संजय श्रमण की कविता!

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समय कोई मुर्दा फिसलन नहीं
जो बोतल में बंद रेत की तरह
बस इधर से उधर सरकती है

समय मुर्दा कौमों की ज़िंदा याददाश्त है
हमेशा एक से दूसरी अति पर डोलती हुई

आँख के लिए आँख
और दांत के लिए दांत मांगती हुई
नादानी के लिए साजिश
और साजिशों के लिए पुरस्कार मांगती हुयी

भूख जूनून और जहालत का बदला
किसी कल्पित स्वर्ग में देती हुई
अंधी हवसों को मजहब बनाकर
प्रेम को सूली चढ़ाती हुई

हाँ ये ज़िंदा याददाश्त है
जो मुर्दा ज़हनों पर पलती है
आसमानी किताबों की जिल्दों
और मसीहा के लबादों में छुपकर
अपनी ही कौमों का खून चूसती है

और दफन हुई पथरीली हड्डियों का बदला
मासूमों के ज़िंदा लहू से लेती है …

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