
छठ की संध्या घाटों पर उतरते ही दृश्य बदल जाता है। सूर्य का अस्त जल में प्रतिबिंबित होकर झिलमिलाता है और घाट के किनारे खड़ी महिलाएँ अपने हाथों में सूप और डाला थामे, जैसे समय और स्थान की सीमाओं को पार कर रही हों। यह दृश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान का नहीं बल्कि एक संपूर्ण दृश्य-कला का अनुभव है। पिकासो की असामान्य रेखाएँ, मिरो की जादुई आकृतियाँ और वान गॉग के तारों भरे आकाश की तरह, छठ का घाट भी प्रकाश, रूप और प्रतीक के माध्यम से जीवन और चेतना के बीच एक संवाद स्थापित करता है। यह दृश्य हमें याद दिलाता है कि लोक संस्कृति और वैश्विक कला के बीच कोई स्पष्ट सीमाएँ नहीं हैं; संवेदनाएँ और अनुभव सार्वभौमिक हैं।
बाँस का डाला, जिस पर फल, ठेकुआ और दीपक रखा जाता है, साधारण दिखाई देता है पर उसमें स्थायित्व और लचीलापन का संदेश छिपा है। बाँस की झुकने की क्षमता, उसकी मजबूती और सरलता आधुनिक डिजाइन और वास्तुकला के सिद्धांतों से मेल खाती है। वह बताता है कि जीवन में संतुलन और लचीलापन एक साथ हो सकते हैं। जब व्रती स्त्री अपने दोनों हाथों में डाला लेकर घाट की ओर बढ़ती है, तो वह केवल श्रद्धा व्यक्त नहीं कर रही होती बल्कि एक कला प्रदर्शन का हिस्सा बन जाती है। डाले में रखे फल और नारियल केवल अन्न या सामग्री नहीं बल्कि श्रम, समर्पण और लोक जीवन का प्रतीक हैं।
सूप, या सूपा, छठ का केंद्रीय उपकरण है। इसे देखना जैसे एक आधुनिक कलाकार का कैनवास देखना हो, जिस पर जीवन और श्रम के सभी रंग बिखरे हों। सूप की पतली पट्टियाँ, उसका फैलाव, और उसमें रखे दीपक और फल मिलकर केवल दृश्य नहीं बल्कि अनुभव और प्रतीक का पुल बनाते हैं। विदेशी समकालीन कला में रोजमर्रा के वस्तुओं का पुनः प्रयोग देखा जाता है, जैसे जॉसेफ कोसुथ की स्कल्पचर या डोरिस साल्ट की इंस्टॉलेशन। छठ में भी सूप यही कार्य करता है—यह साधारण वस्तु से अद्भुत दृश्य और प्रतीक निर्माण करता है।
सूप पर रखे ठेकुआ, केला, अदरक, नींबू, बेलपत्र, सिंदूर और लाल वस्त्र का टुकड़ा, सभी लोक और वैश्विक प्रतीकवाद का मिश्रण हैं। ठेकुआ श्रम का रूप है, केला और नींबू जीवन और संतुलन का प्रतीक हैं, बेलपत्र संयम और संतुलन का, सिंदूर ऊर्जा और मंगल का, लाल वस्त्र शक्ति, सौन्दर्य और मातृत्व का संकेत है। ये सभी मिलकर केवल दृश्य या सामग्री नहीं बल्कि अनुभव और अर्थ के प्रतीक बनते हैं।
सूप बनाने वाले शिल्पकार का जीवन और दृष्टि अपने आप में एक काव्यात्मक संसार है। बाँस की पतली-सी पट्टियाँ हाथों में लेकर जब वह सूप का ढाँचा गढ़ता है, तो केवल एक उपयोगी वस्तु नहीं बनती; वह अनुभव, संवेदना और संस्कृति की एक संपूर्ण छवि रचता है। उसकी दृष्टि में प्रत्येक पट्टी, प्रत्येक मोड़, प्रत्येक जोड़ जीवन की लय और मानव अनुभव की संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करता है। यह काम केवल श्रम नहीं, बल्कि ध्यान और सौन्दर्य की साधना है।
सूप बनाने वाला वर्ग सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसकी कारीगरी लोक संस्कृति का आधार है। वह न केवल वस्तु बनाता है, बल्कि समुदाय के जीवन और परंपराओं को जीवित रखता है। गाँव में सूप का प्रयोग छठ या अन्य लोक अनुष्ठानों में होता है, और यह सामाजिक एकता और साझा अनुभव का प्रतीक बन जाता है। शिल्पकार की मेहनत के बिना यह साझा संस्कार असंभव है। वह मिट्टी, बाँस और पानी जैसी प्राकृतिक सामग्री को लेकर न केवल उपयोगी वस्तु बनाता है, बल्कि उसमें लोक सौंदर्य और प्रतीकात्मकता का गूढ़ बोध भी समेटता है।
ललित दृष्टि से देखें तो यह वर्ग समय और साधना का शिक्षक है। उसकी कारीगरी बताती है कि सादगी में भी सौंदर्य संभव है, और उपयोगिता में भी कला। हर सूप में उसका अनुभव, उसकी संवेदनशीलता और उसका जीवन-ज्ञान अंकित होता है। वह यह दिखाता है कि साधारण कार्यों में भी आत्मा का प्रतिबिंब और समाज के साथ गहरा संवाद छिपा होता है। यही कारण है कि सूप का हर टुकड़ा केवल उपकरण नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और ललित सौंदर्य का जीवंत प्रतीक बन जाता है।
कलश, मिट्टी या पीतल का घड़ा, पृथ्वी और जल का प्रतीक है। इसमें भरा जल जीवन का सार है और ऊपर रखा नारियल और आम के पत्ते प्राकृतिक समृद्धि का संकेत। कलश की गोलाई और पूर्णता गर्भ की तरह है, जिसमें सृष्टि का बीज सुरक्षित रहता है। जब व्रती जल से भरा कलश सूर्य को अर्पित करती है, वह केवल जल अर्पण नहीं करती; वह अपने भीतर की उर्वरता, ऊर्जा और जीवन शक्ति का अनुभव करती है। यह दृश्य हमें बताता है कि लोक अनुष्ठान और पर्यावरणीय चेतना, दोनों को एक साथ देखा जा सकता है।
दीपक, जिसकी लौ झिलमिलाती है, अंधकार के विरुद्ध चेतना और ऊर्जा का प्रतीक है। जैसे जेम्स टररेल की लाइट इंस्टालेशन में प्रकाश ही कला बन जाता है, वैसे ही छठ में दीपक केवल अंधकार मिटाने वाला नहीं बल्कि अनुभव, चेतना और विश्वास का माध्यम है। दीपक की हर झिलमिलाहट हमें समय की क्षणभंगुरता और स्थायी अर्थ दोनों की याद दिलाती है। दीपक के माध्यम से प्रकाश और जीवन की ऊर्जा, अंतरराष्ट्रीय कला और दर्शन के दृष्टिकोण से, मानव अनुभव का केंद्रीय तत्व बन जाती है।
थाली और कटोरी में रखे प्रसाद—ठेकुआ, केला, नारियल—साधारण प्रतीत होते हैं, पर उनका अनुभव वैश्विक भोजन और सांस्कृतिक स्थायित्व के सिद्धांत से मेल खाता है। यह केवल भोजन नहीं बल्कि श्रम, साधना और लोक संस्कृति का मिश्रण है। हर व्रती जब अपने हाथों से प्रसाद रखती है, वह एक सामूहिक कला रचना का हिस्सा बनती है, जिसमें व्यक्तित्व, समुदाय और प्रकृति एक साथ उपस्थित होते हैं।
लोटा या कमंडल, अर्घ्य जल के लिए प्रयुक्त, सूर्य और मानव के बीच सेतु बनता है। इसमें जल का स्पर्श केवल भौतिक नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक है—यह श्रम, श्रद्धा और चेतना का मिलन है। पश्चिमी मनोविज्ञान और समकालीन दर्शन में भी पानी का प्रयोग शुद्धता, प्रवाह और चेतना के प्रतीक के रूप में किया जाता है। छठ में जल अर्पित करना वही कार्य करता है, जो आधुनिक कला और अनुभवात्मक मनोविज्ञान में देखा जाता है—वह अंतर और अनुभव के बीच पुल बनाता है।
नारियल का कठोर बाहरी आवरण और रसपूर्ण भीतर की अवस्था जीवन की द्वैत प्रकृति को दर्शाती है। यह बाहरी कठोरता और भीतर की निर्मलता की स्थिति, मानव चेतना और अंतरात्मा के द्वंद्व को व्यक्त करती है। जब नारियल कलश के ऊपर रखा जाता है, वह केवल पूजा का हिस्सा नहीं बल्कि शक्ति, ऊर्जा और स्थायित्व का दृश्य अनुभव बन जाता है।
गन्ना या ईख का प्रयोग छठ में स्थायित्व और मिठास के प्रतीक के रूप में होता है। घाटों पर खड़े गन्ने, जैसे स्तम्भ, सूर्य के लिए बने मंदिर की अनुभूति कराते हैं। यह दृश्य समकालीन पर्यावरणीय कला और प्राकृतिक वास्तुकला के सिद्धांतों से मेल खाता है। गन्ने की लंबाई और सीधी रेखा जीवन में संतुलन और ऊर्जा का प्रतीक है।
दीपदान, जिसमें कई दीपक एक साथ जलते हैं, सामूहिक चेतना और अनुभव की प्रतिकृति है। यह दृश्य वैश्विक कला की सामूहिक इंस्टॉलेशन की याद दिलाता है, जहाँ अलग-अलग प्रकाश एक साथ एक अनुभवात्मक तंत्र बनाते हैं। यह व्यक्ति और समाज, लोक और प्रकृति, अनुभव और प्रतीक के बीच संवाद स्थापित करता है।
मंजूषा या ढोकी, बाँस या पुआल से बनी, छत्रनुमा सजावट, लोककला और पर्यावरणीय चेतना का प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह केवल सजावट नहीं बल्कि प्रक्रिया, समय और स्मृति का अनुभव है। यह दर्शाती है कि स्थानीय संसाधनों और श्रम से भी वैश्विक दृष्टि के अनुरूप कला बनाई जा सकती है।
छठ के उपकरण और उनका उपयोग केवल पूजा का माध्यम नहीं हैं; यह अनुभव, संवेदना और प्रतीक का एक समग्र तंत्र है। यह लोक और वैश्विक दृष्टि, पारंपरिक और आधुनिक, धार्मिक और सौंदर्यात्मक अनुभवों को एक साथ जोड़ता है। सूप में रखे दीपक, गन्ने की लंबाई, कलश का जल, ठेकुआ और फल — यह सब मिलकर अनुभव की यात्रा बनाते हैं।
सूर्य उदय और अस्त की बेला, जल में उसके प्रतिबिंब के साथ सूप में रखे दीपक की लौ — यह दृश्य केवल श्रद्धा का नहीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय कला, दर्शन और मनोविज्ञान का अनुभव है। छठ हमें दिखाता है कि मानव और प्रकृति का संवाद, श्रम और श्रद्धा का संगम, स्थायित्व और परिवर्तन की समझ — यही जीवन का असली सौन्दर्य है।
छठ केवल पर्व नहीं बल्कि एक ललित निबंध, अनुभव और दृश्य कला का महाकाव्य बन जाता है। यह लोक, वैश्विक दृष्टि, प्रकृति, मनोविज्ञान और कला के बीच एक पुल है, जहाँ श्रम, श्रद्धा और चेतना मिलकर जीवन के अर्थ को प्रकट करते हैं।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















