डॉ नगेंद्र स्मृति व्याख्यान

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Dr. Nagendra Memorial Lecture

नंदकिशोर आचार्य ने रस की व्याख्या सृजन के आनन्द के रूप में की। सृजन की प्रक्रिया में कृतिकार और रसिक दोनों का आत्मसृजन और आत्मविकास होता है। लेकिन सृजन के लिए विषय (ऑब्जेक्ट)और विषयी (सब्जेक्ट ) की एकता अनिवार्य शर्त है। इसे स्व और पर की एकता भी कह सकते हैं।

दूसरे के दुख को अपना बनाए बिना न सृजन संभव है न रसानुभूति। इसी अर्थ में रस एक नैतिक अवधारणा है। आचार्य जी की ये स्थापनाएं असल में उनकी अपनी ही रचना प्रक्रिया की व्याख्या करती हैं। उनकी ही कविता शब्द की ये पंक्तियां प्रमाण हैं:

‘ नहीं, कविता रचना नहीं
सुबूत है कि
मैंने अपने को रचा है।

मैं ही तो हो गया होता हूँ शब्द

फुफकारते समुद्र में लील लिया जाकर भी
सुबह के फूल-सा खिल आता हुआ।…’

जो भी हो, इक्कीसवीं सदी में रस की इससे बेहतर व्याख्या शायद नहीं की जा सकती। रस की प्रासंगिकता का इससे बेहतर डिफेंस भी नहीं हो सकता। आचार्य जी का नगेंद्र व्याख्यान जरूर इस बात के लिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने रस की अलौकिकता, आध्यात्मिकता और रहस्यात्मकता से दृढ़तापूर्वक इंकार किया।

आज के जमाने में रस की प्रासंगिकता पर उसी तरह चर्चा हो सकती है जैसे अफलातून या अरस्तू की प्रासंगिकता पर भी हो सकती है। उनकी विश्वदृष्टियां चाहे कितनी ही पुरानी पड़ गई है लेकिन तर्क – विवेक – रहित भावुकता की आलोचना के लिए वे आज भी प्रासंगिक हैं।

भारतीय काव्य चिंतन भी रस से कीलित नहीं रहा। रस से रीति, वक्रोक्ति और ध्वनि तक की ऐतिहासिक यात्रा इसका प्रमाण है। इसके भी आगे भक्तिकालीन काव्य दृष्टि, रीति काव्य परंपरा और आधुनिकता के विभिन्न आंदोलनों तक इसका विकास होता है।

छायावाद के जमाने में रामचंद्र शुक्ल और नगेंद्र जैसे आलोचकों द्वारा रस का पुनराविष्कार किया गया। यह मूलतः छायावादी भाव – स्वच्छंदता को एक शास्त्रीय औदात्य प्रदान करने का उद्यम था।

करुणा को एकमात्र रस बताने वाले भवभूति ने भी मूलतः ‘आत्म और पर की एकता’ को ही रस के आधार के रूप में स्थापित किया था। तर्क और विवेक के साथ रस के विरोध को चाहे कितना भी धुंधला कर दिया जाए, मिटाया नहीं जा सकता।
‘हृदय की अनुभूति’ बुद्धि के साथ हमेशा सहज नहीं रह पाती।

रस की नैतिकता करुणा से आगे नहीं बढ़ पाती। तर्क, विवेक और न्याय की मांग का रस के साथ सहज भाव नहीं हो सकता लेकिन ‘स-हृदयता’ यानी कृति के साथ भावक की सृजनात्मक एकता की उसकी मांग हमेशा प्रासंगिक रहेगी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित नगेंद्र व्याख्यान माला में छात्रों की अद्भुत उत्साहपूर्ण भागीदारी एक बार फिर याद दिलाती है कि युवा पीढ़ी में सृजनात्मक आकुलता और अकादमिक भूख की कोई कमी नहीं है। लंबे अंतराल के बाद हुए इस प्रखर वैचारिक आयोजन ने एक उत्सव का रूप ले लिया।


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