— परिचय दास —
पिघलती हिम की चुप्पियों में गोलियों की गूंज जब उतरती है तो घाटी की घाटियों में बर्फ नहीं, लहू जम जाता है और उस लहू में बहता है वह प्रश्न, जिसे कोई पूछता नहीं—कि आखिर किस ईश्वर के नाम पर यह बलि ली गई? कौन-सा पक्ष है यह, जिसमें पर्यटक की हत्या को धर्म की रक्षा कहा गया?
पहलगाम की वादियों में घटित यह ताज़ा हिंसा उस लंबे और स्याह इतिहास की कड़ी है, जिसमें कश्मीर केवल एक भूगोल नहीं रहा, एक त्रासद अनुभूति बन चुका है। जो आया, मारा गया। जो रुका, डराया गया और जो जिया, वह केवल सहमकर। हालिया हत्याकांड में निर्दोष पर्यटकों को केवल इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे ‘दूसरे’ धर्म से थे—यह हमारे गणतंत्र के लिए नहीं बल्कि हमारी सभ्यता के लिए भी गहरे शर्म की बात है।
इस तरह की हत्या केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं होती, यह मनुष्यता की हत्या होती है और यह मनुष्यता जब किसी सुंदर, शांत, पहाड़ी प्रदेश में मारी जाती है तो उसकी गूंज समंदर तक जाती है। यह घटना केवल एक खबर नहीं है; यह उस भयावहता की पुनरावृत्ति है, जिसमें निर्दोष नागरिकों की जान लेना एक ‘राजनीतिक’ संदेश बन गया है।
तथ्य यह बताते हैं कि यह पहली बार नहीं है। अमरनाथ यात्रियों पर हुए सिलसिलेवार हमलों की स्मृति अभी भी ताज़ा है। 2000, 2001, 2002 और फिर 2017। एक ही पैटर्न, एक ही उद्देश्य—धर्म के नाम पर डर और नफरत फैलाना। और यह सब उस ज़मीन पर हो रहा है जिसे संतों, सूफियों और संत कवियों की भूमि माना जाता रहा है। जहां कभी हज़रत बल की अज़ान और शिवालय की घंटियाँ एक साथ बजती थीं। वह घाटी आज धार्मिक कट्टरता के नए नक़्शे पर खून से रंग दी गई है।
जो आतंकी संगठन इस हमले की जिम्मेदारी लेते हैं, वे अपने लिए कोई धर्म नहीं चुनते बल्कि धर्म के नाम पर लोगों को बाँटते हैं। धर्म की आड़ में वे राजनीति करते हैं और राजनीति की आड़ में हत्या। यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक धर्म और राजनीति के बीच की लक्ष्मण रेखा को धुँधला कर दिया जाता रहेगा।
यह एक दुःखद विरोधाभास है कि हमारे देश में जहाँ ‘अतिथि देवो भव’ का आदर्श है, वहाँ पर्यटकों को ही देवता की तरह नहीं, शिकार की तरह देखा जाने लगा है। पहलगाम में मारे गए वे लोग केवल पर्यटक नहीं थे, वे कश्मीर को देखने आए वे सपने थे जो अब लहूलुहान होकर लौटे हैं।
हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ ‘विविधता’ एक कविता नहीं रही, वह राजनीति का डरावना मुहावरा बन चुकी है। देश के हर कोने में जब हम विविधता को दुश्मन समझने लगते हैं तो कश्मीर उसका पहला शिकार बनता है। क्योंकि कश्मीर भारत की विविधता की सबसे सुंदर तस्वीर है और जब तस्वीरें डराने लगें तो समाज को आईना दिखाने का साहस भी खत्म हो जाता है।
इस घटना का एक और पहलू वह अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया है, जिसे हम शायद जल्द भूल जाते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने इस हत्याकांड की निंदा की परंतु यह निंदा अब केवल एक रूटीन बन चुकी है। हर आतंकी हमले के बाद ट्वीट्स आते हैं, संवेदनाएँ आती हैं, फिर चुप्पी आती है। क्या हम इस चुप्पी के आदी होते जा रहे हैं? क्या हमने यह मान लिया है कि कश्मीर में कभी स्थायी शांति संभव नहीं?
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा। हमें देखना होगा कि हमारी मीडिया, हमारा राजनीतिक विमर्श और हमारा नागरिक समाज इस हिंसा पर कैसे प्रतिक्रिया करता है। हमें हिंसा का प्रतिरोध करना होगा—चाहे वह किसी बहुसंख्यक की हो या किसी अल्पसंख्यक की।
जो हुआ, उसे केवल सुरक्षा विफलता कह कर भुला देना भी अनुचित होगा। यह हमारी नैतिक विफलता भी है। जब हम डर को सामान्य बना देते हैं जब हम घृणा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहते हैं, तब हम उसी विचारधारा के पास खड़े हो जाते हैं, जिसने पहलगाम के पहाड़ों पर लहू बहाया।
आज आवश्यकता है एक गहरे सांस्कृतिक पुनरवलोकन की। क्या हम कश्मीर को केवल एक ‘रणनीतिक संपत्ति’ मानते हैं या उसे एक जीवंत सभ्यता के रूप में देखना चाहते हैं? क्या हम संवाद, भरोसा और साझेदारी चाहते हैं ?
हमें यह भी देखना होगा कि कश्मीर की नई पीढ़ी किन परिस्थितियों में पल रही है। जो पर्यटक मारे गए, वे केवल लोग नहीं थे—वे कश्मीर के प्रति हमारी सामूहिक आशाओं के दूत थे और अब जब वे लौटे नहीं तो क्या हम फिर कभी कह पाएँगे—”घाटी बुला रही है”?
आज पहलगाम रो रहा है। लिद्दर नदी की लहरों में करुणा का संगीत नहीं है, एक अजीब सिहरन है। देवदार के पेड़ों ने लहू देखा है। बर्फ के नीचे अब फूल नहीं, अस्थियाँ दबी हैं।
और ऐसे में हम किस ईश्वर से प्रार्थना करें? क्या वह ईश्वर जो धर्म के नाम पर हथियार उठाने वालों का है या वह ईश्वर, जो हर इंसान में बसता है—उस मासूम पर्यटक में, उस किशोरी में जो अपनी माँ के साथ आई थी, उस बुज़ुर्ग में जो घाटी के सौंदर्य से विदा लेने आया था?
हमें धर्म की पुनः व्याख्या करनी होगी। धर्म वह नहीं है जो हमें बांटे—वह तो डर है। धर्म वह है जो हमें जोड़े—वह प्रेम है और प्रेम के विरुद्ध जो भी हिंसा होती है वह ईश्वर के विरुद्ध अपराध होती है।
इस हत्याकांड के बाद आवश्यक है कि हम केवल दोषी आतंकियों को न खोजें बल्कि यह भी खोजें कि हमारी व्यवस्था में कौन-सी दरारें हैं। जब तक इन दरारों को भरा नहीं जाएगा तब तक कोई भी उपाय अस्थायी होगा।
कश्मीर को फिर से कश्मीर बनने दो। वह धूप जो डल झील पर उतरती थी, वह कश्ती जिसमें हँसी गूंजती थी, वह शांति जो नमाज और आरती दोनों में दिखती थी—उसे मत मारो। धर्म की आड़ में मनुष्यता को मत कुचलो। और यदि संभव हो, तो लिद्दर के जल से फिर एक बार उस घाटी को धो दो, जहाँ अब केवल अश्रु बहते हैं।
कश्मीर में जिन हाथों में किताब होनी चाहिए थी, वे हाथ बारूद उठाए फिरते हैं; जिन आँखों में भविष्य की रोशनी होनी चाहिए, वे अब अंधे स्वर्ग के वादों में झुलसी हैं। आतंकियों के लिए कोई तर्क नहीं हो सकता, कोई पक्ष नहीं हो सकता—केवल और केवल निषेध होना चाहिए।
वे जो धर्म की ओट में गोली चलाते हैं, वे धर्म के नहीं, अधर्म के प्रतिनिधि हैं। वे इस्लाम की छाया में लुकते हैं लेकिन न इस्लाम उन्हें स्वीकार करता है, न कोई और धर्म। कुरआन की पहली आयत कहती है—”रहमतुल् लिल् आलमीन”, यानी सारी दुनिया के लिए रहमत। और ये हत्यारे उस रहमत को शाप में बदल देना चाहते हैं। इन्हें कोई माफ़ी नहीं—न ज़मीन पर, न इतिहास में।
जब वे पर्यटकों को मारते हैं, वे केवल मानव नहीं मारते—वे भारत के हृदय को घायल करते हैं। जो लोग सात समंदर पार से कश्मीर की वादियों में सौंदर्य खोजने आते हैं, उनका लहू अगर देवदारों के नीचे बहा दिया जाए तो वह कश्मीर नहीं रहता—वह एक युद्धभूमि में बदल जाता है। आतंकियों की यह हरकत भारत की अस्मिता पर सीधा आघात है।
हम उन्हें केवल उग्रवादी न कहें। वे किसी भी उदारवाद, किसी भी मानवतावाद, किसी भी संस्कृति के विरोधी हैं। उनका अस्तित्व ही इस बात पर टिका है कि लोग डरे रहें, बंटे रहें और किसी भी तरह संवाद न करें लेकिन हमें वही करना है जो उन्हें असहनीय हो—हम एकजुट रहें, हम शांति से उत्तर दें, हम कश्मीर को फिर से जीने लायक बनाएं।
इनको धर्म, न्याय या प्रतिरोध कहकर महिमामंडित करने वाले लोग भी उतने ही दोषी हैं। ये लोग आतंक को वैचारिक हवा देते हैं।
जो संगठन इन आतंकियों को पैसा, प्रशिक्षण और रणनीति देते हैं, उन्हें वैश्विक अपराधी घोषित किया जाना चाहिए। पाकिस्तान हो या कोई और देश—अगर वह छाया युद्ध में शामिल है, तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग कर देना चाहिए। आतंकवाद कोई घरेलू मुद्दा नहीं रहा—यह एक वैश्विक महामारी है।
हमारी सरकार, हमारी सेना और हमारी एजेंसियों को इससे भी ज़्यादा सतर्क, जवाबदेह और मानवीय होना पड़ेगा। केवल बंदूक से आतंक का जवाब नहीं दिया जा सकता—हमें वह कश्मीर चाहिए जहाँ बच्चे स्कूल जाएँ, न कि जिहादी प्रशिक्षण शिविरों में। इन आतंकियों के लिए केवल एक भाषा उपयुक्त है—न्याय की, दृढ़ता की और स्मृति की। हमें इन्हें हर बार याद रखना होगा—नफ़रत जब भी उठेगी, हम उससे ऊँचा प्रेम खड़ा करेंगे; हिंसा जब भी आएगी, हम उससे कठोर विवेक खड़ा करेंगे; और हर आतंकी गोली के विरुद्ध, हम एक वाक्य लिखेंगे—”मनुष्य सबसे पहले होता है, धर्म बाद में आता है।”
कश्मीर की घाटी, जहाँ कभी संतों ने ध्यान साधा था, आज उस शांति की साँसें रुकी हुई हैं। पहाड़ चुप हैं, झीलें संज्ञाशून्य और देवदारों की शाखाएँ शोक में झुकी हुईं। वहाँ पर्यटक नहीं, अब भय चलता है; और भय से बड़ा कोई आतंकी नहीं।
हमने घाटी को एक तस्वीर की तरह चाहा—सौंदर्य से भरी, स्वागत में मुस्कुराती हुई लेकिन अब वह तस्वीर धुंधलाई है, उस पर खून के छींटे हैं और आँखों में आँसू की पपड़ियाँ। इस त्रासदी का कोई एक उत्तर नहीं—केवल एक दीर्घ संग्राम है, जो विवेक, सह-अस्तित्व और कठोर न्याय से लड़ा जाएगा।
कश्मीर फिर कविता बनेगा—लेकिन पहले, उसे ख़ामोशी से निकलकर चीख़ में बदलना होगा। न्याय की, मनुष्यता की और उस प्रेम की चीख़—जो किसी भी धर्म से बड़ा है।
बस इतना याद रहे—
धरती किसी एक की नहीं होती,
लेकिन खून बहाने का हक़ किसी को भी नहीं।