— अनिल जैन —
लगता ही नहीं कि राजकिशोर जी को इस दुनिया से रुखसत हुए सात साल हो गए। 4 जून 2018 को उनकी मृत्यु से महज डेढ़ महीने पहले 22 अप्रैल को जब उनके युवा बेटे विवेक की अर्थी उठी थी तो उन्होंने मौके पर मौजूद सभी लोगों से मुखातिब होते हुए ऊंची आवाज में कहा था कि कोई ‘राम नाम सत्य है’ नहीं कहेगा।
राजकिशोर जी प्रतिबद्ध नास्तिक थे और अक्सर कहा करते थे कि यह नास्तिकों के लिए परीक्षा की घड़ी है। अपनी वैचारिक मान्यताओं पर दृढ़ रहते हुए भी असहमति का सम्मान करना उन्हें खूब आता था। उनकी मृत्यु पर भी न तो उनके घर पर और न ही अंत्येष्टि स्थल निगमबोध घाट पर कोई धार्मिक कर्मकांड हुआ।
4 जून 2018 को उन्होंने अपनी लिखी प्रिय पुस्तकों ‘सुनंदा की डायरी’ (उपन्यास), ‘एक अहिंदू का घोषणापत्र’, ‘हरिजन से दलित’, ‘भारतीय मुसलमान: मिथक और यथार्थ’ के साथ अंतिम विदाई ली थी। इस मौके पर उनकी जीवनसाथी विमला जी और बेटी अस्मिता ने उनके हर कहे का पूरा ध्यान रखा था और जरा भी विचलित नहीं हुई थीं।
यह हिंदी पत्रकारिता का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि हर तरह से योग्य होते हुए भी राजकिशोर जी कभी किसी अखबार के संपादक नहीं बन सके। हां, उनके देखते-देखते उनके कई समकालीन और उनसे जूनियर रहे लोग अपनी गैर पत्रकारीय योग्यताओं के बूते जरूर संपादक बन गए और बरसों तक बने रहे।
मेरा राजकिशोर जी से करीब 30 साल पुराना रिश्ता था और 2002 में दिल्ली पहुंचने के बाद लगातार प्रगाढ़ होता गया। लिखने-पढ़ने के मामले में वे मेरे लिए प्रकाश स्तंभ थे। सम सामयिक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों पर उनके जैसा सहज अंदाज़ में तार्किक और विचारयुक्त लेखन अब नहीं मिलता है। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। चूंकि वे अपने लेखन में आज भी जिंदा हैं और रहेंगे, इसलिए अब भी उनसे सीखने को मिलता है।
उनकी यादों को सादर प्रणाम।
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