— राजीव रंजन दास —
1942 के अगस्त क्रांति का एक मजबूत किरदार जिसे अंग्रेजी हुकूमत की गोलियां छू कर निकल गयी मगर आज़ाद भारत मे कांग्रेसी हुकूमत की लाठियों से मौत मिली । सूरज बाबू का जन्म 17 मई 1907 में मधुबनी जिले के नरपति नगर गॉंव के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था । इन्हें पढ़ाई के लिए काशी विद्यापीठ भेजा गया था ।मात्र 16 वर्ष की आयु में ही महात्मा गांधी की पुकार पर असहयोग आंदोलन में कूद पड़े । भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी ने नौजवान सूरज नारायण के कलेजे में आग लगा दी और सूरज पढ़ाई लिखाई छोड़ ,खुल कर आज़ादी के जंग में कूद पड़े । जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो सूरज नारायण सिंह भी एक महत्त्वपूर्ण संस्थापक सदस्य के रूप में उभर कर सामने आए और आज़ादी के आंदोलन में जेल आना जाना चलता रहा । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब अंग्रेजों ने भारतीय जनता को सेना में शामिल करने का अभियान चलाया तो उस समय सूरज बाबू ने बड़ी बुलंदी से इस अभियान की खिलाफत की और अंग्रेजों ने सूरज बाबू को गिरफ्तार कर ,जयप्रकाश नारायण के साथ हजारीबाग जेल में डाल दिया , यहां भी सूरज बाबू ने जेल की कुव्यवस्था पर 21 दिनों तक धरना जारी रखा ।
अगस्त क्रांति शुरू हो चुकी थी ।महात्मा गांधी के “करो या मरो “और “अंग्रेजों भारत छोड़ो ” की आग में देश के नौजवानों के खून खौलने लगा ।भारत के कोने कोने से विद्रोह के मुखर स्वर निकलने लगे ।बिहार में तो कुछ ज्यादा ही उन्माद था ।कई जगहों पर लोगों ने अपने हाथ मे इलाके की बागडोर सम्हाल ली थी।अंग्रेजों की तख्त हिलती दिखने लगी।आंदोलन को तेज करने के लिये हजारीबाग जेल तोड़ कर भागने की योजना बनने लगी और 9 नवम्बर दीवाली की रात ,पैर के दर्द से परेशान जयप्रकाश नारायण को अपने कंधे पर बैठा कर सूरज नारायण सिंह ,योगेंद्र शुक्ल ,रामनंदन मिश्र ,गुलेरी सुनार (गुलाब चंद गुप्त )और शालिग्राम सिंन्ह के साथ जेल की दीवार फांद कर ,दूसरी तरफ़ निकल गए और उधर जेल में श्री राम बृक्ष बेनीपुरी अपने सहयोगियों के साथ जेल में “दीवाली आयी रे सजनी ” से समा बांधते रहे ,अंग्रेजी हुकूमत रात भर अनजान रही कि उनके पिंजड़े को तोड़ कर कितने दीवाने परिंदे खुले आसमान के नीचे काली अंधेरी रात में जंगल मे भाग रहे हैं ।
इतनी कुशल योजना बनी थी कि घटना के 9 घण्टे बीतने के बाद ही अंग्रेजी हुकूमत को जेल तोड़ने की भनक लगी ,तब तक तो यह समूह दो दिशाओं में निकल चुका था । जेल से पलायन की इस खबर ने तो आंदोलन में एक नई ज्वाला और उमंग पैदा कर दी ।हजारीबाग से भागने के बाद, मार्च 43 में , कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के एक शिविर का आयोजन बिहार के कोसी के इलाके में जो नेपाल के बगल में पड़ता था ,उस “बनरझुला “नामक जगह पर सम्मेलन का आयोजन किया गया ।इस सम्मेलन में चुनिंदा साथियों के साथ ,आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिये ,हथियार बन्द दस्ते शुरू करने का विचार उठा और वहीं पर जयप्रकाश जी ने “आज़ाद दस्ता” की बिहार इकाई का गठन किया और सूरज बाबू इस आज़ाद दस्ते का नेतृत्व सम्हालने को तैयार होगये और तुरन्त में ही वहीं के जंगलों में ,”बाबू श्याम सुंदर प्रसाद “के संयोजक काल मे प्रशिक्षण शिविर की शुरुआत कर दी गयी ।इन्हें प्रशिक्षित करने की जवाबदेही “सरदार नित्यानन्द “को दी गयी जो खुद भी आज़ाद हिंद फौज में काम कर चुके थे ।
तब तक इलाके में आवाज उठा चुकी थी कि यहां “सुराजी “जुट चुके हैं और हथियार चलाने का प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। ब्रितानी हुकूमत के दबाव में नेपाल राज ने इलाके की घेराबंदी करके छापा मारा और जयप्रकाश नारायण ,डॉ राम मनोहर लोहिया ,रामबृक्ष बेनीपुरी ,बाबू श्याम नन्दन और कार्तिक सिंन्ह को गिरफ्तार करके हनुमान नगर जेल में डाल दिया और इन्हें अंग्रजों को सौंपने की तैयारी तो थी ही । जब इन्हें गिरफ्तारी के बाद घेर कर ,बैलगाड़ियों से हनुमान नगर की तरफ ले जाया जा रहा था तब जयप्रकाश नारायण ने सिगरेट के पैकेट के कागज पर “हम पकड़े गए ,छुड़ाने की तैयारी हो ”
तुम्हारा सेठ जी ।”
सूरज बाबू के लिये गुप्त रूप से यह संदेश भेजने में सफल होगये । सूरज बाबू “सेठ जी “की बात समझ गए (सेठ जी पर एक अलग ही कहानी ही है )और एक शाम पूरी तैयारी के साथ ,करीब 50 लोगों की एक मंडली बना कर ,शाम से ही हनुमान नगर जेल के पास संगीत का कार्यक्रम करने लगे ,नेपाल में तो वैसे ही मदिरा का चलन कुछ ज्यादा ही रहता है , जेल के सिपाही भी मदिरा के साथ संगीत कार्यक्रम का रस लेने लगे और फिर अंधेरा होते ही ,इन्हीं सिपाहियों को कब्जे में लेकर ,जेल की चाभी लेकर ताला खोल कर ,सूरज बाबू ,योगेंद्र शुक्ल ,ठाकुर रामानन्द सिंह अपने हथियारबंद साथियों के साथ भाग निकले , दोनो तरफ से गोलियां भी चली ,मगर यह आज़ादी के दीवाने अपने अभियान में सफल रहे ।गोलीबारी के क्रम में ही बेनीपुरी जी ने शुक्ल जी को मजाक में कहा भी कि “कहे न थे कि अभी तुरन्त मत भागो “मगर भागे भी और पकड़ा भी गए ,6 महीना भी तो नहीं न हुआ ?अब फिर भागा दौड़ी ।
क्या इन दीवानों का जज्बा था कि गोलीबारी के बीच मे भी हंसी मजाक चल रहा था । रात भर भागने के बाद सुबह में एक बारात जाती हुई दिखी । शुक्ल जी की पिस्तौल देख कर ही बारात के लोग और दूल्हा भी घोड़ा छोड़ कर भाग निकला ।
रात में भागने के क्रम में लोहिया जी का चश्मा गिर गया था सो उन्हें देखने मे कुछ दिक्कत होती रही थी और शुक्ल जी को ही इन्हें पकड़ कर दौड़ना पड़ रहा था , उन्होंने जयप्रकाश नारायण और बेनीपुरी जी को कहा कि “हम सब तो घोड़े पर बैठ ही चुके हैं मगर राम मनोहर जी अभी तक घोड़े पर नहीं बैठे है ” ,शुक्ल जी के इशारे को समझ कर डॉ लोहिया को ही दूल्हे के पगड़ी बांध कर घोड़े पर बैठा कर सब हिंदुस्तान के इलाके में प्रवेश कर गए (लोहिया जी के अलावे सब शादी शुदा थे )। मार्च 43 के महीने से शुरू इस हथियार बन्द दस्ते के प्रशिक्षण का प्रायोगिक भी मई 43 के अंतिम सप्ताह में इस अनोखे सफल “हनुमान नगर जेल से पलायन “पर समाप्त हुआ ।
यह पहली घटना थी कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में नेपाल के नागरिकों ने भी भारतीय सेनानियों के लिए ,नेपाली सेना पर गोलियां चलाई । नेपाल ने भी बड़ी कार्रवाई करते हुए अपने यहां गिरफ्तारियां की और विद्रोही धारा लगा कर लोगों पर मुकदमा चलाया और दो व्यक्तियों को फांसी की भी सजा सुनाई । 25 मई 2018 को ,काठमांडू में ,भारतीय राजदूत के समक्ष ही ,”हनुमान नगर जेल कांड “के हीरक जयंती पर ,’राज बिराज ‘में एक सम्मान समारोह का भी आयोजन किया ।
आज़ाद दस्ते के इस सफल अभियान से सूरज बाबू और शुक्ल जी अंग्रेजों की नज़र में कुछ ज्यादा ही चढ़ गए ,वैसे तो शुक्ल जी पर तो पहले से ही काला पानी की सजा का और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने का ठप्पा लगा ही हुआ था ।बार बार अंग्रेजी हुकूमत के साथ गोलाबारी करते हुए भाग कर निकल जाना तो योगेंद्र शुक्ल जी के लिये एक खेल बन चुका था ।
देश के आज़ाद होने के बाद सूरज बाबू भी कांग्रेस की जगह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में ही रहने का फैसला किया । कई बार बिहार विधान सभा (62,69 और 72)के सदस्य भी निर्वाचित हुए ।आज़ादी के बाद भी सूरज बाबू का तेवर बरकरार ही रहा ।विधानसभा में भी सूरज बाबू के प्रश्नों को सत्ता धारी दल को झेलने में परेशानी ही होती रही । अप्रैल 1973 , रांची में ‘उषा मार्टिन ‘में प्रबंधक और मजदूरों के बीच हंगामे सुर फिर मिल के गेट पर ही हड़ताल । सूरज बाबू भी श्रमिकों के पक्ष में जमशेदपुर पहुंच गए ,इनके सामने ही 14 अप्रैल को पुलिस ने मजदूरों पर लाठी चार्ज कर दिया ,सूरज बाबू मजदूरों को बचाने के लिए बीच मे ही कूद गए और लाठी चार्ज में बुरी तरह घायल हो गए और 21 अप्रैल को घायल सूरज बाबू ने प्राण त्याग दिए ।
जयप्रकाश नारायण इनकी लाश पर फूट फूट कर रोये “मेरा एक अंग चला गया “। जिसे अंग्रेजों की गोली छू भी न सकी ,वह अपने ही सिपाहियों की लाठी से मारा गया ? सूरज बाबू की मौत से बिहार में कांग्रेसी राज के प्रति नफरत फैलने लगी ।अंततः कांग्रेस को श्री केदार पांडे की जगह गफूर साहब को मुख्यमंत्री की गद्दी देनी पड़ी।
श्री अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री थे ,संविधान के हिसाब से इन्हें 6 महीने के अंदर ही विधान मंडल का सदस्य होना था तो गफूर साहब ने सूरज बाबू की ही खाली सीट पर से चुनाव लड़ने का फैसला लिया ।सम्पूर्ण विपक्ष ने गफूर साहब के खिलाफ शहीद सूरज नारायण सिंह जी की पत्नी को उम्मीदवार के रूप में उतार दिया ।जैसा की उस समय होता था ,वयापक स्तर पर बूथ लूट से लेकर जितने तरह के गलत हथकंडे अपनाया जा सकता था ,वह अपनाया गया और गफूर साहब चुनाव जीते ।सुलगते हुए बिहार में इस धांधली भरे उपचुनाव ने एक और जलती लकड़ी का काम किया ।अलग अलग विश्विद्यालय में वैसे ही छात्र अपनी अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरना शुरू कर ही चुके थे । क्या कभी ने सोचा भी होगा कि , किसी क्रांतिकारी ,आज़ादी की लड़ाई के अग्रिम पंक्ति के सेनानी को आज़ाद भारत मे इस तरह की मौत मिलेगी ? 1989 में एक दिन सुबह में एक मित्र ने दिल्ली से फोन किया कि ,मधु दंडवते जी मुजफ्फरपुर के लिये ,वैशाली एक्सप्रेस से चल चुके हैं और मुझे उन्हें लेकर आदरणीय सूरज नारायण सिंह जी की मूर्ति के अनावरण के लिये ,सूरज बाबू के गाँव नरपति नगर लेकर जाना है ।
मैं मधु दंडवते जी को लेकर जब पहुंचा तो अंधेरा हो चुका था ।वहां एक बत्ती तक नहीं जल रही थी । आनन फानन में कुछ पेट्रोमैक्स ,लालटेन और रौशनी का इंतज़ाम किया गया और मधु जी ने बड़े ही दुखी मन से मूर्ति का अनावरण किया । गाड़ी में बैठने के बाद दंडवते जी ने आयोजकों से ,कुव्यवस्था पर नाराजगी भी जाहिर कर दी ।
सूरज बाबू जैसे व्यक्ति की मूर्ति के अनावरण से सरकारी महकमा दूर ही रहा ,यहां तक कि एक सांसद जो खुद भी पूर्व केंद्रीय मंत्री भी थे ,उनके लिये भी सामान्य प्रोटोकॉल का पालन तक नहीं किया गया था ।सूरज बाबू के गाँव में भी स्थानीय प्रशासन का कोई अता पता नहीं था ।
बड़े अफसोस कि बात है कि 9 अगस्त 2017 को हमारी संसद की संयुक्त बैठक में “अगस्त क्रांति “की हीरक जयंती मनाई गई ।नेपाल ने हनुमान नगर याद रखा और (2018)में हीरक जयंती मनाई मगर भारत और बिहार हनुमान नगर को भूल गया ?पता नहीं कितने इस लोहमर्ष घटना को जानते भी होंगे?