— चंचल —
सुना जाय ! दीनदयाल जी सुनिए । आज जनेश्वर जी का जन्मदिन है । आप लोग बैठ कर तय कीजिये कि जनदिन की पार्टी में क्या क्या बनेगा ?
– क्या क्या बनेगा ? इसे और खोला जाय
– खोला जाय ? गलत ! चोलबे ना !! य ई तो मंटो
– अबे ! मंटो के बच्चे ! खोला जाय मतलब स्पष्ट किया जाय कि क्या बनाने की बात हो रही है ?
– जन्मदिन पे क्या बनता है ? खाने की बात हो रही है । मीनू तय करो ।
जनेश्वर जी अधमुँदी आंख से मुस्कुरा रहे थे , यह उनकी आदत थी । उनको इस अवस्था मे देख कर कई बार ‘नए लोग ‘ उन्हें नीद में समझ , चुप चाप उठ कर चले जाया करते थे।
हमने धीरे से पूछा – आज आपका जन्मदिन है ?
– हमे का मालूम , कागज पे 5 अगस्त लिखा है
– लेकिन आज तो 26 फरवरी है
हमने जोर से कहा – लेकिन बाबा ! जनेश्वर जी का जन्मदिन तो 5 अगस्त है । ( बाबा कहे जाते थे लालमुनि चौबे जी , बाद में बिहार में मंत्री बने , दो बार सांसद रहे , काशी विश्व विद्यालय के मशहूर छात्र नेता थे ) चौबे जी आंख गोल किये । ऊपरवाला झूठ न बुलवाए गजब की धसें आंख रही चौबे जी की, जब भी वे आंख गोल करते काली वाली पुतरी नीचे आ जाती और सफेदी भरपूर फैल जाती । इसके बाद सब जान जाते , अब उनका अपना संवोधन तुरत बाहर आएगा – सूतिया हो क्या जी ? 5 अगस्त होगा जन्मदिन लेकिन बाहर , यह जेल है ,जब मर्जी आये जन्मदिवस बदल सकते हो ।
– जन्मदिन जन्मदिन होता है , यह मारकीन का फ़टहा लंगोट नही है कि जब मर्जी आये बदल लो । ‘
चौबे जी के रिश्तेदार रहे रामवचन पांडे की इस बात से जोरदार ठहाका लगा कि झपकी ले ले रहे कल्याण सिंह अचकचा कर उठ बैठे । लंगोट और चौबे जी की कथा अलग से है , इसे अलग के पाठ में पढिये । संक्षेप में इतना भर कि जेल में दो वाहिद कैदी ऐसे रहे जिनकी वजह से जेल मैनुअल के दायरे में मिलनेवाले कपड़े में तब्दीली करनी पड़ी थी । उसमें एक चौबे जी को अलग से बनने वाला लंगोट था और दूसरा गणेश पंडा को मिलनेवाला गमछा । इन दोनों के बीच साझा कारण एक रहा – शारीरिक बनावट। गणेश पंडा की कमर सौ साल
पुराने पीपल के पेड़ जैसी मोटाई थी किसे नापने के लिए हर फीता छोटा हो जाता था और चौबे जी का लंगोट ?
(जाने दीजिए , वल्गर हो जाएगा , लेकिन जेल को इससे क्या लेना देना , उसका संवैधानिक फर्ज है कि वह अपने कैदी की हर जरूरी जरूरियात को पूरा करे । इसके तहत लंगोट भी आता था )
यह वाकया है सेंट्रल जेल बनारस , सर्किल नम्बर चार , बैरक नम्बर छः का जहां ये सारे कैदी बन्द रहे । तो 26 फरवरी की रात , जनेश्वर जी की जन्मदिन के उपलक्ष में आयोजित भोज के बाद यह सर्वसम्मत से यह तय हो गया कि – जनेश्वर जी का जन्मवार है 5 अगस्त । उस पार्टी में शामिल लोग जेल से छूटने के बाद , विधायक , मंत्री , मुख्यमंत्री और गवर्नर तक बने । लेकिन तय हो गया कि जनेश्वर मिश्र जी की जन्मतिथि5 अगस्त है ।
उस रात बाबा ने गाया था – पिया तू आव अंगना । गजब की सुरीली आवाज रही चौबे जी की । अब यह बताना फिजूल है कि उस रात कल्याण सिंह कुछ ज्यादा हो रोये थे । समाजवादी नेता छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष रामवचन पांडे ऐसे वक्त में खैनी बनाते थे और कुबात बोलने से बाज नही आते थे । जब भी कल्याण सिंह को घर की याद आती वे सिसकी भरते तो चौधरी राजेन्द्र सिंह उन्हें सांत्वना देते लेकिन पांडे जी लम्बी सांस लेकर आह भरते
– कहाँ फँसायो ना थ ?
जनेश्वर जी मुस्कुराते और पांडे जी को बोलते – रमबचनी बहुत मुरहा हव ।
जनेश्वर जी घोषित चिकोटीबाज नेता रहे । उनके साथ चलने वाला हर पुराना कामरेड उनकी इस अदा से वाकिफ रहा । वे बहुत संजीदगी से चिकोटी काट कर ऐसा संजीदा मुह बनाते लेते थे जैसे इनका इस वारदात से कोई मतलब ही नही । इलाहाबाद उनकी कर्म स्थली रही । रात दोस्तों के साथ अक्सर चाय पीने संगम की ओर चले जाते । एक बार एक प्रवचन की भीड़ पीछे बैठ गए । साधू प्रवचन दे रहा था –
‘ कुछ ऐसे निखिद्ध योनि में पैदा होते है जन्हें न बाप का पता होता है न मा का । जैसे कुत्ता , बिल्ली , चूहा । अभी वह और गिनाता तब तक जनेश्वर जी ने कुछ ऐसा बोल दिया कि पीछे बैठी श्रोता मंडली बिलबिला पड़ी , लेकिन उसे यह अंदाज नही हो पाया कि यह बोला किसने ?
77 में जनता सरकार बनी । जनेश्वर जी कम्युनिकेशन मंत्री बने । अपने सरकारी आवास पर फूस का एक मड़हा बनवाये । उसका नाम रखा – लोहिया के लोग ।
अल सुबह उठ कर दौड़ते थे और ठीक 6 बजे वहीं बैठ कर चाय पीते थे । हम रेल मंत्री जॉर्ज के साथ थे और सुबह 7 बजे हम जार्ज के सरकारी आवास 3 कृष्णा मेनन मार्ग पहुंच जाते थे लेकिन हम ठीक 6 बजे जनेश्वर जी के साथ चाय जरूर पीते थे । हर समाजवादी की तरह जनेश्वर जी के यहां भी कोई पहरा नही रहता था , गेट खुला ही रहता था । लोंगो का आना सुबह से से शुरू हो जाता था । उस जमाने मे टेलीफोन की बहुत किल्लत थी जल्दी नही मिलता था । अल सुबह हम दोनों जन मड़हे में बैठ कर एक घन्टा गपियाते थे इस बीच लोंगो का आना जारी रहता । और आने वाले कि कैफियत जनेश्वर जी कमेंट्री की तरह पढ़ते रहते –
‘ वो देखो जो आ रहा है , मिठाई का डिब्बा लिए , बोलेगा प्रसाद है , हमे मालूम है खरीद कर ला रहा है , इसे टेली फोन चाहिए , बहुत उस्ताद है , अल्लापुरा में इसकी कोठी है , दो नम्बर का धंधा है ‘ आनेवाला सामने आ गया है जनेश्वर जी चालू हैं , उसे क्या मालूम यह बात उसी की हो रही है । अचानक उधर मुड़ते – सर ये
– हा समझ गया प्रसाद है , इलाहाबाद से लेते आये , यहां रख दो , दरखास्त कहाँ है ( टेलीफोन की ) ?
– सर असल
– यह डिब्बा इधर मेज पर रख दो , दरखास्त उस फाइल में लगा दो , जाओ ।
एक दौर रहा । अब वो साँचा ही टूट गया जिसमें जनेश्वर जैसे लोग बनते थे ।
मनाएंगे जन्मदिन , जब मन करेगा जेल जांयगे ।
सादर नमन
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