‘नागरिकता’ – शिवदयाल

0

अपने इस देश में

मैं एक नागरिक की तरह

नहीं सोच पाता

नहीं, मुझे एक नागरिक की तरह

सोचने-विचारने नहीं दिया जाता

– यह कहना ज्यादा सही होगा

मैं जैसे एक नहीं

अनेक नागरिकताओं में जीता हूँ

मेरी एक नागरिकता

अनेक जाति-समुदायों की नागरिकताओं में

विभाजित हैं, बिखरी हुई है

मेरी हिन्दू नागरिकता को

संकट में डाल देते हैं मुसलमान

और क्रिस्तान

लगता है चले आ रहे हैं

मुझ ‘पैगन’, ‘असभ्य’को खत्म करने

ये एक किताब एक ईश्वर वाले

पारसियों व यजीदियों की याद कर

सिहरता रहता हूँ

मेरी गैर-हिन्दू नागरिकता भी

संकटापन्न दिखाई देती है –

चारों ओर किस्म-किस्म के

खतरों से जूझती, क्षत-विक्षत होती …

 

मेरी सवर्ण नागरिकता

आक्रांत रहती है दलितों-पिछड़ों से जो

मालूम पड़ता है

मेरी हस्ती मिटा कर ही दम लेंगे

 

मेरी ‘पिछड़ी’ नागरिकता को

सख्त चुनौती पेश हो रही है

ये अगड़े और दलित

बढ़त रोकने पर आमादा हैं

जो मुश्किल से हासिल हुई है

 

मुझ दलित को लगता है

जैसे किसी को नहीं सुहाती

यह थोड़ी-सी जगह

पाँव धर कर सीधे खड़े होने के लिए

पूर्वज जिसके लिए जनम-जनम

आसमान ताकते रहे ….

 

हाय री दिनोंदिन विस्थापित होती

और सिकुड़ती जाती

मेरी आदिवासी नागरिकता!

जिस सभ्यता से कभी कुछ नहीं माँगा

उसे मेरा सब कुछ चाहिए

मुझे उजाड़ कर ही

उसे फैलना-पसरना है ….

 

मैं सोचता हूँ

मुझे फिर भी अपनी

एक नागरिकता पर टिकना ही चाहिए

अलग-अलग नागरिकताओं में

आवाजाही बंद कर, क्योंकि

दिख रहे हैं आपस में लड़ते-जूझते

मुसलमानों में भी कितने मुसलमान

हिन्दुओं में भी कितने हिन्दू

ईसाइयों में ईसाई ….

पहचानों के अंदर टकराती पहचानें …

मुझे नहीं सोचना चाहिए

कि हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ

अगड़ा-पिछड़ा-दलित-आदिवासी हूँ

यजीदी और पारसी हूँ

सोचूँ और तय करूँ

जो प्रथमतः और प्राथमिकतः हूँ-

एक व्यक्ति

एक मनुष्य

और यह फौरन करना होगा

क्योंकि ये सब के सब

बढ़े आ रहे है –

ये सब अस्मिताएँ

और नागरिकताएँ

मुझे ही निगलने को

समूचा और पूरा का पूरा!


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment