पिछले साल डॉक्टर जी जी पारिख के शतायु होने के अवसर पर लिखा यह लेख आज उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप शेयर कर रहा हूँ। अलविदा जीजी!
मेरे इलाक़े में “जीजी” का मतलब है बड़ी बहन। माँ के जाने के बाद जीजी एक दूसरी माँ बन जाती है। उससे भी बेहतर चूँकि उनके माँ वाली ममता होती है, लेकिन माँ वाली डाँट-फटकार नहीं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ। जब भी मैं महाराष्ट्र जाने के बारे में सोचता हूँ, जीजी पारिख से मिलने और उनका आशीर्वाद लेने का मन करता है।वैसे उम्र में वे मेरे माँ-पिता से बड़े हैं, लेकिन व्यवहार उस बड़ी बहन जैसा है जो माँ जैसी है। जो आशीष दे, बिना मांगे स्नेह उँड़ेले, बिना बोले शिक्षा भी दे।
जीजी से मेरा रिश्ता कुछ वैसा है जैसा कर्नाटक के स्वतंत्रता संग्रामी एच एस दोरैस्वामी के साथ था। चार बरस पहले २०२० में उनके निधन से पहले तक बंगलुरु जाने पर उनसे मुलाक़ात निश्चित थी। तब तक वे शतायु हो चुके थे, मगर हर धरने-प्रदर्शन सभा-सम्मेलन में वो जरूर हाजिर होते थे। स्मृति इतनी तेज थी कि १९४२ के आंदोलन में कहाँ तिरंगा फहराया, कैसे योजना बनी, किसने इसे कैसे अंजाम दिया, ये सब वे बखूबी बता सकते थे। जब उनका हाथ सर पर होता था, तो लगता था आज़ादी के आंदोलन की ऊर्जा से जुड़ रहे हैं।
जीजी से मेरा परिचय बहुत देरी से हुआ, उनके बारे में किस्से कहानियाँ सुनने के अनेक वर्ष बाद। महाराष्ट्र के समाजवादी आंदोलन से मेरा पहला परिचय ९० के दशक में हुआ था, जब पहले जनआंदोलन समन्वय समिति और फिर समाजवादी जनपरिषद की स्थापना हुई। युवा क्रांति दल के साथी अजीत सरदार, प्रवीण वाघ और सुभाष लोमटे और समता आंदोलन के संजय मंगो, निशा शिवुरकर, शिवाजी गायकवाड़ और विलास भोंगाड़े जैसे कार्यकर्ताओं से परिचय मेरे लिए ताजा हवा के झोंके जैसा था। लेकिन यह मेरे समवयस्क या कुछ ही बड़े थे। मेरी पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को बड़ी पीढ़ी का सानिध्य भाई वैद्य और प्रा विलास वाघ जैसे नेताओं से मिला। मेरे प्रति भाई वैद्य का विशेष स्नेह था। संगठन के प्रति पूरी तरह समर्पण और संगठन निर्माण की कला कोई उनसे सीख सकता था — हर छोटे-बड़े साथी के दुख-सुख में जुड़ना, हर व्यक्ति में कुछ विशेष गुण ढूँढना और हर वक्त हौंसला बनाये रखना। बाद में पन्नालाल सुराणा जी से भी भेंट हुई और उनसे भी बहुत सीखने को मिला। महाराष्ट्र की समाजवादी परंपरा में बहुत कुछ है जिससे सभी समाजवादी सीख सकते हैं — व्यवस्थित काम, हर कार्यक्रम में सौंदर्यबोध, वैचारिक सजगता और महिलाओं की भागीदारी। इस दौर में जीजी को मैंने देखा लेकिन उनसे परिचय नहीं हुआ।
जीजी से नज़दीकी पिछले कुछ सालों में बढ़ी, समाजवादी जनपरिषद और आम आदमी पार्टी वाले दौर के बाद। इसमें गुड्डी और सुनीलम जी का विशेष योगदान रहा है। उनसे मिलकर मुझे ऐसा लगा जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जमाने के समाजवादी आंदोलन से तार जुड़ गया हो।यूसुफ मेहरअली, एसएम जोशी, नानाजी गोरे — ये सब मेरे लिए नाम थे, एक जमाने में मेरी शोध के विषय भी थे। लेकिन जीजी से मिलने के बाद इस परंपरा से रिश्ता महसूस हुआ। जीजी के माध्यम से मैंने समाजवादी आंदोलन की रचनात्मक कार्य की धारा का साक्षात्कार किया। राजनीति में रहकर चुनावी राजनीति से परहेज करना जीजी के जीवन का ऐसा अनूठा पक्ष है जिसे हमे उजागर करने की जरूरत है। इस मर्यादा के चलते जीजी अपनी ऊर्जा का एक मुख्य हिस्सा रचनात्मक काम को दे सके। अमूमन रचनात्मक काम के लिए गांधीवादियों का ही नाम लिया जाता है, और संदेह रहता है की ऐसा काम अराजनीतिक समझ के चलते सत्ता की गोद में बैठ जाता है। यूसुफ मेहरअली केंद्र के माध्यम से जीजी ने जन आरोग्य, शिक्षा और सहकारिता के साथ साथ आदिवासी समाज के बीच जो काम किया है वो रचनात्मक काम और राजनीति के संगम की एक सुंदर मिसाल है। पर्यावरण के सवाल को जिस गंभीरता से उन्होंने उठाया है वह सभी समाजवादियों के लिए एक नया रास्ता खोलता है।
पिछले कुछ वर्षों में जीजी के जिस पक्ष ने मुझे सबसे आकर्षित किया है वह है सांप्रदायिकता की राजनीति से किसी भी किस्म का समझौता ना करने का उनका दृढ़ संकल्प। पिछले तीस साल में समाजवादी आंदोलन से निकले अनेक नेता और संगठन बीजेपी की गोद में जा बैठे हैं। जो सीधे नहीं जुड़े हैं, उनमें से भी कई किसी ना किसी बहाने संघ परिवार से परोक्ष रिश्ता बना चुके हैं। इसने समाजवादी आंदोलन को बदनाम करने वालों को बहुत मौक़ा दिया है। ऐसे में जीजी जैसे समाजवादी का खुल कर नफ़रत और झूठ की राजनीति के ख़िलाफ़ खड़ा होना हमे याद दिलाता है की हमारे वक्त के सबसे बड़े अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ा होना ही हमारे समाजवादी होने की कसौटी है।
जीजी ने जिस तरह अगस्त क्रांति की मशाल जलाये रखी है, वह हम सब का हौसला ज़िंदा रखती है।इतिहास के इस मोड़ पर जबकि हमारे लोकतंत्र, संविधान और राष्ट्रीयता पर हमला हो रहा है, ऐसे में जीजी का पूरे आत्मविश्वास से खड़े रहना हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत है। आजीवन कांग्रेस का विरोध करने के बाद जब उन्होंने देखा कि आज कांग्रेस पार्टी बीजेपी-आरएसएस की नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ खड़ी हो रही है तो उन्होंने बिना हिचक भारत जोड़ो यात्रा को समर्थन दिया। जब भारत जोड़ो न्याय यात्रा का समापन मुंबई में हुआ तब जीजी ने उसे अगस्त क्रांति मैदान का रास्ता दिखाने और आशीर्वाद देने की हिम्मत की, जिससे इस प्रयास में जुड़े हम सब लोगों का हौसला भी बना रहा।
उम्र के इस पड़ाव पर अधिकांश इंसानों के तेवर ढीले पड़ जाते हैं। कहीं आत्मश्लाघा की इच्छा दबाव डालती है कि अब हम दैनंदिन संघर्ष से दूर रहें और पिछले कामों के पुण्य का आस्वादन करते रहें। जीजी ने यह आसान रास्ता नहीं चुना। इस आयु में भी उन्होंने भारत जोड़ो का नारा बुलंद किया है और “पर्यावरण सैनिक” तैयार करने का बीड़ा उठाया है। हमारा सौभाग्य है कि हम उनके शतायु होने के साक्षी हैं। चूँकि यह भारत के समाजवादी आंदोलन की उस गौरवमयी परंपरा का साक्षी बनना है जिसने ख़ुद खाद बनकर भारत रूपी क्यारी में समता और न्याय के फूल और फल उगाए हैं।
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