अच्छा नागरिक जरूरी नहीं कि अच्छा इंसान भी हो!

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— मनोज अभिज्ञान —

च्छा नागरिक जरूरी नहीं कि अच्छा इंसान भी हो। अच्छा नागरिक होने की परंपरागत परिभाषा, दरअसल राजनीतिक अनुशासन का फल है — ऐसी परिभाषा जो व्यक्ति को नैतिकता से नहीं, आज्ञाकारिता से तौलती है। यह परिभाषा पूछती नहीं कि राज्य कौन है, किसके लिए है, किसके विरुद्ध है। वह सिर्फ़ यह देखती है कि व्यक्ति आदेश का पालन करता है या नहीं।

राज्य निरपेक्ष सत्ता नहीं है, बल्कि वह वर्ग-विशेष की प्रभुता को टिकाए रखने की मशीन है। इसलिए उसके बनाए नियम, उसके नैतिक आदेश, और उसके बनाए कर्तव्य भी उसी प्रभु वर्ग के हितों से जन्म लेते हैं। ऐसे में जब कोई व्यक्ति कहता है कि मैं नियमों का पालन करता हूँ, मैं टैक्स देता हूँ, मैं प्रदर्शनकारियों को गलत समझता हूँ क्योंकि उन्होंने कानून तोड़ा, तो वह अनजाने में ही शोषक व्यवस्था के न्याय को स्वीकार कर रहा होता है — और उसके अन्याय को ढँक रहा होता है।

यहाँ व्यक्ति की नैतिकता का प्रश्न खड़ा होता है — और यही वह जगह है जहाँ दर्शन राजनीतिक हो उठता है। स्पिनोज़ा ने लिखा था कि आज़ादी विवेक से आती है, डर से नहीं। लेकिन पूंजीवादी राज्य व्यक्ति को डर से आज्ञाकारी बनाता है, सोच से नहीं। उसका अच्छा नागरिक वह है जो डरता है — अपनी नौकरी खोने से, जेल में डाल दिए जाने से, सामाजिक अस्वीकृति से।

पर सच्चा इंसान वह व्यक्ति होता है जो अपनी चेतना को अपने वर्ग की भलाई से जोड़ता है। वह नीत्शे के ‘सुपर मानव’ की तरह किसी व्यक्तिगत श्रेष्ठता की सनक में, कानूनों को चुनौती नहीं देता, बल्कि इस विवेक से चुनौती देता है कि कुछ कानून मनुष्यता-विरोधी हैं। वह गांधी की तरह नियम तोड़ता है, पर माफ़ी नहीं माँगता — क्योंकि नियम नैतिक नहीं है, सिर्फ़ वैध है।

प्रश्न यह है कि अच्छाई की कसौटी क्या है — राज्य की मान्यता, या जनसमूह की मुक्ति? दरअसल नैतिकता कोई अमूर्त भावना नहीं है, वह सामाजिक रिश्तों और वर्गीय हितों से बनती है। एक पूँजीवादी राज्य में टैक्स देना पुण्य का काम नहीं है, एक तरह से सर्जक श्रमिकों के खिलाफ़ युद्ध में गोला-बारूद पहुँचाना है। जेल में बंद श्रमिक नेताओं के विरुद्ध मुक़दमे उसी टैक्स से चलते हैं। सड़कों पर चलने वाली पुलिस गश्त, किसी धनी की संपत्ति की रक्षा के लिए होती है — न कि किसी भूखे के अधिकार की रक्षा के लिए।

इसलिए, अगर व्यक्ति अच्छा नागरिक बनकर ऐसे राज्य का गूंगा-बहरा अंग बन जाए, तो उसका अच्छा इंसान होना असंभव है। यहाँ नैतिक द्वंद्व खड़ा होता है: या तो आप सत्ता को चुनें, या मनुष्यता को। जो दोनों एकसाथ चुनता है, वह या तो भ्रम में है, या अवसरवादी है।

और यही कारण है कि इतिहास में वे ही लोग बड़े इंसान कहे गए हैं जो उस समय के अच्छे नागरिक नहीं थे — सुकरात, गैलीलियो, भगत सिंह, रोजा लक्ज़मबर्ग, मार्टिन लूथर किंग। उनकी नागरिकता पर प्रश्नचिह्न था, पर उनकी इंसानियत पर नहीं।

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