राममनोहर लोहिया की संस्कृति एवं भाषा~दृष्टि – परिचय दास

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Dr Ram Manohar Lohiya

Parichay Das

डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के वे दुर्लभ व्यक्तित्व हैं जिनकी दृष्टि केवल सत्ता या शासन तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज की आत्मा को उसकी संपूर्णता में देखा—उसके भीतर की भाषा, संस्कृति, लोकाचार, और चेतना के साथ। लोहिया के लिए राजनीति का अर्थ केवल शासन परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति का रूपांतरण था। उन्होंने बार-बार कहा कि स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब समाज की बहुलता को उसकी भाषा और संस्कृति के साथ स्वीकार किया जाएगा। वे उन गिने-चुने भारतीय विचारकों में थे जिन्होंने औपनिवेशिक मानसिकता से लड़ते हुए भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना का प्रश्न राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रखा।

लोहिया के लिए संस्कृति का अर्थ किसी स्थिर या जड़ परंपरा से नहीं था। उनके अनुसार संस्कृति एक जीवित, गतिशील और परिवर्तनशील प्रक्रिया है। वे यह मानते थे कि किसी भी समाज की सांस्कृतिक पहचान उसकी लोकभाषा, लोकगीत, लोककला और लोकानुभवों में छिपी होती है। उन्होंने कहा था कि “संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक जनता की भाषा में वह साँस नहीं लेती।” अंग्रेजी के प्रभुत्व और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा को वे सांस्कृतिक दासता का सबसे बड़ा कारण मानते थे। उनके विचार में अंग्रेजी केवल एक विदेशी भाषा नहीं थी, बल्कि वह भारत में एक सामाजिक विभाजन की दीवार बन गई थी। यही दीवार शिक्षित अभिजात वर्ग और आम जनता के बीच खड़ी थी, जिसने भारतीय समाज को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक वह जो अंग्रेजी बोलता है और सत्ता चलाता है, और दूसरा वह जो अपनी भाषा में जीता है पर निर्णय-प्रक्रिया से बाहर है।

लोहिया का भाषा-संबंधी विचार मूलतः लोकतांत्रिक था। वे कहते थे कि जब तक भारत में शासन और शिक्षा की भाषा अंग्रेजी रहेगी, तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आएगा। उनके लिए भाषा समानता का प्रश्न था, न कि केवल सुविधा का। उन्होंने बार-बार यह रेखांकित किया कि मातृभाषा में शिक्षा और शासन चलाना किसी देश की आत्मनिर्भरता की पहली शर्त है। अंग्रेजी माध्यम में सोचने वाला समाज अपने भीतर आत्मविश्वास नहीं पैदा कर सकता। इसीलिए उन्होंने भारतीय भाषाओं के प्रयोग को न केवल सांस्कृतिक स्वाभिमान, बल्कि राजनीतिक मुक्ति का भी माध्यम बताया।

लोहिया के संस्कृति-दर्शन में ‘बहुलता’ का विशेष स्थान है। वे किसी एकरूपता पर आधारित संस्कृति के विरोधी थे। वे मानते थे कि भारत की संस्कृति एक नहीं, बल्कि अनेक संस्कृतियों का संगम है। भारत की पहचान उसकी विविधता में है—भाषाई, धार्मिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक। उन्होंने ‘समानता में विविधता’ को भारतीय जीवन का सार बताया। उनके विचार में गंगा से गोदावरी, कावेरी से ब्रह्मपुत्र तक फैला यह देश लोकभाषाओं और लोकसंस्कृतियों का महासंगम है, और इस बहुलता को सम्मान दिए बिना कोई भी राष्ट्रीय संस्कृति नहीं बन सकती। लोहिया का यह दृष्टिकोण उस समय की आधुनिकता की पश्चिमी धारणाओं से भिन्न था, जो संस्कृति को एकरूप और केंद्रीकृत रूप में देखती थीं। वे भारतीय संस्कृति को जीवित लोक के माध्यम से समझते थे—उस लोक में जिसमें लोककथाएँ, लोकगीत, मेले, पर्व, व्रत, त्यौहार, बोली और व्यवहार शामिल हैं।

वे भाषा और संस्कृति को केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों से जोड़कर देखते थे। उनका कहना था कि जब तक भाषा का प्रश्न हल नहीं होगा, तब तक आर्थिक विषमता भी बनी रहेगी। अंग्रेजी शिक्षा ने समाज में एक नया वर्ग पैदा कर दिया था—अंग्रेजी जानने वाला उच्चवर्ग, जो शासन-सत्ता और नौकरशाही का केंद्र बन गया। लोहिया इस वर्गीय विभाजन को सांस्कृतिक गुलामी की परिणति मानते थे। उन्होंने कहा कि भारत में सबसे बड़ा पाप ‘अंग्रेजी पाप’ है, जिसने समाज में असमानता की जड़ें गहरी कर दी हैं। वे चाहते थे कि गांवों में, छोटे शहरों में और सामान्य जनता के बीच शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, ताकि भाषा की दीवार टूटे और संस्कृति का प्रवाह पुनः जनजीवन में लौटे।

डॉ. लोहिया के सांस्कृतिक चिंतन का एक और महत्वपूर्ण पहलू उनका ‘चौखंभा राज’ का सिद्धांत है। इस सिद्धांत में वे केंद्र से लेकर गांव तक सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करते हैं। यह केवल राजनीतिक ढांचा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि भी थी। वे मानते थे कि जब सत्ता गांव के स्तर तक जाएगी, तभी संस्कृति भी अपनी लोक जड़ों से जुड़ी रहेगी। केंद्रीकरण से संस्कृति शुष्क और नौकरशाही हो जाती है, जबकि लोक-संस्कृति जीवन की गति से चलती है। इसी कारण उन्होंने ‘अंतरराष्ट्रीयता’ के साथ ‘स्थानीयता’ को भी महत्व दिया। वे चाहते थे कि भारत की सांस्कृतिक चेतना विश्व के साथ संवाद करे, पर अपनी जड़ों से अलग न हो। उनके लिए ‘विश्व नागरिकता’ का अर्थ अपनी मातृभूमि और मातृभाषा को भूल जाना नहीं था, बल्कि उनके माध्यम से विश्व से संवाद करना था।

लोहिया के चिंतन में धर्म और संस्कृति का भी गहरा संबंध दिखाई देता है, पर वे धार्मिक कट्टरता या रूढ़ि के पक्षधर नहीं थे। वे धर्म को एक सांस्कृतिक अनुभव मानते थे, जो व्यक्ति को संवेदनशील बनाता है। उनके लिए राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर या गांधी—सभी भारत की सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक थे। वे इन सबको सांप्रदायिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक प्रतीकों के रूप में देखते थे। उनका यह दृष्टिकोण भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की एक समावेशी परंपरा को मजबूत करता है, जिसमें हर विचार और विश्वास का स्वागत है। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों में बार-बार कहा कि भारत को न तो पश्चिम से डरना चाहिए, न अपने अतीत से भागना चाहिए; बल्कि उसे अपनी परंपरा की मिट्टी में खड़े होकर आधुनिकता से संवाद करना चाहिए।

लोहिया के लिए भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं थी, बल्कि सत्ता और असमानता का प्रश्न भी थी। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का समर्थन किया, पर साथ ही यह भी कहा कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी समान महत्व मिलना चाहिए। वे ‘हिंदी बनाम गैर-हिंदी’ की बहस को कृत्रिम मानते थे। उनके अनुसार भारत की एकता केवल किसी एक भाषा से नहीं, बल्कि भाषाओं के आपसी सम्मान और सहअस्तित्व से संभव है। उन्होंने दक्षिण भारत की भाषाओं के प्रति जो संवेदनशीलता दिखाई, वह उनकी व्यापक भारतीय दृष्टि का प्रमाण है। वे इस बात पर बल देते थे कि यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनना है तो उसे अन्य भारतीय भाषाओं से प्रेम करना होगा, न कि उन पर शासन।

उनकी दृष्टि में भाषा एक भावात्मक और नैतिक शक्ति थी, जो समाज को जोड़ती है। वे कहते थे कि जो राष्ट्र अपनी भाषा में नहीं सोचता, वह कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। अंग्रेजी में सोचना, लिखना और शासन करना एक प्रकार की मानसिक गुलामी है, जो व्यक्ति को अपने समाज से काट देती है। इस मानसिक गुलामी से मुक्ति के लिए उन्होंने लोकभाषाओं को पुनर्जीवित करने का आंदोलन चलाया। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जब ग्लोबलाइजेशन के युग में अंग्रेजी का प्रभुत्व और स्थानीय भाषाओं का ह्रास बढ़ता जा रहा है।

लोहिया की संस्कृति-दृष्टि आधुनिकता के एक वैकल्पिक स्वरूप को प्रस्तुत करती है—ऐसी आधुनिकता जो अपनी जड़ों से जुड़ी है, लोक जीवन में निहित है, और जो मानवता को केंद्र में रखती है। वे पश्चिमी आधुनिकता की नकल के विरोधी थे, पर साथ ही परंपरा के अंधानुकरण के भी खिलाफ। उन्होंने कहा कि परंपरा तभी सार्थक है जब वह वर्तमान से संवाद करे। इसी संवाद में संस्कृति जीवित रहती है। उनका यह दृष्टिकोण भारतीयता की उस अवधारणा को पुनर्परिभाषित करता है जो आत्मसम्मान, समानता और रचनात्मकता पर आधारित है।

लोहिया की सांस्कृतिक चेतना में स्त्री, दलित, पिछड़े और किसानों का भी प्रमुख स्थान है। उन्होंने यह माना कि संस्कृति तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक समाज के हाशिए पर खड़े लोग उसमें शामिल न हों। उन्होंने न केवल राजनीति में ‘पिछड़ा वर्ग’ का प्रश्न उठाया, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी उन्हें पहचान दिलाने का प्रयास किया। वे कहते थे कि जब तक गाँव का आदमी, उसकी भाषा, उसका गीत, उसकी कथा और उसकी कला मुख्यधारा में नहीं आएंगे, तब तक भारत की संस्कृति अधूरी रहेगी। यही विचार उन्हें समाजवादी चिंतन से जोड़ता है, जिसमें समानता और न्याय केवल आर्थिक नहीं, सांस्कृतिक भी है।

लोहिया ने संस्कृति को संघर्ष का क्षेत्र माना। उनके लिए संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि निरंतर बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया है। उन्होंने इसे सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बताया। वे कहते थे कि संस्कृति यदि केवल अतीत की स्मृति बनकर रह जाए तो वह पतनशील हो जाती है; लेकिन यदि वह वर्तमान की चुनौतियों से संवाद करे तो वह सृजनशील बनती है। इस सृजनशीलता का केंद्र भाषा है—वही भाषा जो मनुष्य को अपने समाज से जोड़ती है। उनके लिए भाषा और संस्कृति का यह अंतःसंबंध भारतीय समाज की आत्मा का दर्पण था।

डॉ. लोहिया का यह सांस्कृतिक दृष्टिकोण आज भी भारत की बहुभाषिकता और सांस्कृतिक विविधता के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है। जब दुनिया में सांस्कृतिक एकरूपता के दबाव बढ़ रहे हैं, लोहिया की दृष्टि हमें याद दिलाती है कि असली शक्ति विविधता में है। वे उस भारत की कल्पना करते थे जहाँ हर भाषा, हर बोली, हर संस्कृति को समान सम्मान मिले; जहाँ शिक्षा मातृभाषा में हो; जहाँ राजनीति लोकजीवन से जुड़ी हो; और जहाँ संस्कृति किसी वर्ग की संपत्ति न होकर जन की चेतना हो। उनकी दृष्टि में भाषा, संस्कृति और राजनीति—तीनों एक दूसरे से गुँथे हुए हैं। कोई भी समाज तभी स्वतंत्र हो सकता है जब वह अपनी भाषा में सोच सके और अपनी संस्कृति में जी सके।

डॉ. राममनोहर लोहिया की संस्कृति एवं भाषा-दृष्टि हमें यह सिखाती है कि भारत की असली पहचान उसके लोक में है—उस लोक में जो मिट्टी, गीत, बोली, पर्व और संवाद से बना है। लोहिया ने जिस आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी भारत की परिकल्पना की, उसकी जड़ें इसी लोक-संस्कृति में हैं। उनका यह विचार आज के भारत के लिए न केवल एक ऐतिहासिक स्मृति है, बल्कि एक दिशा भी—ऐसी दिशा जो हमें बताती है कि आधुनिकता तभी सार्थक होगी जब वह अपनी भाषा में बोलेगी और अपनी संस्कृति में साँस लेगी।


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