छठ और चुनावी समर में बिहार- दो उत्सव साथ

1
Chhath and Bihar in the election season

Randhir K Gautam

— रणधीर कुमार गौतम और केयूर पाठक —

ठ “हिन्दुओं” का त्यौहार नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. त्यौहार समाज का होता है- उसमें रहनेवाले सभी तरह के लोगों का. और उसमें रहने वाले सभी विचार-दर्शन और विश्वास के लोगों का. इसलिए छठ सम्पूर्ण बिहारियों की सांस्कृतिक विरासत है. इसमें हिन्दू भी है, मुसलमान भी, सिख भी और इशाई भी. यह त्यौहार उन बिहारियों का है जिनकी नियति में पलायन की पीड़ा है, और स्मृति में अनगिनत दुःख और अपमान. छठ उन्हें वर्ष में कम से कम एक बार घर लौट आने का मजबूत कारण देता है. वे बसों में लटककर, ट्रेनों के शौचालयों में बैठकर, और जीवन-जीविका को दांव पर रखकर घर आ ही जाते हैं. ‘घर लौट आना’ वस्तुतः जीवन के मरुस्थल में बारिश का आना है.

बिहारी शब्द केवल एक गाली नहीं है, यह एक त्रासदी का भी नाम है. बिहारियों के पास इन त्रासदियों से निकलने का एक ही सहारा है- छठ. हर वर्ष उनके जीवन में बस एक बार सामूहिक आनंद का पल आता है. इस दौरान एक-एक बिहारी “सुखी-संपन्न” महसूस करने लगता है. वह सामाजिक रूप से सुसंगठित हो जाता है और आर्थिक अभाव उसके जीवन को प्रभावित नहीं कर पाता, क्योंकि सामाजिक सहयोग अभावों से निबट लेता है.

किसी भी त्यौहार का महत्व उसके प्रतीकात्मक व्यवहारों में निहित होता है. प्रतीक एक अर्थ को देता है, जिन अर्थों से सामाजिक संरचना निर्मित होती है. और उन प्रतीकों में छुपा होता है उस समाज के लोगों का जीवन-दर्शन. ये दर्शन उनके दैनिक क्रियाकलापों को नियमित और नियंत्रित करता है. छठ के प्रतीकात्मकता को हम निम्न तरीके से समझ सकते हैं- सूर्य-उपासना- सूर्य उर्जा का प्रतीक है. यह जीवन और प्रकाश का प्रतीक है. इसलिए तो कहा गया- ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’. लेकिन यह तो सामान्य बात हुई कि उगते सूर्य की उपासना की जाती है. छठ का पहला अर्घ्य ही डूबते सूर्य को समर्पित किया जाता है, तत्पश्चात उगते सूर्य को अर्घ्य के उपरांत छठ का समापन होता है. इसका अर्थ हुआ कि इस समाज की अंतस-चेतना में एक समावेशिता है. जीवन के शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति तो सम्मानित है ही, साथ ही उनके प्रति भी सम्मान जो अवसान में है. यहाँ तक कि पहले उनका ही सम्मान जिनकी उपयोगिता समाप्त होने को है. समाज के लिए अनुपयोगी कुछ भी नहीं, और उपयोगी कुछ भी नहीं. जो उपस्थित है, और जो अनुपस्थित है- सबके प्रति समभाव. सूर्य के डूब जाने से और सूर्य के उग आने से उसका महत्व कम नहीं होता.

पवित्रता और संयम- छठ के सबसे अहम् अंग हैं. हरेक कार्यों में शुद्धता रखने का प्रयास होता है. यह शुद्धता केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक भी होती है. हमने अनुभव किया है कि इन दिनों सामाजिक जीवन में “अप्रिय” माने जाने वाले व्यक्ति के प्रति भी समादर का भाव विकसित रहता है. उन दिनों दुष्कार्य से दूरी रखी जाती है. साथ ही बड़े से बड़े संकट में भी हमें जीवन में धैर्य रखने को प्रेरित करता है. एक जगह किसी ने एक तर्क रखा कि फलां राज्य के लोगों के साथ भेदभाव होता है, इसलिए वहां के अनगिनत लोग भारतीयता के साथ अपना जुडाव महसूस नहीं करते हैं, और वहां अलगाववादी शक्तियां सक्रिय होती रहती हैं, लेकिन यह तर्क अगर सही है तो बिहारी तो सदियों से सबसे अधिक उपेक्षित और अपमानित समुदाय रहा है इसके बाद भी वहां अलगाववादी शक्तियां कभी उतपन्न नहीं हुई. समाजशास्त्री दुर्खीम कहते थे कि पवित्रता का भाव ही समाज को जन्म देता है, उसके अस्तित्व को बनाए रखता है और उसकी चेतना को पोषित करता है। बिहार की सामूहिक चेतना का एक प्रतीक बनकर छठ पर्व बिहार को अनेक परंपराओं से जोड़ते हुए बिहार की चेतना को सनातन रूप देता है।

सतत-उत्पादकता– प्रकृति और पर्यावरण से युक्त होने के कारण इस पर्व की क्रियाविधियां जगत की उत्पादकता के मूल्यों को भी समाहित किये है. इसमें सतत विकास का भी मूल्य है जिसमें नदी, सूर्य और अनगिनत वनस्पतियों के द्वारा उसके महत्व को हर वर्ष स्थापित करने का प्रयास होता है. नदी को पूजना और सूर्य को पूजना अंधविश्वास नहीं है, अपितु यह वह जीवन-दृष्टि है जिसमें उन तमाम चीजों के प्रति एक सम्मान का भाव है जिससे जीवन और जीविका संचालित होती है.

सामूहिकता: नदी और तालाबों के किनारे सभी लोग जब एकत्रित होकर समारोह मनाते हैं तो यह एक विशेष प्रकार की सामूहिकता का निर्माण करती है. इस सामूहिकता में न तो जातिगत या धार्मिक भेदभाव है, और न वर्गीय विभाजन. साथ ही इसमें कोई लैंगिक या आयुजनित विभेद भी नहीं होता. समाज अपनी सम्पूर्णता में मुखरित होता है.

इस बार का छठ विशेष है, क्योंकि पलायन किये हुए लोग केवल छठ मनाने के लिए वहां नहीं जा रहें, बल्कि सजग राजनीतिक चेतना के साथ भी जा रहें हैं. वहां एक तरफ भाजपा और नितीश का गठजोड़ है, दूसरी तरफ राजद का गठबंधन है, लेकिन एक तीसरी धारा भी वहां के चुनावी समर में है- जनस्वराज. जनस्वराज वहां और कुछ करें या न करें, लेकिन उसकी उपस्थिति वहां की पारंपरिक राजनीति में एक खलबली तो मचा ही चुकी है. राजद पर भाजपा के द्वारा जंगलराज का आरोप है, तो भाजपा के पास एक तरह से स्थानीय नेतृत्व का अभाव दीखता है.

मुख्यमंत्री नितीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी अपनी लोकप्रियता कतिपय कारणों से खो चुके प्रतीत होते हैं. ऐसे में जनस्वराज वहां एक अहम् धारा है जो सरकार में आए या न आए लेकिन सरकार के बनने-बिगड़ने में उसकी भूमिका अहम् होगी. जनता चाहती है कि जो भी सत्ता में आए वे उनके पलायन को रोकें, देश में बिहारियों की छवि ठीक करें और वहां भी रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं. राजद के पास जो अपना पारंपरिक मतदाता वर्ग है मुस्लिम-यादव का उसके टूटने की संभावनाएं कम दिखती है, ऐसे में यह कहना कि चुनाव में जाति-मजहब का प्रयोग नहीं होगा ऐसा कहना सही नहीं है, फिर भी इस बार का चुनाव केवल जाति-मजहब के आधार पर भी नहीं होनेवाला-आर्थिक मुद्दे भी केन्द्रीय मुद्दे होंगे- लोग तंग आ चुके हैं पलायन और बेकारी और अपमान से.

बिहार, जो जातिगत राजनीति से ग्रसित रहा है, आज सांप्रदायिक राजनीति के काफी डर में है। ठीक ऐसे समय में, बिहार की अस्मिता इन दोनों — धर्म और जात — बंधनों से समाज को थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन मुक्त करती है। छठ पर्व एक बिहारी का आग्रह करता है, जिसमें प्रेम है, त्याग है, तपस्या है, बलिदान है और सहजता है।

छठ का गीत सुनते हुए आपको यह महसूस ही नहीं होगा कि आप मैथिल हैं या मगही। बिहार की विविध सामुदायिक सीमाओं को लांघता हुआ यह पर्व गौरवशाली बिहार की परंपरा की याद दिलाता है ; उस बिहार की, जिसे हम गर्व से “भारत के इतिहास का हृदय” कहते हैं।

लेकिन पहले हम छठ तो मना लें फिर लोकतंत्र का उत्सव मनाएंगे- “उग हे सूरज देब-अरग के बेर”.


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

1 COMMENT

  1. बिहारी जानो के लिए सामाजिक सहयोग की लेखकों ने जो कही है वह छठ पर्व का सबसे अच्छा पारिवारिक जीवन में अपने घरेलू समस्याओं को समझने का वक्त है।इससे ज्यादा कुछ नहीं है। पवित्रता अपवित्रता की बाते आपस में मनमैला करती है। सांप्रदायिकता ही पवित्रता को जन्म देती है। लोगों में अपवित्रता के नाम पर जातीयता उच्च नीच और अमीर गरीब का भेद पैदा करती हैं। अगर इस बात को ध्यान में रखते हुए यह लेख लिखा होता तो शायद उन्होंने नदी की पूजा करना अंध विश्वास नहीं है इस तरह की बाते नहीं कही होती।उन्होंने और एक बात का जिक्र किया है जो यह हैं कि, ट्रेनोमें आनेवाली दिक्कतें झेलते हुए बिहार के के अपने परिवार को मिलने जरूर कहिसेभी आते ही है। यह आना एक सामाजिक समवाय का प्रतीक है जो सभी भेदभाव को मिटाता है।यह भेदभाव मिटाने का अवसर सिर्फ संविधान मूल्यों से मिला है इस बात को नजरअंदाज किया गया है।अगर लोकतंत्र नहीं होता तो शायद यह छठ पर्व जातपात के बीच नदिका बटवारा करके पानी और भी गंदा कर देता।
    तब धर्म की छवि पर प्रश्न नहीं उठता। त्यौहार तो अपने अपने धर्म के होते है। इसे अपने अपने ढंग से मानने की सहूलियत संविधान ने दी है। पवित्रता अपवित्रता को मिटा दिया है। इसलिए यह कहना ठीक होगा कि पूजा चाहे व्यक्तिकी हो या किसी नदी,देवता,सूर्य या चांद की हो वह पूजा जिसकी होती हैं उसे विभूति बना देती है।बेहतर यह होगा कि ऐसी विभूतियां को लेकर पूजा करना छोड़ देना चाहिए और संविधान से मिला सामाजिक समवाय को अपनाना चाहिए।ताकि कोई भेदभाव ही पैदा न हो। लेखक इसे समझे तो समाजशास्त्र की परिभाषा बदल सकती हैं नहीं तो नहीं। पुराने ढंग से ही विश्लेषण होता रहेगा।
    भगवान अवघडे

Leave a Comment