राममनोहर लोहिया — एक कुजात-गांधीवादी: स्मृति और संदेश

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Ram Manohar Lohia

भी-कभी कोई व्यक्ति समय के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। वह अपने युग की सुविधाओं, सत्ता की रीतियों और परंपरा की ठसक के सामने एक अकेली मशाल लेकर निकल पड़ता है—यह कहते हुए कि “मैं सहमत नहीं हूँ, क्योंकि मेरा विवेक जाग्रत है।”

डॉ. राममनोहर लोहिया ऐसे ही थे—राजनीति के पंडाल में एक असुविधाजनक प्रश्न की तरह, और समाज के बीच एक बेचैन आत्मा की तरह।

वे उन बिरले नेताओं में थे, जो अपने युग से आगे सोचते थे, और फिर भी मिट्टी की गंध से कटे नहीं थे। उन्होंने न केवल सत्ता से, बल्कि विचारों की जड़ता से भी विद्रोह किया। वे नायक नहीं, विवेक का प्रतीक थे—एक ऐसी चिंगारी जो गांधी की ज्योति से निकली जरूर थी, पर अपनी दिशा खुद तय करती थी।

एक समर्पित चेतना जो आराम नहीं जानती, और एक ऐसी तीव्रता जो सत्ता की चिकनी दीवारों को खरोंच कर ही मानती है।

वे केवल विचारक नहीं थे; वे अनुभवों के द्वारा सोचने वाले, जनता के बीच रहने वाले और अपने काल के अनुरूप गांधी को फिर से पढ़ने और परखने वाले ‘कुजात-गांधीवादी’ थे — उस श्रेणी के अनुयायी जो गांधी के शिलालेखों को पवित्र माला मानकर नहीं बल्कि अपनी बुद्धि और समय की कसौटी पर परखते हुए उसके मूल को जीवित रखने का प्रयत्न करते हैं।

लोहिया ने गांधीवाद को तीन तरह देखा — सरकारी गांधीवादी, मठाधीश गांधीवादी और कुजात-गांधीवादी। पहला वह था जो सत्ता के कक्षों में महकता है; दूसरा वह जो गांधी को मठों और संस्थानों में बंद कर देता है, उसे कर्मकांड बनाकर पूज्य बना देता है; पर सच्चा अनुयायी, लोहिया के अनुसार, वह है जो गांधी के विचारों को अपने युग की जरूरतों के अनुसार अपनाता और उनके अनुसार लड़ता है — विरोधाभासों के साथ, सवाल उठाते हुए, कभी आंख मूंदकर नहीं। यही कुजात-गांधीवाद लोहिया की राजनीति और जीवनशैली दोनों में दिखती है।

वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में मंजर ऐसा है कि,सरकार में तो कोई गांधीवादी बचे नहीं,केवल गाँधी के पोस्टर बचे हैं,मठी गांधीवादियों की भी हालत खराब है, ना केवल उनकी संख्या कम हो गयी है, उनके हठी व्यवहार के कारण लोग अब उनके मठों से बाहर आने लगे हैं, इसलिए सबसे ज्यादा संभावना कुजात गांधीवादियों की है।

मज़े की बात है कि लोहिया सांस्कृतिक प्रतीकों से भी दूरी बनाए हुए नहीं थे—यहाँ तक कि नास्तिक होने के बावजूद उन्होंने रामचरितमानस को एक सांस्कृतिक आयोजन के रूप में गले लगाया और 1961 में चित्रकूट में रामायण मेला की शुरुआत कर दिखाई कि संस्कृति और राजनीति अलग नहीं हो सकते।

वे लिखते हैं — “हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और बचन दो।” इस एकत्रित मानवीयता में वे चाहते थे: मस्तिष्क की गहराई, हृदय की उन्मुक्तता और कर्म की मर्यादा — एक ऐसा संतुलन जो व्यक्ति को स्वतंत्र सोच देने के साथ सामाजिक न्याय की मांग भी बनाए रखे।

लोहिया का निजी जीवन भी उनकी वैचारिक निर्भीकता का दर्पण था। जब महात्मा गांधी ने उनसे सिगरेट छोड़ देने के लिए कहा, तो उन्होंने कहा—सोचकर बताऊंगा—और फिर तीन माह बाद बता दिया कि छोड़ दी। यह न केवल अनुशासन था बल्कि अपनी शर्तों पर परिवर्तन स्वीकार करने की आज्ञा भी थी।

और प्रेम में भी वे पारंपरिक बंधनों से परे रहे; रमा मित्रा के साथ उनका जीवन-साथ केवल निजी स्वीकार्यता नहीं था, बल्कि उस जमाने में विवेक और मर्यादा का संयुक्त रूप था — दोनों ने अपने रिश्ते को छिपाया नहीं, पर उसका सम्मान किया — यह भी लोहिया की स्वाधीनता की ऐतिहासिक तस्वीर है।

राजनीति में उनका साहस और संवेदना दोनों बराबर थे। 1962 के आम चुनाव में जब उन्होंने ग्वालियर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया के ख़िलाफ़ सफ़ाईकर्मी सुक्खो रानी को मैदान में उतारा, तो वह सिर्फ़ चुनाव नहीं था — यह एक सामाजिक छेद पर चोट करने का प्रयास था। राजशाही और अभिजात्य का मुकाबला वंचित और बहिष्कृत के प्रतिनिधित्व से — यही उनका आदर्श था। उन्होंने कहा था कि हजारों वर्षों से जम गई चट्टानें सुक्खो रानी के मुद्दे पर टूटेंगी नहीं तो दरकेगी ज़रूर; यही आशा और विश्वास उनकी राजनीति का मूल था।

सत्ता और उसके स्वाभाव पर उनकी पकड़ सादा और कटु दोनों थी: सत्ता स्वयं जड़ता और स्वार्थ को जन्म देती है, इसलिए ‘तवे पर रोटी पलटती रहनी चाहिए’ — यानी निरंतर सत्ता परिवर्तन और जनता की सतर्कता। यही कारण है कि वे विपक्ष को सिर्फ़ विरोध समझकर नहीं, लोकतंत्र को सचमुच गतिशील रखने वाला एक बल मानते थे। उन्होंने यह दिखाया कि विपक्ष क्या होता है — वह जनता का दर्पण, उसका जागरूक कवच और सत्ता को चुनौतियाँ देता हुआ बल है।

इसके बावजूद, लोहिया के सफर की आलोचनाएँ भी हुईं और करना स्वाभाविक है। यह सच है कि गांधी हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके राजनीतिक अवतार भारतीय जनसंघ को राजनीतिक स्थान उनके कारण मिला — और कुछ विचारक कहते हैं कि लोहिया की राजनीति ने अप्रत्यक्ष रूप से उस स्पेस को खोलने में योगदान दिया।

पर राजनीति सरल गणित नहीं; लोहिया का उद्देश्य किसी विचारधारा का प्रिय होना नहीं था—उनका उद्देश्य था जनमानस की आवाज़ उठाना, भेद मिटाना और सामाजिक न्याय की हवा चलाना। कुछ उनके विचारों के साथ आएं, कुछ विरोध में — पर उनकी तीव्रता और जिंदा जनता की कल्पना आज भी चुनौती देती है।

उनकी भाषा में विनम्रता और विद्रोह साथ साथ थे—शांतिवादी होते हुए भी वे प्रबल क्रांतिकारी थे। वे मुक्त चिंतन, निर्भीकता, मौलिकता और एक अनूठे समन्वयवाद के प्रबल हिमायती थे। यही कारण है कि उनके विचारों के बहाने कई लोगों ने अपने राजनीति जीवन में परिवर्तन किया, कुछ उनके सिद्धांतों के साथ रहे और कुछ उनसे इतने जुड़ गए कि अब वे सत्ता में हैं — पर क्या वो अनुराग वास्तविक है, यह अलग प्रश्न है। पर जो अस्वीकार्य है, वह है भूलना: लोहिया का वह जोश, जनता के बीच रहने की उनका आग्रह और सत्ता को निरन्तर चुनौती देना — यह भूलना हम नहीं चाहिए।

12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत हुआ; पर उनके विचारों की गति रुकी नहीं। आज, जब हम लोकतंत्र की विखंडित लोककथाओं और दलवाद के दांवों के युग में खड़े हैं, तब लोहिया की वह पुकार और ज़रूरी लगती है: व्यवस्था को जनता के लिये बनाओ, दलों के खेल के लिये नहीं। गांधी ने पारंपरिक संसदीय लोकतंत्र पर चेतावनी दी थी—कि यह दलगत संरचनाओं को मजबूत करके जनता का पक्ष कमजोर कर देता है — और लोहिया ने उसी चेतना को आगे बढ़ाते हुए कहा कि असली अनुयायी वे हैं जो गांधी का मूल्यांकन समय के हिसाब से करेंगे, न कि उसके पदचिन्हों के ही पीछे चलकर उसे मृत कर देंगे।

मैं अपनी आवाज़ यहां इसलिए जोड़ता हूँ क्योंकि चुप रहना कई बार गुनाह सा लगता है। मैं उस नेतृत्व का समर्थन करूँगा — जो सबसे पहले इस देश को दलवाद के दावानल से बाहर निकाले, वेस्टमिन्स्टर मॉडल की मट्टी पलीत करे, गाँधी की ‘हिंद स्वराज’ को पढ़कर अपनी रणनीति बनाए और भारतीय लोकतंत्र को वास्तविक जनभागीदारी की राह पर ले जाए। फिलहाल ऐसा कोई भी दल या गठबंधन स्पष्ट रूप से इस दिशा में अग्रसर नहीं दिखता—सब आराम की मुद्रा में हैं; समाधान किसी की प्राथमिकता नहीं।

पर लोहिया ने सिखाया था कि राजनीति में असल काम तभी होता है जब तुम जनता के साथ समय-समय के संघर्ष में खड़े हो; कटु सत्य बोलो, असुविधाजनक प्रश्न उठाओ और तब कहीं जाकर समाज का स्वर बदलता है।

लोहिया जी के विचार और उनकी जीवंत यादें हमें हमेशा चुनौती दें: क्या हम केवल शिष्ट लेख पढ़कर संतुष्ट होंगे, या उनकी तरह समय की कसौटी पर विचारों को कसकर, जनता के संघर्ष में उतरकर, उनके लिये आवाज़ बनाकर जीयेंगे ?

राम मनोहर लोहिया को उनकी पुण्यतिथि पर नमन।


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