एका एक मिलै गुरु पूरा

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— मेधा

भारतीय भक्ति और सूफ़ी परंपरा में गुरु की महिमा का बहुत अधिक बखान हुआ है। यूँ तो व्यक्ति यदि सचेत हो और अपनी सर्वांग प्रगति के लिए दृढ़संकल्पी हो तो, कहीं भी किसी साधारण घटना या साधारण व्यक्ति से भी जीवन का गहरा से गहरा मर्म सीख सकता है। यदि जागृति की आकांक्षा हो तो, व्यक्ति हर कहे – सुने और अनुभव से स्वयं को जागृत करने के सूत्र पा सकता है। लेकिन, सतगुरु का मिलना एक विरल घटना है। उसके लिए शिष्य में चित्त की स्वच्छता, निर्माल्य, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा और समर्पण आदि गुणों का विकसित होना अनिवार्य है। आज के आत्मकेंद्रित युग में जहाँ हर बात ‘मैं’ से शुरू होकर ‘मैं’ पर ही ख़त्म हो जाती है, वहाँ ये सारी योग्यतायें अर्जित कर पाना लोगों को टेढ़ी खीर ही नज़र आता है। लेकिन जिसने इन गुणों को साध लिया; गुरु के आगमन से उसका जीवन अभूतपूर्व ढंग से रूपांतरित होने लगता है। 

इस बात से भला किसे इनकार होगा कि कबीर,  रैदास,  सहजोबाई,  मीरा,  दयाबाई,  जनाबाई,  बुल्ले शाह,  रूमी – इन सबने जो पाया, उसमें उनके सतगुरुओं की अनन्य भूमिका रही है। बिन गुरु तो जीवन – जगत में हम अक्सर वैसे ही हो जाते हैं, जैसे तूफानी समंदर में कोई बिना नौका के पार उतरना चाहता हो । गुरु लौकिक और अलौकिक, दोनों ही संसार के रहस्यों को आपके लिए आपकी पात्रता के अनुसार खोलता चला जाता है। हर गुत्थी को सुलझाता चला जाता है। यदि शिष्य में श्रद्धा हो, अज्ञान से मुक्ति की कामना हो और सत्य से साक्षात्कार की अदम्य उत्कण्ठा हो तो, ही जीवन में गुरु का आविर्भाव होता है। 

गुर – शिष्य विमर्श में एक जरुरी प्रश्न यह भी है कि आज के तमोगुणी और रजोगुणी दुनिया में सच्चे गुरु की पहचान हो तो भला कैसे! आज तो,  जिधर देखो हर तरफ़ हर तरह के गुरुओं की दुकान सजी है। शिक्षा – जगत से लेकर,  हीलिंग,  धर्म,  संगीत,  अध्यात्म – सब क्षेत्र में अपनी – अपनी दुकानों में बिकने के लिए सजधज कर बैठे हैं। सभी दुखों से मुक्त करने का दावा करने वाले गुरु हर प्राइस पर मिल रहे हैं। ऐसे में सतगुरु की पहचान कैसे हो?  सतगुरु के ज्ञानलोक में प्रवेश करने से भी पहले हम इन कुछ लक्षणों के आधार पर उन्हें पहचान सकते हैं –  गुरु अहंकारशून्य,  देहराग से मुक्त,  आत्मा के आलोक से प्रकाशित होते हैं। उनकी कोई दुकान नहीं होती है। वो प्रचारतंत्र के जंजाल में नहीं पड़ते। वो शिष्य से कुछ नहीं लेते और शिष्य की श्रद्धा के बदले उसे सबकुछ देते हैं। वो शिष्य को निर्भयी और निर्बैरी बना देते हैं। स्वार्थ की एक छींट भी गुरु पर नहीं पड़ती। वो हर हाल में शिष्य को संभाल लेते हैं और उसे सत्मार्ग पर अग्रसर करते हैं; जैसे रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द को किया। सच्चा गुरु, गुरु- दक्षिणा में अपने शिष्य से इतना भर चाहता है कि वो सतमार्ग पर चले । 

गुरु महिमा ऐसी होती है कि वो चाहे तो हज़ारों सालों के अँधेरे को एक क्षण में कभी न ख़त्म होने वाले प्रकाश से भर दे। भक्तिमती सहजोबाई तो शादी के मंडप में थीं और उनके गुरु चरणदास वहाँ आए और इतना भर उनसे कहा – 

           सहजो तनिक सुहाग पर कहा गुदाये शीश । 

            मरना है रहना नहीं, जाना विश्वे बी ॥

और वो संसार के प्रपंच को छोड़ कर भक्ति मार्ग की साधिका बन गयीं। उनके जैसा गुरु भक्त समस्त भक्ति – संतों में शायद ही कोई मिले! 

गुरु कोई ख़ास वेशभूषा, ख़ास जेंडर,  ख़ास भाषा – बोली,  ख़ास उम्र और पद- प्रतिष्ठा का हो, जरूरी नहीं – वो किसी भी रूप में कभी भी भी मिल सकता है। हमारी आँखें खुली होनी चाहिए। बुल्ले शाह को एक माली में गुरु दिखा। शाह इनायत और बुल्ले शाह की कथा तो बुल्ले शाह के कलाम में हमेशा के लिए अमर है ही। ऊँचे कुल में पैदा हुए बुल्ले शाह का जब सबने एक माली को गुरु बनाने पर विरोध किया तो उन्होंने डंके की चोट पर कहा – 

बुल्ला शाह दी जात ना काई, 

मैं शाह इनायत पाया है। 

ये कथा तो हम सब जानते ही हैं कि जब शाह इनायत बुल्ले शाह से एक बात पर नाराज़ हो जाते हैं तो, वो कंजरी बन कर गली- गली नाचते फिरते हैं, जब तक कि उनकी नाराज़गी ख़त्म नहीं हो जाती। गुरु को मनाने से जुड़ा उनका ये कलाम तो अजर – अमर है ही और आज भी लोगों के जुबान पर चढ़ा हुआ है – 

तेरे इश्क़ ने नचाया …

तेरे इश्क नचइयां कर की थैया थैया

ऐसी इश्क दी जांगी विच मोर बुलेंदा 

शानू किबला टन काबा सोहना यार दिसेंदा 

सानू घायल करके फिर खबर ना लाइयां 

तेरे इश्क नचइयां कर की थैया थैया

रूमी ने धर्म – दर्शन का सारा ज्ञान पा लिया था । वो अपने समय के सुप्रसिद्ध धर्म ज्ञानी माने जाते थे। लेकिन प्रेम की एक छींट भी उन पर नहीं पड़ी थी। उनके मुर्शीद सम्स तब्रीज़ी ने उनकी सारी किताबें पानी में फेंक दी। उसके बाद सम्स की शागिर्दगी ने उन्हें वो रूमी बना दिया, जिसे आज सारी दुनिया जानती है। गुरु ऐसा ही होता है – वो अमर प्रेम का ऐसा प्याला पिलाता है कि आप स्वयं ही देशकाल की सीमा को पार करके सदा के लिए प्रेम का पर्याय बन जाते हैं;  जैसे सम्स ने रूमी को बना दिया । 

संतों का कहना है कि जब शिष्य की पात्रता पूरी हो जाती है,  तो स्वयं ही गुरु का प्रवेश जीवन में होता है। कई बार गुरु का जीवन में प्रवेश हो जाए और शिष्य तैयार न हो तो गुरु इंतज़ार करते हैं, शिष्य के जागने का। आज के नव पूंजीवादी, अतिउपभोगतावादी, कामना के अर्थशास्त्र वाले युग में हम जाग कर भी सोए हुए हैं,  अर्थात सबकुछ जानते हुए एक दोहरी ज़िन्दगी को जीने का पाखंड कर रहे हैं। हम अक्सर “ प्रेम की माला मेरे सतगुरु दीन्हें, मैं सिमरू सुबह – शाम “ का दंभ तो पाल लेते हैं, लेकिन जीवन में झूठ, फरेब, धोखा, बेईमानी, लोभ और वासना को ही जगह देते हैं। ऐसे में लाख गुरु सामने से पुकारे, आप अनसुनी कर अंधकार की अपनी दुनिया में आगे बढ़ते चले जाते हैं। इसीलिए आज का दिन चिंतन – मनन और कृतज्ञता का दिन है कि हमारे जीवन में जो भी गुरु – तत्व हैं, उसके प्रति कृतज्ञ हों और गुरु के प्रति वास्तविक कृतज्ञता यही होती है कि काम,  लोभ,   मद, मोह से निकलकर उसके बताए हुए मार्ग पर चल सकें । 

आज के दिन 1616 ईस्वी में बिहार के छपरा जिले में जन्में संत धरणीदास का ये पद कितना संगत जान पड़ता ! उन्होंने पहाड़ा के माध्यम से गुरु की महिमा का पूरी तरह से बखान कर दिया है – 

पहाड़ा

एका एक मिलै गुरु पूरा, मूल मंत्र जो पावै।

सकल संत की बानी बुझै, मन परतीत बढ़ावै॥

दूआ दुई तजै जो दुबिधा; रजगुन तमगुन त्यागै।

संतगुरु मारग उलटि निरेखै, तब सोवत उठि जागै॥

तीया तीन त्रिबेनी संगम, सो बिरले जन जाना।

तृस्ना तामस छोड़ि दे भाई, तब करु वहँ प्रस्थान॥

चौथे चारि चतुर नर सोई, चौथे पद कहँ लागी।

हँसि कै परम हिंडोलना झूलै, निरखत भा अनुरागी॥

पँचयें पाँच पचीसहिं बस करि; साँच हिये ठहरावै।

इँगला पिंगला सुखमन सोधै, गगन मँडल मठ छावै॥

छठयें छवो चक्र के बेंधे, सुन्न भवन मन लावै।

बिगसत कमल काया करि परिचै, तब चंदा दरसावै॥

सतयें सात सहज धुनि उपजै, सुनि सुनि आनंद बाढ़ै।

सहजहिं दीनदयाल दया करि, बूड़त भवजल काढ़ै॥

अठयें आठ अकासहिं निरखो, दृष्टि अलोकन होई।

बाहर भीतर सर्ब निरंतर, अंतर रहै न कोई॥

नवें नवो दुवारहिं निरखै, जगमग जगमग जोती।

दामिनि दमकै अमृत बरसै, निझर झरै मनि मोती॥

दसयें दस दहाइ पाइ कै, पढ़ि ले एक पहारा।

धरनीदास तासु पद बंदैं, अहि निसु बारंबारा ।। 

( संत धरणीदास )


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