— शुभनीत कौशिक —
भारत में जिन वैज्ञानिकों ने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने और जनता के बीच वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने में प्रमुख भूमिका निभाई, उनमें जयंत नार्लीकर का नाम अग्रणी रहेगा। कैंब्रिज के दिनों में ही विज्ञान में लोकप्रिय लेखन करने का काम उन्होंने शुरू किया। इसकी प्रेरणा उन्हें अपने गुरु फ़्रेड हॉयले से मिली जो खुद भी लोकप्रिय विज्ञान लेखन के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बन चुके थे।
1963 में जयंत नार्लीकर ने ‘डिस्कवरी’ पत्रिका के लिए ‘ग्रेविटेशनल कोलेप्स’ शीर्षक से एक लेख लिखा और यहीं से उनके लोकप्रिय विज्ञान लेखन की विधिवत शुरुआत हुई। डिस्कवरी पत्रिका के अलावा उन्होंने लंदन से छपने वाली पत्रिका द न्यू साइंटिस्ट में भी लेख लिखे। भारत आने के बाद उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका ‘साइंस टुडे’ में लेख लिखे, जो तब सुरेंद्र झा द्वारा संपादित की जाती थी।
जयंत नार्लीकर का मानना था कि भारत जैसे देश में विज्ञान लेखन की बहुत जरूरत है क्योंकि आम लोग विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते हैं, वे जानना चाहते हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संसार में क्या कुछ नया घटित हो रहा है। असली चुनौती यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दुनिया में हो रहे नए बदलावों को ऐसी भाषा में कहा जाए जो आम लोगों के दिलो-दिमाग़ में दिलचस्पी तो जगाए ही, उन्हें नई-नई जानकारियां भी दें।
इसके लिए जरूरी है कि जहाँ तक संभव हो सके हम विज्ञान की भारी-भरकम तकनीकी शब्दावली से परहेज करें और सहज भाषा में लोगों तक विज्ञान से जुड़ी जानकारी को पहुंचाएं। इसलिए जन-भाषाओं का इस्तेमाल भी जरूरी हो जाता है। इसी क्रम में स्वयं जयंत नार्लीकर ने अंग्रेजी के साथ मराठी और हिंदी में विज्ञान लेखन का काम किया। सत्तर के दशक में उन्होंने विज्ञान कथा लेखन की शुरुआत भी की। वे इस दिशा में मुंबई स्थित मराठी विज्ञान परिषद जैसी संस्थाओं द्वारा किए जा रहे प्रयासों की भी सराहना करते थे।
1973 में जब मराठी विज्ञान परिषद ने उन्हें अपना अध्यक्ष बनाया तो जालना में हुए उसके वार्षिक अधिवेशन को उन्होंने मराठी में संबोधित किया। इसी प्रकार 1981 में गोरखपुर में एस्टॉनोमिकल सोसायटी आफ इंडिया के अधिवेशन में अपना अध्यक्षीय भाषण श्रोताओं के समूह को देखते हुए उन्होंने हिंदी में दिया। वे लिखते हैं कि जैसे ही उन्होंने अपनी भाषण की शुरुआत ‘देवियों और सज्जनों’ कहते हुए की, पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
इसी क्रम में विज्ञान प्रसार के लिए वे आकाशवाणी के कार्यक्रमों में भी शिरकत करते रहे। अस्सी के दशक में जब दूरदर्शन पर कार्ल सगान के बहुचर्चित कार्यक्रम ‘कॉसमॉस’ के प्रसारण की योजना बनी। तो उन्होंने दूरदर्शन के अनुरोध पर इसके सभी एपिसोड के लिए हिंदी में सारांश तैयार किया जो हर एपिसोड की शुरूआत से पहले प्रसारित होता था। फिल्म डिवीजन के साथ मिलकर उन्होंने ‘ब्रह्मांड’ नामक एक 17 एपिसोड वाला कार्यक्रम बनाया जो काफी लोकप्रिय हुआ। यही नहीं चिल्ड्रंस फिल्म सोसाइटी ने उनकी कहानी ‘धूमकेतु’ पर एक फिल्म भी बनाई।
इसी प्रकार जब वे 1988 में पुणे स्थित इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्टॉनोमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स के संस्थापक निदेशक बने तो वहां भी उन्होंने विज्ञान प्रसार के कार्यक्रम को जोर देकर लागू किया। विज्ञान प्रसार के लिए उन्होंने वहां पाक्षिक रूप से बच्चों के लिए वैज्ञानिक विषयों पर व्याख्यानमाला आयोजित की। सेंटर के वैज्ञानिकों द्वारा दिए जाने वाले ये व्याख्यान मराठी या हिंदी में होते थे और इसमें स्कूली बच्चे शिरकत करते थे।
खगोलविज्ञान में शौकिया रुचि रखने वाले लोगों के लिए उन्होंने कार्यशालाएं भी आयोजित की। प्रख्यात मराठी लेखक पु.ल. देशपांडे के निधन के बाद उनकी पत्नी सुनीता देशपांडे द्वारा दी गई दान राशि के जरिए उन्होंने सेंटर में मुक्तांगन विज्ञान शोधिका स्थापित की, जो बच्चों के लिए विज्ञान केंद्र के रूप में काम करती है। जयंत नार्लीकर का काम आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।