उसी‌ लाईन‌ पर रखने में अपनी पूरी ऊर्जा ‌लगा‌ दी। संघ परिवार का राष्ट्रवाद भी भारत की असली खुबियों को त्यागकर अपने ढंग से ‌इतिहास लेखन का प्रयास कर रहा‌‌ है।

संघियों की राष्ट्रवाद की अवधारणा आज उस यूरोप और ‌पश्चिम में भी पुरानी पड़ चुकी है, जहां से ये निकली‌ है। भारत में तो‌ यह कभी प्रभावी हुई भी नहीं।

वामपंथी और संघी‌ इतिहासकारों द्वारा भारत में ‌इतिहास के ‌महत्व को जानने- बताने के प्रयास की‌ जगह इतिहास को‌ तोड़ने- मरोड़ने, नकारने और झूठलाने का, पूरी इतिहास- प्रक्रिया को उलट देने का अभियान चलाया जाता रहा है। इतिहास को मार्क्स के कहे अनुसार दिखाने के ‌लिए साफ दिखाई देने ‌वाले तथ्यों, प्रमाणों व‌ साक्ष्यों की अनदेखी की गई। पंथनिरपेक्षता के सवाल पर भी इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों को छुपाया, उनसे आंख‌ चुराया या एक खास अनुपात में इनकी चर्चा नहीं की। पाश्चात्य मानसिकता से ग्रस्त वामपंथियों ने भारत के अकादमिक क्षेत्र का इस्तेमाल मार्क्सवादी विचारधारा के पोषण के‌ लिए किया है।

संघी इतिहासकारों ने भी भारी जोश और उत्साह से मिथकों के उन सारे अंशों का इस्तेमाल किया या कर रहे हैं जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। संघ परिवार भारत की जमीन और भारत के इतिहास की उपज नहीं है। उसके समस्त कार्यकलाप, उसकी वर्दी, सलाम का अंदाज सबकुछ हिटलर- मुसोलिनी की संस्थाओं की नकल हैं। बहुत पहले भाई परमानन्द ने संघ की तुलना मुसोलिनी के ब्रिगेड से की थी। गोलवलकर ने तो हिटलर की प्रशंसा करते हुए उसे भारतीय समाज के लिए आदर्श और अनुकरणीय बताया था। संघ की “राष्ट्र की अवधारणा यूरोपीय देशों के उस संकीर्ण राष्ट्रवाद से आई है जिसने हिटलर और मुसोलिनी जैसे क्रूरतम तानाशाहों को जन्म दिया।

एक रणनीतिक योजना के तहत पाठ्यक्रम में किए गए संशोधन बौद्धिक ईमानदारी के नहीं, बौद्धिक ‌छल के द्योतक हैं। किसी भी देश के इतिहास में सबकुछ अच्छा और गर्व करने के लायक ही नहीं ‌होता। इसमें विरूपताएं भी‌ होती हैं। अच्छी व बुरी दोनों बातें होती हैं। समाज कभी ऊपर उठता है तो कभी नीचे गिरता है। उत्थान-पतन ‌के दौर से गुजरता रहता है। इतिहास की सही समझ ‌पाने के लिए जरूरी है कि हम समाज के उत्थान-पतन, अच्छा- बुरा दोनों की वास्तविकता को जानें और फिर उसके कारणों का विश्लेषण कर निदान का रास्ता तलाशें। इतिहास जो भी और जैसा भी रहा है, उसे उसी रूप में देखा- समझा जाना चाहिए। इतिहास राग-द्वेष से परे की चीज है। यह‌ राग-द्वेषविहीन स्मृति है, जो हमारे जीवन के लिए जरूरी है।

शासकों में अपनी जरूरतों के अनुरूप इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने की प्रवृत्ति रही है। इतिहास की एक ही ‌घटना हमारी कल्पना और सोच के‌ अनुरूप अलग-अलग दिखाई दे सकती है। उदाहरण के लिए, 15 अगस्त,1947 का दिन कांग्रेस के लिए महान हर्ष -उल्लास का दिन था, गांधी के लिए पाश्चाताप का दिन था और साम्यवादियों ‌के लिए झूठी आजादी का।

इतिहास अपनी यात्रा विचारधारा के बलबूते तय करता है और प्रभुत्वशाली वर्ग विचारधारा की आक्रामकता से अपनी बात मनवाता है। सामाजिक-राजनीतिक शक्ति सदैव विचारधारा के माध्यम से सक्रिय और ताकतवर बनती है। विश्व में शक्ति के खेल में विचारधारा का ही महत्त्व है। शक्ति संपन्न देश ही निर्धारित करते हैं कि क्या कहना है और क्या नहीं कहना है और जो कहना है उसे कैसे कहना है।

जो विचार-विमर्श की, विचारधारा की शक्ति रखतें हैं और जिन्हें पूंजीवादी-साम्राज्यवादी कहने पर से भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा, वे ही इतिहास का रथ हांकते हैं।

मार्क्स के पश्चिमी बुद्धिवाद ने यूरोप की‌ धाक का सिक्का जमाया। ज्यां पाॅल सार्त्र और हर्बर्ट मारक्यूज जैसे फ्रेंच और अमरीकी दार्शनिक लेखक फिदेल कास्त्रो की तानाशाही को और स्टालिनशाही को उचित ठहराते ‌रहे। वे मानववाद का बगुला मंत्र जपते रहे और एशिया को कोसते रहे।

जेम्स मिल की पुस्तक ” ब्रिटिश हिस्ट्री आफ इंडिया”, जो बिना भारत आए लिखी गई, का मूल उद्देश्य था भारत को नीचा दिखाना। इसका संदेश यह था कि भारत में कभी भी एकता नहीं थी। कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों ने इसी सवाल को अलग-अलग ढंग से बार-बार उछाला और यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि भारत की एकता ब्रिटिश शासन ने ही स्थापित की। कार्ल मार्क्स ने ‌तो यहां तक लिख दिया कि ब्रिटिश उद्योग ने ही भारत के‌ लघु , अर्ध्द बर्बर, अर्ध्द सभ्य ग्रामीण समुदायों को, उनके पारंपरिक आर्थिक आधार को ध्वस्त किया और इस प्रकार इसने एशिया की एकमात्र महानतम सामाजिक क्रांति का विधान किया।

इतिहास का रथ हांकने वाले इसी प्रभुत्वशाली वर्ग ने औपनिवेशिक गुलामी को कायम रखने के लिए मुक्त बाजारवाद, अर्थात कि भूमंडलीकरण का उत्तर आधुनिकतावादी चिंतन को मजबूत किया। पश्चिमी ज्ञान- विज्ञान ने वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी क्रांति की गुलामी के लिए हमें विवश किया। भूमंडलीकरण के आवरण के नीचे पश्चिमी साम्राज्यवाद ने बड़ी चतुराई से एशिया की छाती पर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का झंडा फहरा दिया, जो हमारे मूलभूत विश्वास, पारिवारिक- सामाजिक संबंध और तमाम तरह के मानवीय संबंधों को रौंद रहा है।

यह हमें विखंडित होने की पीड़ा का बोध भी नहीं होने दे रहा है, क्योंकि यह हमारे मस्तिष्क का अनुकूलन कर रहा है। एक अजीब तरह की आपाधापी, हिंसा और हवस की संस्कृति हमारे ऊपर वाली जा रही है और हमारी अपनी स्वयंभु / देशज सांस्कृतिक विरासतें और जीवन मूल्य पीछे धकेले जा रहे हैं। देरिदा ने विखंडन के जरिए प्रत्येक क्षेत्र के संरचना वाद को तोड़ने का आह्वान किया और केन्द्रीकरण को चुनौती दी। उसके विखंडन ने एक समूह की केन्द्रीकृत व्यवस्था को तोड़ा, लेकिन इसकी जगह कोई नई व्यवस्था जन्म नहीं ले सकी, बल्कि एक व्यवस्था विहीन संस्कृति ने जन्म लिया। उसके शिष्यों ने इतिहास को नकार दिया। सोवियत महल ढह जाने के बाद फ्रांसिस फुकुयामा ने घोषणा कर डाली कि इतिहास का अंत हो गया। फुकुयामा ने इतिहास के अंत की घोषणा तो कर डाली, लेकिन कोई नया इतिहास रचा जाए, इसकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। अर्थात् कि हमें मान लेना चाहिए कि विकास की अंतिम सीमा वहीं है जहां पश्चिम के‌ विकसित देश पहुंच चुके हैं। इतिहास का अंत हो गया। विचार का अंत हो गया। लेखक का भी अंत ‌हो गया। फिर बचा क्या? अंत के बाद एक नई चीज बनती है, लेकिन यहां कुछ बनता ही नहीं। अंत का अंतहीन सिलसिला है। अंत के बाद अंत। अर्थात् एक विश्रृंखलित, इतिहासविहीन, जीवन,जगत, समाज और परिवार की अवधारणा से कटी आस्था, संवेदना सदृश मूलभूत मूल्यों से हीन समय में हमें जीना है। आज धर्म और मूल के आधार पर दुनिया के गरीब आपस में संघर्षरत है, जिसे एक अमरीकी बुद्धिजीवी हंटिंगटन अट्टहास की मुद्रा में इसे सभ्यताओं की भिड़ंत के रूप में पेश कर रहा है।

भूमंडलीकृत विश्व में जिस तरह से यूरोप और अमरीका के नेताओं ने अपनी दमनकारी नीतियों से मानवता का दलन- दमन और अपमानित करने का सिलसिला शुरू किया है, जिस तरह से उनके ‌दमनकारी नवसाम्राज्यवाद से‌ मानवधिकार क्षत- विक्षत होते ‌रहे हैं और मानवता अपमानित होती रही है, वह अभूतपूर्व और अप्रत्याशित है, क्योंकि जनतंत्र और मानवाधिकारों की दुहाई सबसे अधिक वही देते हैं।

इतिहास महज तथ्यों का संग्रह नहीं है और न ही पीढ़ी दर पीढ़ी संप्रेषित होती सूचनाओं का भंडार मात्र है। इतिहास राजा रानी का किस्सा भर भी नहीं। क्लियोपैट्रा की सुंदरता ने, उसकी ऊंची या नीची नाक ने जुलियस सीजर को मंत्रमुग्ध कर लिया, उसका दिल जीत लिया और इतिहास की दिशा बदल गई” जैसी कहानियों का अब इतिहास में महत्व नहीं रहा। हरमों के किस्से कहानियों, दरबारी साजिशों – षड्यंत्रों, मंत्रणाओं और युद्ध के विवरणों से इतिहास अलग होता है।
इतिहास जो वास्तव में है, इसकी चिंता के केंद्र में समाज और लोग होते हैं। इसके तथ्यों के चयन और विश्लेषण का रूझान वैज्ञानिक होता है।

इतिहास खेल तमाशे का विषय नहीं है। ज्ञान विज्ञान की मुख्य सरिता इससे निकलती है। इतिहास को वैज्ञानिक और सम्यक रूप से जानने समझने की आवश्यकता होती है, क्योंकि इतिहास के दर्पण में हम अपने देश की तमाम तरह की उपलब्धियों और ऊंचाइयों का अक्स निहार सकते हैं। कोई इतिहास अन्तिम नहीं है, इतिहास की व्याख्या हर युग में होती रही है और होती रहेगी। इतिहास के अनेक आयाम हैं। सबके अपने अपने इतिहास हैं। एक तरफ व्यक्ति का इतिहास है, जिसमें उसके अपनी स्वार्थपरता और मतलबपरस्ती है। मन की ग्रंथियां और कुंठाएं हैं। अपने अपने राग- द्वेष हैं और वैमनस्य हैं।

जो मन इतिहास ग्रस्त हो चुके हैं, वे इतिहास को जीवन भर ढोते रहने को अभिशप्त हैं। भारत के इतिहास में किसी ने बाहर से आए लोगों को खोजा, किसी ने वर्ण को तो किसी ने वर्ग को तो किसी ने युद्ध को। किसी ने राजा-रानी को खोजा, किसी ने धर्म को खोजा। लेकिनसामान्य-मनुष्य अथवा लोकजीवन के इतिहास को खोजने की कभी कोशिश नहीं हुई।

मानव सभ्यता में जो कुछ भी अच्छा या बुरा घटित हुआ है, इतिहास उसका रोज़नामचा है। मानव सभ्यता का इतिहास तमाम मानवीय अच्छाईयों के साथ साथ बर्बरता, घृणा और हिंसा की अंतहीन यात्रा का भी इतिहास है। जर्मनी के नाज़ी दौर में यहूदियों को पानी के जहाज़ में भरकर समुद्र में छोड़ दिया गया था, उन्हें वापस लौटने की मनाही थी। यह ‘अभिशप्त’ लोगों की यातनाओं की यात्रा बन गयी थी।

इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है। इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है।

विश्व इतिहास क्रूरता और घृणा की कहानियों से भरा है। सत्ता से ही पुरस्कृत और प्रेरित होने वाले इतिहासकार सत्ता के गीत गाते हैं। उन्हें लोक इतिहास -जनता के इतिहास से कोई मतलब नहीं रहा।

काल के आवर्त्त में दिन समाते चले जाते हैं, घटनाएं विस्मृत होती जाती हैं, और इतिहास विवर्ण हो जाता है। इतिहास के सफों में एक ऐसा दर्द भरा अध्याय होता है जिसमें शासक वर्गों द्वारा आम आदमी के स्वतंत्र अस्तित्व को मिटाने, मानवाधिकार की धज्जियाँ उड़ाने,आम लोगों के जीवन को दर्द से सराबोर करने, और आम आदमी की सिसकती जिंदगी को सलवटों से भर देने की सफल-असफल गहरी साज़िशों का लेखा-जोखा होता है। सोचने की बात है कि शासक-वर्ग अपनी विषैली साँसों से युद्ध और दमन के सिलसिले को कायम रखने में तथा धर्मों और जातियों के बीच नफ़रतों की विषैली लपट उठाने में क्यों सफल हो जाते हैं। शासक वर्ग वोट पाने के लिए सत्य को बार-बार झुठलाते हुए युद्धों के विनाशकारी कुप्रभावों और शहादतों का जिक्र कर, उनके बहते खून का जिक्र कर, आम जनता में आपसी विद्वेष पैदा कर, उन्हें आपस में लड़ाकर राजनीतिक लाभ लेने की पुरजोर कोशिश करते हैं, जैसा कि आज भारत में हो रहा है।

इतिहास के मुख्य आधार युगविशेष और घटनास्थल के वे अवशेष हैं जो किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं। इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जाँच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्व समझने के विवेक के साथ ही साथ ऐतिहासक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है।

लोक इतिहास लिखने की तो अभी तक कोई कोशिश ही नहीं हुई है। इतिहास के नाम पर जो कुछ भी है, वह सत्ता का इतिहास है। उदाहरण के लिए, आर्यों का इतिहास लें। आर्य शब्द कम से कम दो हजार साल पुराना है। लेकिन आज तक कोई ऐसा इतिहासकार नहीं हुआ, जो जाति या प्रजाति के अर्थ में आर्य शब्द का एक भी प्रयोग प्रमाणित रूप से बतला सके।

जहां तक भारत का सवाल है, इतिहास के आरंभिक काल में भारत एक पुरुषार्थी और शक्तिशाली जाति का अतीत था, जो खोज की भावना से और अबाध जिज्ञासा की प्रेरणा से भरपूर थी! इतिहास के आरंभ से ही इसने एक परिपक्व तथा सहिष्णु सभ्यता का परिचय दिया, जीवन और इसके आनंद तथा दायित्व को स्वीकार करते हुए हमने हमेशा आनंद और असीम की ही खोज की, इसने संस्कृत जैसे समृद्ध भाषा की रचना की और इसने अपनी इस भाषा अपनी कलाओं और वस्तु विद्या के द्वारा दूर-दूर के देशों तक अपना जीवनदाई संदेश भेजा! इसने उपनिषदों, गीता और बुद्ध को जन्म दिया!”
(जवाहरलाल नेहरू के भाषण, खंड 1, पृष्ठ 50)

(History is not there for us to like or dislike. It is there for us to learn from it. It’s not there for anyone to erase. It belongs to all of us.)

ब्रिटिश-इतिहासकारों ने कहा कि आर्य बाहर से आये थे, तो इसमें नया क्या है? सत्ता षड्यंत्रकारी और कुचक्री होती है। भेदभाव को स्थायी बनाने के लिये सत्ता इतिहास की ऐसी व्याख्या को प्रोत्साहित करती है,जिससे एक दूसरी जाति से नफरत करे । लोकजीवन की एकता को खंड-खंड करना उसका अभीष्ट होता है। सत्ता को जनता की एकता से डर लगता है, इसके लिये सत्ता जनता को बांटती है, आपस में लड़ाती है।। इस कार्य में मदद करने के लिये वह इतिहासकारों को उपकृत भी करती है। मुगल-दरबार के इतिहासकारों ने मुगलों का जयजयकार किया।

हिटलर के जमाने में नस्ली – निर्णायकवाद का प्रतिपादन करते हुए कहा गया कि मानवजीवन का निर्णायकतत्व नस्ल ही होता है ! यही काम भारत में इतिहास ने किया, कल भी, और आज भी वर्तमान से ध्यान हटाने के लिये आज हम इतिहास में शत्रुताओं को खोज रहे हैं ताकि घृणा-विद्वेष का प्रसार किया जा सके, जातियों को जातियों से और मजहब को मजहब से लड़ाया जा सके। कबीर और तुलसी तक को जाति के आधार पर बांटा गया जिससे कि जातियुद्ध अबाध चलता रहे!!

कोई इतिहास अन्तिम नहीं है, इतिहास की व्याख्या हर युग में होती रही है और होती रहेगी। इतिहासकारों ने इतिहास लिखे हैं , अपने-अपने दृष्टिकोण से लिखे हैं। फिर भी यह सच है कि वह इतिहास हमारी सामूहिक-चेतना में विद्यमान है ! मनुष्य की प्रेरणा भी तो उसी इतिहास में निहित है !

यदि इतिहास हमें बदला लेने के लिए कहता है तो सचमुच वह इतिहास मनुष्य के लिए दुर्भाग्य का हेतु ही सिद्ध होगा ! हाँ , यदि वह समन्वय सिखाता है तो वह अवश्य ही मनुष्य-जीवन को गतिशील बना सकता है ! इतिहास को हम इसलिये पढें, इसलिए रचें, इसलिए उसकी व्याख्या करें कि वर्तमान को शक्ति मिले, भविष्य उज्ज्वल हो, इतिहास में जाकर शत्रुताओं को खोजना, शत्रुताएं सामने खड़ी करना सामाजिक विवेक नहीं कहा जा सकता।

वह इतिहास जो बदला लेने को प्रवृत्त करता है, बदला लेने की भावना जगाता है, वह पैरों की बेड़ी की तरह है, एक बन्धन है। प्रतिशोध का कोई अन्त नहीं।

जनता का इतिहास समायोजन , समन्वय और सामंजस्य का है , समायोजन , समन्वय और सामंजस्य न होता तो भारत को राष्ट्र नहीं कहा जाता। लेकिन आम तौर पर इतिहास में सामान्य जन की भूमिका पर कम ही लिखा गया है, शायद इसलिए कि सामान्य जन को जानने-समझने में इतिहासकारों की दिलचस्पी नहीं रही है। गांधी तो सामान्य जन को जानने समझने और समझाने के लिए सामान्य जन ही हो गए थे।

वर्तमान की ज्वलंत समस्याएं सामने हैं किंतु बुद्धिजीवियों को इतिहास के सवाल प्रिय हैं क्योंकि उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता, बहस बहस खेलने से काम चल जाता है, क्रान्ति का तेवर भी बना रहता है।

इतिहास में बहुत मिलावट है। सबके अपने अपने इतिहास हैं, जो अपने अपने स्वार्थ की छाया में बैठ कर लिखे गये हैं।

वे इतिहासकार ,जो सत्ता से ही पुरस्कृत और प्रेरित होते हैं, सत्ता के गीत गाते हैं, उन्हें जनता के इतिहास का क्या करना है ?

मुगल-दरबार के इतिहासकारों ने मुगलों का जयजयकार किया, उनके अत्याचार पर पर्दा डाल दिया।

ब्रिटिश-इतिहासकारों ने कहा कि आर्य बाहर से आये थे। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार को छिपा दिया।

उन्होंने मजहब के ऐसे पेच डाल दिये कि लडते रहो ! जाति के आधार पर राजनीति करने वाले सत्ता में आये तब उनका जयजयकार करने- वाले इतिहासकारों ने कहा कि यहां तो जाति और वर्ण आपस में लडते-झगडते ही रहे हैं, इसलिए प्रत्येक जाति और वर्ण एक दूसरे से घृणा करते रहें, लडें और बदला लें !

एक इतिहास ने इतना बड़ा झूठ लिख दिया कि सनातन ने उस बुद्ध को जो भारत के लोकजीवन में गहरे रचे बसे हैं, भारत से बाहर कर दिया।

भारत के लोकजीवन की निरन्तरता में भगवान बुद्ध इतने गहरे रसे-बसे हैं कि उनके आगे के समय में ऐसा कोई चिन्तन हुआ ही नहीं ,जिस पर बौद्ध -चिन्तन धारा का कोई प्रभाव न हो ! बौद्धधर्म के ढाई हजार साल के इतिहास में अनेक उतार-चढाव आये थे । महायान, हीनयान वज्रयान, सहजयान बौद्धधर्म के अन्दर से ही निकले उभार थे। बौद्धदर्शन इतना निर्बल नही था कि 10- 20 शास्त्रार्थों से उसकी बुनियाद हिल गयी हो। उसका सर्वोच्च सिद्धान्त > सत्य और अहिंसा < वैष्णव दर्शन में अन्तर्भुक्त हुआ। नाथों और सिद्धों में बुद्ध का सन्देश है।

बुद्ध का सर्वोच्च सिद्धान्त > सत्य और अहिंसा <<महात्मागांधी के सत्याग्रह की पृष्ठभूमि है। यह जीवन का प्रवाह है। परिवर्तन होता रहता है ! विकार भी आते ही हैं। लेकिन सच यह है कि बौद्धदर्शन ने बाद के समस्त दर्शनों को प्रभावित किया है।

History alone is the final arbiter of the moral compass of historic decisions.

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