— अरुण माहेश्वरी —
मारिया कोरिना मेशाडो को नोबेल शांति पुरस्कार भारत के जनतांत्रिक और मताधिकार रक्षा के संघर्ष के लिए बेहद प्रेरणादायी घटना है वेनेजुएला की लातिन अमेरिका की आधुनिक राजनीति में एक नई पहचान 1999 में तब बनी थी जब वहाँ “बोलिवेरियन क्रांति” के प्रतीक ह्यूगो चार्ज ने राष्ट्रपति पद सँभाला और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ ग़रीबी दूर करने, तेल का राष्ट्रीयकरण करके उसके लाभों को आम जनता तक पहुँचाने की एक समाजवादी राष्ट्र की राजनीति को अपनाया । पर इसी क्रम में वेनेजुएला में तेज़ी से सत्ता के केंद्रीकरण, नागरिक अधिकारों और प्रेस की स्वतंत्रता के हनन की वही अवांछित प्रक्रिया देखने को मिली जिसकी चपेट में पहले के सभी सोवियत ढाँचे वाले समाजवादी देश आए थे जिसके चलते अंत में समाजवाद ही बिखर गया ।
चावेज शासन के इसी काल में सन् 2002 में मारिया कोरिना मेशाडो ने शासन में जन-भागीदारी के सवाल पर ‘सुमाते’ नामक एक नागरिक संगठन की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य चुनावों में पारदर्शिता और जनता के मताधिकार को सुनिश्चित करना था । ‘सुमाते’ ने यह दिखाया कि साधारण नागरिक भी राज्य-नियंत्रित व्यवस्था के भीतर पारदर्शिता की माँग कर सकते हैं जो निश्चित रूप से एक साहसिक विचार कहलाएगा ।
सन् 2004-2005 के बीच चावेज के ख़िलाफ़ एक ‘ जनमत संग्रह’ का आंदोलन हुआ, जिसमें मेशाडो ने बढ-चढ़ कर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । उस आंदोलन में लाखों हस्ताक्षर संग्रहित किए गए । उसी काल में मेशाडो पर राजद्रोह, विदेशी फंडिंग, और अमेरिकी एजेंट होने के आरोप लगे । मेशाडो ने एक अमेरिकी अनुदान की प्राप्ति को सार्वजनिक रूप से स्वीकारा था । उसे ही उनके खिलाफ़ राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया ।
यही वह वक्त था जब मेशाडो पूरे देश में लोकतांत्रिक विरोध की प्रतीक बनती चली गई । मेशाडो के नागरिक संगठन ‘सुमाते’ ने भारत के वर्तमान एडीआर और राहुल गांधी की तर्ज़ पर ही चुनावी डेटा, मतदाता सूची और तनाव में अनियमितताओं के दस्तावेज़ तैयार किए ।
मेशाडो ने 2005 में वहाँ के विपक्ष के द्वारा संसद के बहिष्कार के बाद पूरे विपक्ष की एकता को कायम करने में अग्रणी भूमिका अदा की । उन्होंने यूरोप और अमेरिका के मानवाधिकार मंचों पर आमंत्रित किया और वेनेज़ुएला में जनतंत्र की दुर्दशा पर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया । चावेज के दमन और उन पर ‘विदेशी एजेंट’ होने के अभियोग के बावजूद मेशाडो ने कभी देश नहीं छोड़ा । यहीं से उनका नैतिक क़द तेज़ी से बढ़ता चला गया ।
इसके बाद ही मेशाडो ने संसदीय राजनीति में कदम रखा और 2010 में पहली बार राष्ट्रीय संसद (National Assembly) के लिए सर्वाधिक मतों से चुनी गईं।
चावेज तक ने उनके साहसिक व्यक्तित्व को स्वीकृति देते हुए कहा था कि वे अमीरों की इस्पाती महिला है । चावेज के कथन में एक व्यंग्य भी था क्योंकि मेशाडो वेनेजुएला के इस्पात के एक उद्योगपति की बेटी है । पर लोगों के बीच उनकी फौलादी प्रतिमा दृढ़तर होती चली गई।
सन् 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में मेशाडो ने सीधे चावेज को चुनौती दी। पार्लियामेंट में खड़े होकर उन्होंने चावेज को ललकारते हुए कहा था कि “आज वेनेज़ुएला में कोई स्वतंत्र नागरिक नहीं बचा है। सब तुम्हारी अनुमति से साँस लेते हैं।” उनके इस वक्तव्य को सीधे प्रसारण के ज़रिये सारी दुनिया में सुना गया था।
2013 में चावेज की मृत्यु के बाद भी मेशाडो उनकी विरासत के विरोध पर अडिग रही ।निकोलस मैडुरो की सरकार के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया। 2014 से तानाशाही के अंत के लिए एक व्यापक अभियान में भी वे सक्रिय रही । इसके चलते उन्हें “विद्रोह भड़काने” के आरोप में नेशनल असेंबली से निलंबित कर दिया गया। परन्तु जनता में उनकी छवि चावेज के भय को चुनौती देने वाली एकमात्र लौह स्त्री के रूप में और मज़बूत होती गई।
इस प्रकार, मेशाडो को यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो कहना होगा कि वे ह्यूगो चावेज़ की बोलिवेरियन क्रांति के बीच से उभरी वेनेजुएला में एक जनतांत्रिक क्रांति की नेत्री हैं। उनकी भूमिका लोगों को यह बताती रही है कि “यदि समानता की क्रांति आपकी स्वतंत्रता को छीन ले, तो वह अन्याय का ही दूसरा नाम बन जाती है।”
इसीलिए हम कहेंगे कि इस बार का नोबेल शांति भारत में अभी मोदी की तानाशाही और वोट चोरी के कुचक्र के खिलाफ भारत की जनता के संघर्षों के लिए एक प्रेरक घटना है । हम मोशेडो को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने का हार्दिक स्वागत करते हैं ।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















