खेत
हरे-भरे खेत
और खलिहान
फिर से लगते हैं लहलहाने
बाढ़ और अकाल के बाद,
चंद दिनों की तबाही इन्हें
बंजर नहीं बना पाती,
ये उगाते हैं
पहले झाड-झंखार और घास
और फिर जल्द ही
ज्वार-बाजरों के साथ.
बैलों के खुरों को हर दिन
अपनी छाती से लगाते हैं
को अपने सीने में धन्साते हैं
रौंदकर खुद को ही
हर साल ये फसलें उगाते हैं,
चंद दिनों की तबाही इन्हें
बंजर नहीं बना पाती.
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