गंगा की लहरों सा स्वर : बिस्मिल्लाह खाँ

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Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

बिस्मिल्लाह ख़ाँ—यह नाम सुनते ही मन में गंगा-तट की वह दिव्य गूँज उठती है, जो बनारस की गलियों से बहते हुए हमारे अंतर में उतर जाती है। शहनाई की लहरियाँ जैसे गंगा की तरंगें हों—एक क्षण ठहरती हुईं, फिर अपने आप में बह निकलती हुईं। बिस्मिल्लाह ख़ाँ केवल एक कलाकार नहीं थे, वे भारतीय संगीत के प्रतीक थे, वे हमारी परंपरा, आस्था और सांस्कृतिक गहराई के वह स्वर थे जो शताब्दियों से चले आ रहे लोक और शास्त्र का सेतु बने। उनके व्यक्तित्व और संगीत में वह सहजता थी, जो साधारण को असाधारण बना दे और असाधारण को भी अपने भीतर सरलता से उतार ले।

बचपन की गलियों में, जहाँ वे अपने मामू अलीबख्श के साथ गंगा-घाटों पर बैठकर सुरों की साधना करते, वहाँ से लेकर दुनिया के सबसे बड़े मंचों तक उनकी यात्रा किसी किंवदंती से कम नहीं लगती। उस छोटे-से बालक की उँगलियों में शहनाई थमी तो उसने केवल ध्वनि नहीं, बल्कि आत्मा का आलाप छेड़ दिया। गंगा के घाट पर बजने वाली आरती और मंदिर की घंटियों की झंकार ने जिस तरह उनके मन को स्पर्श किया, उसी तरह शहनाई के स्वर भी उन लयों में गुँथे। उनका संगीत हिंदू और मुस्लिम दोनों परंपराओं का अनूठा संगम था—न तो वह मजहबी सरहदों में बँधा और न ही किसी जातीय दायरे में सिमटा। वह शुद्ध भारतीय था—भूमि, जल, गगन और आत्मा का।

उनकी शहनाई का स्वर जैसे धरती से आकाश तक जाता और लौटकर हृदय में जम जाता। कभी वह स्वर सावन की फुहार की तरह भीगाता, कभी होली के रंगों की तरह चटख उठता। विवाह की मंगल ध्वनियाँ भी वही थीं, और मंदिरों की आरती का कंपन भी। बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जिस तरह शहनाई को दरबार और उत्सवों की सीमाओं से निकालकर एकल वाद्य के रूप में स्थापित किया, वह अभूतपूर्व था। संगीत के इतिहास में यह उनकी सबसे बड़ी देन मानी जाएगी। वे जानते थे कि शहनाई केवल किसी रस्म का हिस्सा नहीं, वह अपने आप में संपूर्ण संगीत का शिखर है।

उनका जीवन विलक्षण सादगी से भरा हुआ था। वे जितने बड़े कलाकार थे, उतने ही सरल मनुष्य भी। दुनिया भर से निमंत्रण आते, पुरस्कार मिलते, सम्मान की वर्षा होती, पर वे उसी बनारसी ठाठ में जीते रहे। अपने छोटे-से घर, संकरी गलियों, गंगा-तट और नम्र मुस्कान के साथ। एक ओर उन्हें भारतरत्न मिला, तो दूसरी ओर वे उसी सहज भाव से कह देते—“हम तो बस बजाते हैं, बाकी सब अल्लाह की मेहरबानी है।” उनकी विनम्रता स्वयं एक संगीत थी—जो गूँजती थी उनके हर शब्द में।

बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई केवल स्वर नहीं थी, वह जीवन की गाथा थी। उसमें बनारस की सुबह का लालिमा था, गोधूलि का सुनहरा प्रकाश था, गंगा का नितांत पवित्र प्रवाह था। उसमें लोकगीतों की आत्मा थी और रागों की गहराई भी। वह स्वर जितना लोक का था, उतना ही शास्त्र का; जितना गाँव की गलियों का, उतना ही सभ्यता की उच्चतम उपलब्धि का। उनकी शहनाई ने उस भारतीयता को स्वर दिया जो किसी एक भाषा, धर्म, क्षेत्र या वर्ग से बँधकर नहीं रहती। वह सबकी थी—सभी के लिए।

किसी ने ठीक ही कहा है कि जब बिस्मिल्लाह ख़ाँ बजाते थे तो वह केवल शहनाई नहीं होती थी, वह जैसे आत्मा का गान होता था। उनके राग जब गूँजते तो लगता समय ठहर गया है। बनारस के घाटों पर सूर्योदय के साथ जब उनकी शहनाई उठती, तो वह एक नए दिन का मंत्रोच्चार होती। वही स्वर जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुँचते, तो पूरी दुनिया भारतीय आत्मा की छुअन महसूस करती।

वे जितना अपने संगीत में थे, उतना ही अपने शहर में भी। बनारस उनका आश्रय था, उनकी आत्मा। उन्होंने कभी बड़े नगरों की चकाचौंध नहीं चाही। वे कहते थे—“बनारस छोड़ने की बात मत कीजिए, यहाँ गंगा है, यहाँ काशी विश्वनाथ हैं, यही हमारी जान है।” यह लगाव केवल नगर का नहीं था, यह उस मिट्टी का था जिसने उन्हें संगीतकार बनाया। यही कारण था कि उनकी शहनाई में गंगा-तट का कंपन सुनाई देता था, वही कंपन जो बनारस को जीवित और पवित्र बनाए रखता है।

उनकी वाणी और संगीत दोनों में एक गहरी श्रद्धा थी। श्रद्धा न केवल ईश्वर के प्रति, बल्कि मनुष्य और जीवन के प्रति भी। जब वे बजाते, तो सुनने वाला केवल श्रोता नहीं रहता, वह एक साधक बन जाता। शहनाई की तानों में वह अपने भीतर की उदासी और खुशी, सब कुछ पा लेता। यही संगीत की चरम साधना है—जहाँ श्रोता और वादक दोनों एक हो जाएँ, और केवल स्वर रह जाए।

बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई केवल समारोहों में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जीवन में भी एक प्रतीक बन गई। स्वतंत्र भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस पर जब लाल किले की प्राचीर से उनकी शहनाई गूँजी, तो वह केवल संगीत नहीं था, वह राष्ट्र की आत्मा का उद्घोष था। वह स्वर नए भारत की पहचान बन गया—एक ऐसा भारत जो विविधता में एकता को जीता है। वह स्वर हर वर्ष हमें याद दिलाता रहा कि संगीत ही वह साधन है जो सभी भेदों को मिटा सकता है।

उनका जीवन यह सिखाता है कि कला की सबसे बड़ी शक्ति उसकी निष्कलुषता है। बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने अपने संगीत को कभी प्रदर्शन या व्यापार नहीं बनने दिया। उनके लिए संगीत पूजा था, साधना थी। वे कहते थे—“संगीत को अगर दिल से बजाओ तो वह अल्लाह तक पहुँचता है।” इसीलिए उनकी शहनाई की तानें केवल कानों को नहीं, आत्मा को भी छू लेती थीं।

उनका अंत भी किसी साधक की तरह ही हुआ। जब वे विदा हुए, तो लगा जैसे गंगा का कोई स्वर मौन हो गया। परंतु सच तो यह है कि वे आज भी जीवित हैं—हर उस धुन में, जो किसी उत्सव में बजती है; हर उस आरती में, जो गंगा-तट पर गूँजती है; हर उस श्रोता के हृदय में, जो संगीत की सच्चाई को पहचानता है।

बिस्मिल्लाह ख़ाँ का जीवन और उनका संगीत हमें यह अनुभव कराता है कि कला केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की साधना है। उनकी शहनाई हमें बार-बार लौटकर याद दिलाती है कि ध्वनि केवल लहर नहीं, वह जीवन का अर्थ भी है। उनके स्वर आज भी गंगा के साथ बहते हैं, हवा में घुलते हैं और हमारे मन को छूते हैं। उनका संगीत हमारी परंपरा की अमरता है, और उनका नाम हमारी आत्मा का एक ऐसा हिस्सा, जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

बिस्मिल्लाह ख़ाँ केवल एक संगीतकार नहीं थे, वे भारत की आत्मा की शहनाई थे। उनकी तानें हमारे भीतर आज भी गूँजती हैं, जैसे कोई शाश्वत प्रार्थना, जैसे कोई अनंत गंगा।

।। दो ।।

बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई का सबसे बड़ा जादू उसकी लोक-ध्वनि में था। लोक का अर्थ यहाँ केवल गाँव-गिराँव या मेलों-ठेलों का स्वर नहीं है, बल्कि वह आत्मीयता, वह सहजता, वह धरती का रस है, जो सीधे मनुष्य के दिल में उतरता है। बनारस की गलियों से लेकर गंगा के घाटों तक, काशी की संकरी पटरियों से लेकर गाँव के चौपालों तक, बिस्मिल्लाह खाँ ने अपने कानों में जो ध्वनियाँ संजोईं, वही उनकी शहनाई में उतरकर अमर हो गईं।

गंगा की लहरों का कल-कल, आरती की ध्वनि, मंदिर की घंटियाँ, मस्जिद की अज़ान, मल्लाह की पुकार, पंडित की मंत्रोच्चारण, और चाय बेचते दुकानदार की आवाज़—इन सबका सम्मिलन ही तो था उनकी शहनाई। उनके स्वर में लोक का ऐसा कंपन था, जो हर जाति-धर्म के आदमी को बाँध लेता। यही कारण है कि उनकी धुन सुनते समय सुनने वाला यह भूल जाता कि यह किसका संगीत है, केवल यह याद रहता कि यह हमारे जीवन का संगीत है।

बिस्मिल्लाह खाँ जब विवाह में शहनाई बजाते, तो लगता था जैसे लोकगीत की कोई पुरानी धुन जीवित हो उठी है। जब वे राग सोहनी या राग देश बजाते, तो उसमें कहीं न कहीं होली-चैती की लोक-गूँज छिपी रहती। उनके स्वरों में खेतों की सरसराहट थी, फसल की बाली की हिलोर थी, पनघट की ठिठोली थी। यही कारण था कि उनका संगीत केवल शास्त्रीय ज्ञानियों को ही नहीं, साधारण लोगों को भी उतना ही प्रिय था।

लोक ध्वनि का सबसे बड़ा आधार उनकी आत्मीयता थी। वे किसी कृत्रिम मंचीय आभा से बँधकर नहीं बजाते थे। उनके लिए हर स्थान लोक था—चाहे वह किसी गाँव का चौक हो या दिल्ली का लालकिला। उनकी शहनाई की ध्वनि हर जगह लोक की तरह फैली और सभी को अपनी ओर खींच लाई। लोक में जो आत्मीयता और सहजता होती है, वही उनके स्वर में प्रवाहित रहती थी।

काशी की गलियाँ उनके संगीत की पाठशाला थीं। वहाँ की गूँज, वहाँ का शोर-शराबा, वहाँ की बोलियाँ—सब उनके भीतर ध्वनि के रूप में उतर गए। उन्होंने सीखा कि ध्वनि का कोई एक रूप नहीं होता। वह हँसी भी है, वह रोना भी है, वह पुकार भी है और वह मौन भी। यही समझ उन्हें लोक की ओर ले गई। उनकी शहनाई में यह विविधता स्पष्ट रूप से सुनाई देती थी।

उनकी शहनाई से निकलती एक धीमी तान सुनकर लगता था जैसे कहीं कोई विदा हो रही है। फिर उसी तान में अचानक उल्लास आ जाता और लगता जैसे बरात निकल रही हो। यह विरोधाभास लोक जीवन की सच्चाई है—जहाँ दुःख और सुख एक-दूसरे से गुँथे रहते हैं। बिस्मिल्लाह खाँ की ध्वनि इस लोक सच्चाई का सबसे सजीव चित्रण बन गई।

लोक ध्वनि का अर्थ यह भी है कि उसमें किसी भी व्यक्ति को अपना अंश दिखाई दे। उनकी शहनाई सुनकर गाँव का किसान कहता—”यह तो मेरी मिट्टी की आवाज़ है।” नाविक कहता—”यह तो मेरी नाव की लय है।” पुजारी कहता—”यह मेरी आरती की ध्वनि है।” और मौलवी कहता—”यह मेरी अज़ान की तान है।” यही तो लोक है—सबकी साझी ध्वनि। और यही बिस्मिल्लाह खाँ की सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने शहनाई को इस लोकधर्मी आत्मा से जोड़ा।

उनके संगीत ने यह सिद्ध कर दिया कि लोक और शास्त्र में कोई विभाजन नहीं। शास्त्र लोक से ही जन्म लेता है और लोक में ही घुलकर उसे जीवन मिलता है। वे जब भी शहनाई बजाते, श्रोताओं को ऐसा लगता जैसे वे किसी शास्त्रीय राग की गहराई में डूबे हैं और साथ ही किसी लोकगीत की आत्मा भी सुन रहे हैं। यही संगम उनकी ध्वनि को अमर बना गया।

आज भी उनकी रिकार्डिंग सुनते समय कान में लोक की वही महक आती है। लगता है जैसे गली में कोई बारात निकल रही हो, जैसे घाट पर आरती हो रही हो, जैसे गंगा बह रही हो। यह सब मिलकर उस लोकध्वनि को रचते हैं, जो बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई में अमर हुई।

।। तीन।।

बिस्मिल्लाह खाँ का नाम आते ही सबसे पहले शहनाई की वह गूंज स्मृतियों में कौंध उठती है, जिसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब की आत्मा बसी हुई है। उनका संगीत केवल ध्वनि का विस्तार नहीं था, बल्कि आत्मा का कंपन था, जिसकी तरंगें श्रोता के भीतर उतरकर उसे साधना और समर्पण के अनुभव से भर देती थीं। वे शहनाई के ऐसे साधक थे, जिन्होंने लोक और शास्त्र, परंपरा और नवीनता, धरती और आकाश—सभी को एक धागे में पिरो दिया। उनकी धुनों में मंदिर की आरती भी थी, मस्जिद की अज़ान भी; गाँव के मेलों की रौनक भी थी, बनारस की गलियों का ठाठ भी। वे उस पुरानी भारतीय संवेदना के प्रतीक थे जिसमें संगीत केवल कला नहीं, बल्कि भक्ति का एक रूप है—आराधना की एक अद्भुत शैली।

उनके वादन में बारीकियों की जो छवियाँ झलकती थीं, वे न केवल तकनीकी कौशल का प्रमाण थीं, बल्कि आत्मा की अनुभूति का भी विस्तार थीं। जब वे अलाप करते, तो लगता जैसे गंगा की लहरें धीरे-धीरे किनारे से टकरा रही हों। जब वे झंकार और तिहाई की ओर बढ़ते, तो लगता जैसे आरती की थाल में दीपक की लौ हिलोरें मार रही हो। उनकी उंगलियों की गति और श्वास का संधान एक ऐसी पूर्णता को रचता था, जिसमें श्रोताओं का मन अपने आप ही डूबता चला जाता।

बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई में मींड का विस्तार ऐसा था कि स्वर एक से दूसरे स्वर तक बिना टूटे, बिना किसी खुरदराहट के, ऐसे बहते चले जाते जैसे सरिता का प्रवाह। उनके गले और सांस पर अद्भुत नियंत्रण था। जब वे लंबे आलाप में स्वर को थामे रहते, तो लगता कि हवा भी उनकी श्वास की लय से बंध गई है। उनका हर स्वर इस तरह खिंचकर आता कि वह सीधे हृदय को छू ले। यही उनकी बारीकी थी—स्वरों को केवल बजाना नहीं, उन्हें आत्मा से जिया हुआ स्वरूप देना।

उनका वादन शास्त्रीय रागों की गम्भीरता से लेकर लोकधुनों की सहजता तक का संसार रचता था। राग यमन की गहराई हो या राग बिहाग की मधुरता, राग दरबारी की गंभीरता हो या राग काफी की मस्ती—हर राग उनके हाथों में नया जीवन पा लेता। लेकिन इसके साथ ही जब वे लोकधुनों में उतरते, तब उनकी शहनाई ऐसा जादू बुनती कि लगता जैसे गाँव की मिट्टी से गंध उठ रही हो, मेले में बांसुरी और नगाड़ों की आवाज़ों के बीच कोई आत्मीय स्वर गूंज रहा हो। यह दोहरेपन को वे अद्भुत सहजता से साधते थे।

उनकी शहनाई में “गहराई” के साथ-साथ “नफ़ासत” भी थी। स्वर की गहराई में डूबकर भी वे उसे सहज, पारदर्शी और हल्का बनाए रखते। यह संतुलन ही उनकी विशेषता थी। वे एक ही राग में कभी गंभीरता और ध्यान की स्थिति उत्पन्न करते और कभी वही राग श्रृंगार और उल्लास की अनुभूति जगा देता। उनका यह कौशल शास्त्रीय मर्यादा और लोक सहजता के बीच की महीन रेखा पर निरंतर साधना का परिणाम था।

शहनाई वाद्य की सीमाएँ बहुत हैं। यह एक श्वास-प्रधान वाद्य है और उसमें स्वर-संधान, गति और मींड निकालना अत्यंत कठिन है। किंतु बिस्मिल्लाह खाँ ने इन सीमाओं को तोड़ दिया। उन्होंने शहनाई को केवल शादी-ब्याह और धार्मिक अवसरों तक सीमित रहने वाला वाद्य नहीं रहने दिया, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर, शास्त्रीय संगीत के गंभीर क्षेत्र में स्थापित कर दिया। इस कार्य के पीछे उनकी वह बारीक साधना और अनंत अभ्यास था, जिससे उन्होंने शहनाई को गाने वाली आवाज़ बना दिया। जब वे वादन करते, तो लगता कि शहनाई गा रही है, बोल रही है, संवाद कर रही है।

उनके संगीत में स्वर और मौन दोनों का अद्भुत संतुलन था। जहाँ स्वर की गूँज हृदय को भर देती, वहीं बीच-बीच में आने वाला ठहराव, वह मौन, श्रोता को ध्यान की गहराई में ले जाता। यह ठहराव उनकी साधना का सबसे सूक्ष्म रूप था। संगीत के बीच मौन को भी उतनी ही गहराई से गढ़ना केवल बिस्मिल्लाह खाँ जैसे साधक की विशेषता थी।

बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई की बारीकी का सबसे बड़ा पहलू यह था कि वह केवल कान को नहीं, आत्मा को छूती थी। वह ध्वनि का ऐसा आलोक था, जिसमें व्यक्ति का भीतर का अंधकार कट जाता। यही कारण है कि उनके संगीत को सुनते हुए श्रोता केवल आनंदित नहीं होते, बल्कि किसी अनकहे भाव से भर जाते। वे कभी अज्ञात स्मृतियों में खो जाते, कभी अपने ईश्वर को याद करने लगते, कभी अपने गाँव-घर की मिट्टी की खुशबू महसूस करने लगते।

उनका जीवन भी उनके संगीत की तरह ही सादगी और गहराई से भरा था। बनारस की गलियों और गंगा की धाराओं ने उनकी आत्मा को आकार दिया था। उनकी शहनाई में वही गंगा का प्रवाह था, वही बनारस का ठाठ था। वे कहते थे कि बनारस और गंगा छोड़कर कहीं और जाऊँ, यह मैं सोच भी नहीं सकता। यह आत्मीयता उनके वादन की आत्मा बन जाती।

जब वे लालकिले की प्राचीर पर शहनाई बजाते, तो वह केवल राष्ट्रगान का हिस्सा नहीं होता, बल्कि वह एक प्रतीक बन जाता—भारत की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक। जब उन्होंने विदेशों में शहनाई बजाई, तो विश्व ने पहली बार जाना कि शहनाई केवल उत्सव का वाद्य नहीं, बल्कि ध्यान और भक्ति का वाद्य भी हो सकता है। उनकी शहनाई ने भारतीयता की आत्मा को विश्वपटल पर पहुँचा दिया।

बिस्मिल्लाह खाँ के संगीत की बारीकी उनके स्वर-संधान, ताल-बोध, श्वास-साधना और भाव-संवेदना में ही नहीं थी, बल्कि उस गहरी मानवता में भी थी, जो उनके हर स्वर में छलकती थी। उनका संगीत किसी धर्म, किसी जाति, किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं था। वह एक ऐसा प्रवाह था, जिसमें हर कोई स्नान कर सकता था। यही कारण है कि वे संगीत में “लोक” और “शास्त्र” दोनों के बीच पुल बनकर खड़े रहे।

उनकी शहनाई में कभी सूफियाना रंग झलकता, कभी वैष्णव भक्ति का स्वर गूंजता, कभी बनारस की ठुमरी का ठाठ आता, कभी गाँव के खेतों की लय सुनाई देती। यही उनकी असली बारीकी थी—सभी रंगों को एक साथ गूंथना और उन्हें एक अद्वितीय स्वर-समाज में ढाल देना।

उनकी साधना और उनकी आत्मा ने शहनाई को वह ऊँचाई दी, जहाँ पहुँचकर वह किसी सीमित वाद्य की परिभाषा को लाँघ गई। उनके जाने के बाद भी उनकी शहनाई की गूँज भारतीय संगीत के आकाश में गूंजती रहती है। उनके स्वर आज भी गंगा की धाराओं की तरह बहते हैं, मंदिर-मस्जिद की प्रार्थनाओं की तरह गूंजते हैं, और गाँव-शहर की स्मृतियों की तरह मन में बस जाते हैं।

बिस्मिल्लाह खाँ का संगीत बारीकी का ही दूसरा नाम है—स्वरों की बारीकी, भावों की बारीकी, श्वास की बारीकी और आत्मा की बारीकी। वे उस साधक के प्रतीक हैं जिसने यह सिद्ध किया कि संगीत केवल सुनने की चीज़ नहीं है, वह जीने की प्रक्रिया है, आत्मा की साधना है। उनके स्वर भारतीय संगीत परंपरा के शिखर पर इस तरह अंकित हैं कि वे कभी मिट नहीं सकते।

।। चार ।।

बिस्मिल्लाह खाँ के संगीत का उपसंहार केवल एक कलाकार की स्मृति नहीं है, बल्कि एक ऐसी परंपरा का वंदन है जिसने भारत की आत्मा को स्वर दिए। उनकी शहनाई केवल वाद्य नहीं थी, बल्कि जीवन का सार थी। उसमें भक्ति भी थी, लोक भी, शास्त्र भी और मानवता भी। उन्होंने सिद्ध किया कि संगीत किसी धर्म, किसी जाति या किसी बंधन की जायदाद नहीं होता—वह तो आत्मा की आवाज़ है, जो हर दिल तक पहुँचती है। उनकी बारीकी केवल स्वरों के जादू में नहीं, बल्कि उस भाव-संवेदना में थी जिससे वे प्रत्येक श्रोता को अपने भीतर उतरने पर विवश कर देते थे। वे संगीत के महामुनि थे, जिन्होंने शहनाई को मंदिर से निकालकर विश्वमंच तक पहुँचाया और साथ ही उसे आत्मा के मंदिर में भी प्रतिष्ठित किया। आज जब उनकी शहनाई मौन है, तब भी उसकी गूँज हमारे भीतर उतनी ही गहरी और सजीव है। यही बिस्मिल्लाह खाँ का शाश्वत उपसंहार है—एक ऐसा स्वर, जो कभी समाप्त नहीं होता, एक ऐसी गूँज, जो अनंत तक जाती है।

बिस्मिल्लाह खाँ की विरासत पर आगे सोचें तो यह स्पष्ट होता है कि उनका संगीत केवल उनके जीवनकाल तक सीमित नहीं रहा। उनकी शहनाई ने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्ग निर्मित किया—एक ऐसी साधना-पथ, जिसमें श्रम, समर्पण और निष्काम भाव ही सबसे बड़ी पूँजी हैं। उनके शिष्यों और उनके सुनने वालों के भीतर अब भी वह प्रेरणा जीवित है कि संगीत साधना है, और साधना केवल अनुशासन और प्रेम से ही फलवती होती है।

उनके जाने के बाद भी जब कहीं शहनाई बजती है तो श्रोताओं की स्मृति तुरंत बिस्मिल्लाह खाँ की ओर जाती है। वे जैसे शहनाई के प्रतीक बन गए हों। यही कलाकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि वह अपने वाद्य से इतना एकाकार हो जाए कि उसका नाम उस वाद्य का पर्याय बन जाए।

बिस्मिल्लाह खाँ के संगीत की बारीकी हमें यह भी सिखाती है कि कला का सौंदर्य उसकी जटिलता में नहीं, उसकी सरलता में है। जितनी गहरी साधना, उतनी ही सहज अभिव्यक्ति। यही कारण था कि उनके संगीत को पंडित भी समझते थे और सामान्य जन भी। उनकी शहनाई जब गूंजती थी तो किसी को राग-रागिनी का नाम जानने की आवश्यकता नहीं होती थी; स्वर सीधे आत्मा तक पहुँच जाते थे।

आज उनके स्मरण में जब हम उनके स्वर-लोक की बारीकियों पर दृष्टि डालते हैं, तो यह प्रतीत होता है कि वे केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक युग की आत्मा थे। उनकी शहनाई गंगा-जमुनी तहज़ीब की जीवंत प्रतीक थी, जो हमें यह बताती है कि कला ही असली धर्म है, संगीत ही सबसे बड़ी प्रार्थना है।

उनकी विरासत का “अगला अध्याय” अब हमारे हाथों में है—उनके शिष्यों, संगीत प्रेमियों और शोधकर्ताओं के माध्यम से। प्रश्न यह नहीं कि बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई को कौन आगे बढ़ाएगा, बल्कि यह है कि उनकी आत्मा से रचा गया संगीत हम अपनी संवेदना और जीवन में कितनी गहराई से उतारते हैं। यही उनकी सबसे सच्ची स्मृति और अगली यात्रा होगी।


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