— परिचय दास —
कश्मीर की साँझ जब गुलाबी होती है
तो उसके भीतर भी एक रक्ताभ स्मृति छुपी होती है-
जैसे सूरज ने थककर किसी बेगुनाह की पीठ सहलाई हो
फिर भी, घाटी चुप रहती है
उस चुप्पी में बारूद की बास होती है
और आँखों में तैरती हैं वे यात्राएँ
जो लौट नहीं सकीं।
पर्यटक नहीं मरे-
मरा एक सपना
कि पहाड़ किसी का धर्म नहीं पूछते
मरी एक उम्मीद
कि देवदारों की छाँव सबके लिए होती है
मर गया वह विश्वास
जो कहता था कि सौंदर्य के बीच हिंसा टिक नहीं सकती।
जहाँ शब्द काँपते हों
और जहाँ प्रेम
अपने सबसे छोटे, सबसे असहाय रूप में
हत्या की छाया से लिपटा हो।
वे जो मरे
वे बस लोग नहीं थे
वे वे चिर-परिचित छायाएँ थीं
जो बचपन में पढ़ी कहानियों में आती थीं-
“पहाड़ पर बसे प्रेमी जोड़े”
“झीलों में नाव खेते मुसाफ़िर”
“गर्म चाय में घुलती बर्फ़ की साँसें।”
उनकी जगह अब-
गोलियाँ हैं
शोक है
गूंजता हुआ एक प्रश्न- ‘क्यों?’
यह ‘क्यों’ ही कविता बनता है
यह ‘क्यों’ ही उस प्रतिकार का पहला स्वर है
जिससे सभ्यता बार-बार
अपने भीतर के राक्षसों को परास्त करती है।
प्रेम, यात्रा, सौंदर्य-
ये कोई तफ़रीह नहीं
बल्कि मनुष्य की सबसे पवित्र आकांक्षाएँ हैं
और उन्हें कुचलने वाला—
किसी ईश्वर, किसी विचारधारा, किसी नक़्शे का प्रतिनिधि नहीं हो सकता
वह केवल एक अभिशाप है
जिसे याद रखना
और मिटा देना
दोनों ही ज़रूरी हैं।
हम उन्हें भूलेंगे नहीं-
जो मारे गए
हम उन्हें याद रखेंगे
हर बार जब कोई बच्चा कहेगा-
“मैं कश्मीर जाना चाहता हूँ।”
हम उन्हें हर बर्फ़ के कण में पढ़ेंगे
हर झील की थरथराहट में
और हर दुआ में
जहाँ मनुष्य से बड़ा कोई धर्म नहीं होगा।
कविता वहाँ फिर जन्मेगी-
जहाँ भय मरा होगा
और हम तब तक लिखते रहेंगे-
जब तक पंक्तियों से तेज़ कोई शांति न बन जाए।