सूर्य का आलोक: विश्व भर की आराधनाएं – परिचय दास

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Parichay Das

विश्व में सूर्य की पूजा एक ऐसे सांस्कृतिक रहस्य की तरह है जो समय, भूगोल और सभ्यता की सीमाएँ पार कर जाता है। पृथ्वी पर जब पहली बार मानव ने आँखें खोली होंगी, तो सबसे पहले उसने सूर्य को देखा होगा—आकाश में जलता हुआ, उज्ज्वल, सर्वव्यापक और अनिवार्य। इसी प्रथम साक्षात्कार से एक संबंध जन्मा—प्रेम और भय का, श्रद्धा और चमत्कार का। सूर्य को देखने में जैसे किसी परमतत्व की झलक मिलती है। वह दिखाई देता है, परंतु उसकी दृष्टि में छिपी हुई अग्नि को कोई झेल नहीं सकता। इसीलिए विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं ने सूर्य को न केवल देखा, बल्कि उसकी ओर प्रार्थनाएँ भेजीं, उसके लिए गीत रचे, उसके नाम पर मंदिर बनाए और उसकी छाया में अपने अस्तित्व का अर्थ खोजा।

भारत में सूर्य की पूजा सबसे प्राचीन परंपराओं में से एक है। वेदों के सूक्तों में “सविता,” “मित्र,” “भास्कर,” “आदित्य,” “पुषण,” जैसे अनेक नामों में सूर्य की स्तुति की गई है। ऋग्वेद का गायत्री मंत्र इसी चेतना का परम गीत है—सूर्य की वह उपासना जो केवल भौतिक प्रकाश के लिए नहीं, बल्कि चेतना के आलोक के लिए है। यह सूर्य का अध्यात्म है—जो बाहर भी जलता है और भीतर भी। बाद में उपनिषदों में सूर्य को ‘ब्रह्म’ का दृश्यमान प्रतीक माना गया—वह जो सबको एक साथ देखता है, जो समता का प्रकाश फैलाता है। इसीलिए भारतीय मनीषा में सूर्य के दर्शन केवल प्रातः की प्रार्थना नहीं, बल्कि अस्तित्व की स्मृति है—कि जीवन निरंतर गति में है और यह गति सूर्य की गति के बिना संभव नहीं।

मिस्र की सभ्यता में सूर्य ‘रा’ के रूप में पूजित हुआ। वह सृष्टि का आरंभकर्ता था—जिसकी नाव आकाश में चलती थी, जो हर दिन मृत्यु और पुनर्जन्म का अनुभव करता था। मिस्र के फ़राओ अपने को रा का पुत्र कहते थे। यह कल्पना केवल राजसत्ता का मिथक नहीं थी; यह उस गूढ़ विश्वास की स्वीकृति थी कि सूर्य के बिना शासन भी अंधकार है। मिस्र के मंदिरों में सूर्य के चिह्न इस प्रकार अंकित किए जाते थे कि जब पहली किरण प्रवेश करे तो देवमूर्ति के मुख पर पड़े—जैसे आकाश का अभिषेक हो रहा हो। यह वास्तुकला और आस्था का संगम था, जो सूर्य की गणना में सौंदर्य और गणित दोनों का संगम दिखाता है।

यूनान ने सूर्य को ‘हेलियोस’ कहा—सुनहरे रथ पर आकाश में यात्रा करते देवता। रोम ने उसे ‘सोल’ कहा और बाद में ईसाई सभ्यता ने क्रिसमस को उसी दिन के आसपास रखा जब सूर्य उत्तरायण होता है। यह संकेत था कि प्रभु का जन्म प्रकाश की वापसी है। यूरोप के उत्तरी देशों में जहाँ ठंड और अंधकार लम्बा रहता है, वहाँ सूर्य का दिखना एक उत्सव है—एक प्रकार की मुक्ति। स्कैंडिनेविया में “मिडसमर फेस्ट” आज भी सूर्य की आराधना का लोक उत्सव है—फूलों, नृत्यों और गीतों के साथ। वहाँ सूर्य का दर्शन जीवन की सबसे बड़ी राहत है—अंधकार की लंबी रातों में यह किसी दिव्य आश्वासन की तरह लौटता है।

माया, एज़्टेक और इंका सभ्यताओं में सूर्य सर्वोच्च देवता था। पेरू के कुस्को में स्थित “कोरिकांचा”—सूर्य मंदिर—सोने से मढ़ा हुआ था। वहाँ सूर्य को जीवनदाता माना गया। इंका लोग विश्वास करते थे कि जब सूर्य रुक जाएगा तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। उनकी पूजा में सूर्य के लिए संगीत, नृत्य और बलिदान सब सम्मिलित थे। सूर्य उनके लिए मात्र प्रतीक नहीं, सजीव प्राणी था—जो खेतों को फलाता है, वर्षा को बुलाता है और आत्मा को दिशा देता है। इन सभ्यताओं में सूर्य की पूजा किसी धर्म की तरह नहीं, बल्कि जीवन की निरंतरता का उत्सव थी।

जापान ने अपने राष्ट्रध्वज में ही सूर्य को अंकित किया—लाल गोल बिंदी के रूप में। वहाँ सूर्य देवी ‘अमातेरासु’ को सृष्टि की जननी माना गया। जापानी परंपरा में सम्राट स्वयं को उसी देवी का वंशज मानता है। जब जापान में भूकंप या तूफ़ान आता है, तो लोग सूर्य की ओर मुख करके मौन प्रार्थना करते हैं कि प्रकाश फिर लौटे, क्योंकि सूर्य का लौटना जीवन का लौटना है। यह प्रार्थना इतनी सरल है कि वह किसी उपदेश से बड़ी है—जैसे कोई बच्चा अपने माता के लिए पुकार रहा हो।

ईरान के पारसी धर्म में सूर्य को ‘मित्र’ के रूप में सम्मानित किया गया, और “मिथ्रा” का उत्सव—जिसे बाद में रोमनों ने अपनाया—सूर्य के पुनरागमन का प्रतीक था। यह मिथक ईसाई धर्म की प्रारंभिक कल्पनाओं में भी घुला रहा। इस प्रकार सूर्य की पूजा ने धर्मों के बीच एक मौन संवाद रचा—जिसमें कोई संप्रदाय नहीं, केवल आलोक की चाह थी।

चीन की प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य ‘यांग’ का प्रतीक था—पुरुषत्व, सक्रियता और उष्मा का। वहाँ के पर्वों में सूर्य और चंद्रमा का संतुलन साधा गया, जिससे जीवन की पूर्णता बनी रहे। यह विचार दार्शनिक था—कि सूर्य बिना अंधकार के अर्थहीन है, और अंधकार बिना सूर्य के भयावह। यह संतुलन, यह द्वंद्व, संसार का धर्म है।

भारत में सूर्य की पूजा सबसे भावनात्मक रूप में छठ पर्व में दिखाई देती है। यह किसी देवालय की पूजा नहीं, बल्कि नदी के जल में खड़े होकर की जाने वाली आत्मिक प्रार्थना है। यहाँ कोई पुजारी नहीं, कोई प्रतिमा नहीं—सिर्फ अस्त होते और उदय होते सूर्य को समर्पण है। जब संध्या की लालिमा में औरंग, पीत और सुनहले रंग मिलते हैं, तब लगता है जैसे मनुष्य स्वयं सूर्य का प्रतिबिंब बन गया हो। यह पूजा खेतों, घरों, नदियों, बच्चों और मातृत्व का उत्सव है। इसमें आकाश और धरती के बीच एक अदृश्य सेतु बनता है—जहाँ स्त्री जल में खड़ी होकर सूर्य से संवाद करती है। यह दृश्य केवल पूजा नहीं, बल्कि मनुष्य की धरती से आसमान तक की चढ़ाई है।

सूर्य की पूजा में एक गहरा सौंदर्यशास्त्र भी है। यह पूजा वस्तुतः प्रकाश के अनुशासन की स्वीकृति है। जैसे सूर्य हर दिन नियत समय पर उगता है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी किसी नैतिक लय में रहना चाहिए। सूर्य के बिना दिशा नहीं, और दिशा के बिना जीवन नहीं। कवियों ने इसी कारण सूर्य को नायक माना—निराला से लेकर रवींद्रनाथ तक, सूर्य एक प्रतीक बनता है जागरण का, नवजीवन का। रवींद्रनाथ ने लिखा—“एकलव्य की तरह मैं सूर्य को प्रणाम करता हूँ।” यह प्रणाम ज्ञान का है, अनुशासन का है।

सूर्य केवल देवता नहीं, एक दार्शनिक तत्त्व भी है। वह हमें सिखाता है कि हर दिन नया आरंभ संभव है, कि हर अंधकार अंततः किसी भोर को जन्म देता है। यह विचार जितना धार्मिक है, उतना ही मानवीय भी। जब हम विश्व की विभिन्न सभ्यताओं की ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि सूर्य के प्रति यह श्रद्धा किसी विशेष परंपरा की देन नहीं, बल्कि मानवता का साझा बोध है।

आधुनिक युग में जब विज्ञान ने सूर्य को गैस और ऊर्जा के विशाल गोले के रूप में परिभाषित किया, तब भी उसकी पूजा की सांस्कृतिक धारा रुकी नहीं। वैज्ञानिक उसकी दूरी, ताप और रचना समझते रहे; किंतु कलाकार, कवि और साधक उसमें जीवन का संगीत सुनते रहे। भारत के योग में ‘सूर्य नमस्कार’ आज भी शरीर और आत्मा की समरसता का अभ्यास है। यह विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संगम है—जहाँ सूर्य केवल बाहरी ग्रह नहीं, भीतर की चेतना का केंद्र बन जाता है।

विश्व की हर पूजा में सूर्य एक ही बात कहता है—कि प्रकाश बाँटना ही जीवन है। अंधकार को जीतने का अर्थ उसे मिटाना नहीं, बल्कि उसमें दीप प्रज्वलित करना है। जब कोई किसान सुबह खेत में निकलता है, कोई नाविक समुद्र की ओर जाता है, कोई कवि खिड़की खोलकर पहली किरण को छूता है—तब वे सब उसी प्राचीन परंपरा के उत्तराधिकारी हैं, जिसने सूर्य को देखकर जीवन का अर्थ जाना।

सूर्य की पूजा का अर्थ है—जीना सीखना। यह पूजा किसी देवता से अधिक उस विश्वास की है कि जीवन, भले ही कितना ही अंधकारमय क्यों न हो, उसमें एक क्षण ऐसा आएगा जब प्रकाश लौटेगा। यही विश्व का सनातन सूत्र है—प्रकाश ही धर्म है, प्रकाश ही कविता है, प्रकाश ही मनुष्य का सत्य।


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