— हिमांशु जोशी —
नवीन जोशी का उपन्यास ‘भूतगांव’ एक पहाड़ी गांव के बहाने पूरे उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन की त्रासदी है। यह न केवल पलायन की कथा कहता है, बल्कि जातिगत दंश, स्त्री-जीवन की विडंबनाओं और बदलते मूल्यों की भी गहरी पड़ताल करता है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास का आवरण चित्र अनूप चंद ने एक ऐसे अंदाज़ में बनाया है, जो नाम के साथ ही इसके विषय की शिनाख्त करता है। कहानी की शुरुआत होती है ‘लच्छु कोठारी की संतानों का पुनर्जन्म’ से, जहाँ एक रिटायर्ड फौजी और उसका कुत्ता गांव के खालीपन और मृतप्रायः संस्कृति की प्रतीकात्मक तस्वीर बनाते हैं। यह अकेलापन इतना तीव्र है कि संवाद के लिए अब गांव में केवल कुत्ते रह गए हैं।
फौजी का कथन “इन धुर-जंगलों को पता चलना चाहिए कि अभी हमारा गाँव ज़िंदा है। एक फौजी अभी हारा नहीं है।”, उपन्यास के भीतर लेखक की कलम की भूमिका को साफ कर देता है। उपन्यास, मात्र कथा नहीं, सामाजिक दस्तावेज़ है।
भाषा और संवाद: पहाड़ी जमीन की सच्ची गंध
जोशी की भाषा बेहद सहज और पहाड़ी बोली-बानी से सराबोर है। यह शैली ‘पहाड़ की बोली में दुनिया देखने’ की क्षमता देती है। संवादों में गहराई और कटाक्ष दोनों हैं , “जब पड़ता है बाघ के हाथ। तेरा बाप, तेरी महतारी, तेरे भाई-बहन कहाँ गए, कुछ पता है?”
ऐसे वाक्य ग्रामीण चेतना की हकीकत को एक साक्षात्कार बना देते हैं।
‘असली सूबेदारनी’ का जिक्र और कुत्ते से बात करते हुए नायक का कहना , “मगर गांव में होती तो सुनती। कबके चले गए ठहरे गाँव छोड़कर।”, पाठक को भीतर तक चीर जाता है। यह केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विस्थापन की मार्मिक अभिव्यक्ति है।
पलायन का विडंबनापूर्ण दस्तावेज
उपन्यास में पलायन को केवल शहरी मजबूरी नहीं, बल्कि सामाजिक बर्बादी के रूप में दिखाया गया है। जब फौजी कहता है , “और अब तो सड़क भी आ रही सुना, अब आने जाने वाला कोई नहीं बचा। क्या लेने आ रही होगी अब वो सड़क?”, तो यह विकास पर कटाक्ष नहीं, उसके खोखलेपन की घोषणा है।
1963 में पहाड़ छोड़ चुके युवाओं की पीढ़ी आज शहरों में अपनी जड़ों से कट चुकी है , यह हकीकत भी उपन्यास के पन्नों में दर्ज है।
जातिवाद और स्त्री जीवन की त्रासदी
हीरा, चुन्नी, और सूबेदारनी जैसे स्त्री-पात्र जाति, लिंग और वर्ग की तिहरी यातना झेलते हैं। हीरा के लिए लिखा गया यह वाक्य , “वह स्वयं जानती थी कि जन्म से ही ‘शिल्पकार’ का जो ठप्पा उसके अस्तित्व पर लगा हुआ है, उसे मृत्यु भी मिटा नहीं सकती।” आज के भारत में जातिव्यवस्था की अमरता का कटु सत्य है।
चुन्नी के द्वारा ‘कटड़े’ को पालने और उसका सामाजिक विरोध झेलने की कथा स्त्री स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है, जो सामाजिक परंपराओं को चुनौती देती है। नवीन जोशी इस संघर्ष को बिना अतिनाटकीयता के प्रस्तुत करते हैं, जिससे पात्र असली लगते हैं।
शिल्पगत प्रयोग: कहानी से उपन्यास तक की यात्रा
‘भूतगांव’ में अलग-अलग कहानियों को एक अंत में जोड़ने का जो ढांचा है, वह इसे कहानी-संग्रह और उपन्यास के बीच की विधा बनाता है। यह संयोजन ‘थीमेटिक उपन्यास’ का उदाहरण है, जहाँ हर अध्याय एक स्वतंत्र कथा की तरह है, लेकिन अंततः सब मिलकर एक सामाजिक दुनिया का निर्माण करते हैं। यह वही है, जहां हम सब रहते हैं।
प्रवासी मन, भूगोल और पहाड़ की सुंदरता
लेखक ने प्रवासियों के भीतर बसे पहाड़ को बखूबी उकेरा है , “गर्मियों में जब लू के थपेड़ों के बीच साइकिल चलानी पड़ती थी… उसे पहाड़ बेतरह याद आने लगता था।”
पर्यटकों के ‘स्नो फॉल’ के प्रति मोह और उसके पीछे छिपे गांव के संघर्ष पर लेखक तंज कसते हैं , “शहर के लोग स्नो फॉल देखने जाते हैं। मगर बाबू, यहां रह के देखो स्नो फॉल में।”
विरासत का क्षरण और पहाड़ की पहचान का संकट
‘भूतगांव’ केवल खाली मकानों का शोकगीत नहीं, बल्कि पहाड़ी समाज की ‘पहचान खोने’ की चेतावनी है।
“मकान में सुबह शाम चूल्हा जला, धुंआ उठा तो मकान की उम्र बढ़ जाती है। अब कौन जलाए यहां चूल्हा?”, यह पंक्ति पहाड़ की सांस्कृतिक मृत्यु की पुष्टि जैसी है।
लेखक गांव के हलवाहों और ठाकुरों-ब्राह्मणो की सामाजिक विषमता को केवल चित्रित नहीं करते, बल्कि उसे जातीय व्यवस्था की जड़ों तक ले जाते हैं, जिससे यह कथा केवल पहाड़ की न रहकर पूरे भारतीय समाज की बन जाती है।
निष्कर्ष: भूतगांव केवल गांव नहीं, एक चेतावनी है
‘भूतगांव’ पहाड़ों में भूतों की कहानी नहीं कहता, बल्कि उन भूतों की जो कभी जीवित थे, जो जाति के दंश, पलायन की विवशता और समाज की चुप्पी में बदल गए।
यह उपन्यास पढ़ते हुए पाठक न केवल संवेदना में डूबता है, बल्कि सवालों से भर जाता है, क्या कोई समाज ऐसे ही चुपचाप मरता है? क्या इतिहास में दर्ज होने से पहले गांवों को भूत बनना होगा?