हिंसा और हास्य के बीच बिहार का चुनाव – अरुण कुमार त्रिपाठी

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bihar Election

Arun Kumar Tripathi
बिहार राजनीतिक तौर पर एक जागरूक प्रदेश माना जाता है। इसलिए कोई भी संचार माध्यम बिहार विधानसभा के चुनाव की उपेक्षा कर नहीं सकता। बिहार इस बात में यकीन नहीं करता कि मौन भी अभिव्यंजना है। बल्कि वह खुलकर बोलता है। बहस करता है और अपने बारे में जो कुछ कहा सुना जाता है और विमर्श होता है उसे सुनता, गुनता और पढ़ता है। बल्कि अगर यह कहा जाए कि हिंदी समाज ही नहीं अंग्रेजी समाज के बौद्धिक वातावरण के निर्माण और उसके स्तर को बनाए रखने में बिहार का बड़ा योगदान है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बिहार के लोगों की बहसें और उनकी बेचैनियों ने पूरे देश में परिवर्तन की लहरें पैदा की हैं और उसके कारण परिवर्तन हुए भी हैं। लेकिन जैसे जैसे बिहार चुनाव रफ्तार पकड़ रहा है वैसे वैसे लग रहा है कि वह एक तरफ डबल इंजन के हिंसक आख्यान और दूसरी ओर चैनलों के हास्य के बीच उलझ कर रह गया है। चुनाव घोषणा से पहले आयोग की ओर से चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण के विरोध में उठी वोट अधिकार यात्रा से जो परिवर्तनकारी माहौल दिख रहा था वह हवा हो चुका लगता है। अब चुनाव में शक्तिशाली मीडिया और लापरवाह राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को पूरी तरह के ओझल कर दिया है।

देश के एक बड़े राजनीतिक विश्लेषक ने पिछले दिनों एक टिप्पणी में इस ओर संकेत किया कि समाज से निश्छलता और सच्चाई समाप्त हो चुकी है। झूठी सूचनाओं और निराधार दृष्टिकोणों का बोलबाला है। इसके बाद संवाद का कोई मतलब नहीं रह जाता है। यह स्थिति मुख्यधारा के चैनलों जिसे गोदी मीडिया भी कहा जाता है से लेकर यू-ट्यूब तक व्याप्त हो चली है। हर कोई अपने को दबंग साबित करते हुए दूसरे पक्ष पर हावी होने में लगा है। एंकर विपक्षी दलों को पछीटने में लगा है तो विपक्षी दलों के नेता एंकरों को रगड़ने में। सत्तापक्ष तो विपक्ष को भ्रष्ट और अपराधी साबित करने का आख्यान चलाए ही रहता है। उस सम्मानित राजनीति शास्त्री का कहना है कि आज के संवाद में सहमति के साझा स्थल तलाशने के बजाय सिर्फ जीत हासिल करने की होड़ है। खबर है कि एक बड़े चैनल की एंकरानी के तेवर और सवालों से परेशान होकर सभी चैनल एंकरों को डांटते रहने वाले पीके ने उसे गोदी मीडिया कह दिया। उसके बाद वे काफी तमतमाईं और पीके कार्यक्रम छोड़कर चले गए। इस घटना को गोदी मीडिया अपने ढंग से भुना रहा है और पीके के समर्थक अपने ढंग से।

यह सब इसलिए हो रहा है कि सारा संवाद सत्ता की ताबेदारी या फिर पैसा कमाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। संवाद की सारी कसौटी इन्हीं दो उद्देश्यों तक सीमित होकर रह गई है। ज्ञान और बौद्धिक कौशल, तर्क की शक्ति अब चालाकी और धूर्तता तक पहुंच गई हैं। किसी के पास कोई नया स्वप्न नहीं है। यही वजह है कि राजनेता और पत्रकार या तो अहंकार और लोभ से ग्रसित होकर झूठ और हिंसा की भाषा बोल रहे हैं या फिर कभी पिटते हुए तो कभी पीटते हुए हास्य पैदा कर रहे हैं। यानी अब वही संवाद ध्यान खींचते हैं जो निजी राग द्वेष पर केंद्रित हों और विकास और सरकार की उपलब्धियों के बारे में झूठे आंकड़ों पर आधारित हों। पत्रकारिता और संवाद इस दिशा में जाएंगे इसकी भविष्यवाणी आज के पंद्रह बीस साल पहले होने लगी थी।

समाचारों की दुनिया में इसे खबरों का फॉक्सीकरण कहा जाता था। फॉक्स न्यूज नामक चैनल की स्थापना 1996 में अनुदार विचारों के प्रचार के लिए की गई थी। इसे अमेरिका के तीन रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के मीडिया सलाहकार रहे रोजर ऐलेस ने शुरू किया था और उनका उद्देश्य तथ्य और वस्तुनिष्ठता की जगह पर दक्षिणपंथी विचारों का प्रचार करना था। उस समय उनका मकसद मुनाफा कमाना नहीं था। लेकिन जब इसे रुपर्ट मरडोक के न्यूज कॉरपोरेशन में अधिग्रहण कर लिया तो वह जबरदस्त मुनाफे का कारोबार हो चला। समाचार देने और संवाद करने की पक्षपातपूर्ण शैली पहले अमेरिकी मीडिया का ट्रेंड बनी और बाद में यह चलन पूरी दुनिया में चल निकला।

लेकिन पूंजी और प्रौद्योगिकी के लाभोन्मुखी रुख के कारण प्रकट हुई यह प्रणाली राजनीति में भी ट्रंपीकरण और मोदीकरण के रूप में हावी हो गई। ध्यान देने की बात है कि पहले की राजनीति में विपक्ष आक्रामक रहता था और सत्तापक्ष आलोचना सुनता था। आज की राजनीति में सत्तापक्ष आक्रामक रहता है और विपक्ष के लोकवृत्त को भी हथिया लेता है। भारत के चुनावों में एक दशक से यही होता आ रहा है और आज बिहार के चुनाव में भी यही हो रहा है। नीतीश कुमार के 20 साल के शासन के बाद भी अगर कोई कटघरे में है तो वह है लालू और राबड़ी का 15 साल का शासन। उसे ही जंगल राज कह कर लोगों को डराया जा रहा है और अपने शासन को सुशासन, विकास का स्वर्ण काल वगैरह बताकर सत्ताविरोधी वातावरण निर्मित होने ही नहीं दिया जा रहा है। संवाद और विमर्श की इस शैली ने लोकतंत्र को लकवाग्रस्त कर दिया है। अब लोकतंत्र में व्यवस्था परिवर्तन करने की बात तो छोड़ दीजिए सत्तापरिवर्तन की करवट लेने की क्षमता भी बची नहीं लगती है। आज तेजस्वी यादव भले डॉ राम मनोहर लोहिया के उस मुहावरे को दोहराएं कि लोकतंत्र में सरकारों को उलटते पलटते रहना चाहिए नहीं तो रोटी जल जाती है लेकिन जनता लोकलुभावन कार्यक्रमों की कच्ची और आधी जली रोटी में ही मस्त दिखती है।

विडंबना देखिए कि रोटियां उलटने पलटने की कभी कोशिश करने वाले नीतीश कुमार अपनी सत्ता लोलुपता और दूसरे राज्यों में जनता का रुख देखकर एक हास्यास्पद चरित्र बन चुके हैं। उनकी अब ऐसी साख नहीं है और ही ऐसी शारीरिक और बौद्धिक क्षमता बची है कि वे बिहार में किसी बुनियादी परिवर्तन का आह्वान करें। सन 2022 से 2024 तक उन्होंने सारे देश में एक नई आशा का संचार किया था उसे जाति जनगणना के मुकाम तक लाकर छोड़ दिया और फिर उन्हीं का दामन थाम लिया जो प्रतिक्रांति के अगुआ हैं।

शायद कोई भी समाज अटल दल, पटक दल, झटक दल और जंगल राज बनाम सुशासन के जुमलों से ऊब गया होगा। बिना घुसपैठिए के घुसपैठिए जैसा आख्यान कैसे लोग स्वीकार कर रहे होंगे यह सोचने का विषय है। अगर उसका आधार सिर्फ मुस्लिम द्वेष है तो क्या बिहार उत्तर प्रदेश जैसा मुस्लिम द्वेषी राज्य बनने को तैयार है यह अहम सवाल है। बिहार जैसे सर्जनात्मक राज्य को कम से कम भाषा के स्तर पर कुछ नया नारा ही मिला होता तो अच्छी बात होती। तेजस्वी यादव बिहारी बनाम बाहरी की बहस जरूर चला रहे हैं पर वे बिहार के विकास के किसी मॉडल की बात नहीं कर पा रहे हैं। फिर सवाल यह भी है कि क्या यह नारा ममता बनर्जी के बंगाल की तरह कारगर हो पाएगा?

एक ओर सरकारी विज्ञापनों में यह जताया जा रहा है कि छठ के अवसर पर सरकार ने बिहार के लिए 12000 गाड़ियां चला दी हैं तो दूसरी हजार 1200 से ज्यादा गाड़ियों का पता ही नहीं मिल पा रहा है। लोग दो दो किलोमीटर लंबी लाइन लगाकर गाड़ी पकड़ते हैं और मवेशियों की तरह से डिब्बों में भर कर अपने घरों को लौट रहे हैं। बिहार का वह श्रमिक वर्ग धन्य है जो कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक रोजगार के लिए सारे जोखिम और कष्ट उठाता है और देश की सेवा करता है। लेकिन लानत है बिहार के उस शासक वर्ग पर जो बिहार के विकास के किसी वैकल्पिक मॉडल को न तो सामान्य स्थितियों में और न ही चुनाव में गंभीर मुद्दा बना पाता है। दिल्ली और मुंबई में बैठी बिहार की प्रतिभाओं ने उस प्रदेश का लोहा तो हर जगह मनवाया है लेकिन उसी ने अपने तमाम सांस्कृतिक उत्पादों यानी फिल्मों, धारावाहिकों और दूसरे कार्यक्रमों से बिहार को बदनाम भी बहुत किया है। उसने बिहार की छवि को अपराधी, भ्रष्ट और जातिवादी बना रखा है।

किशन पटनायक कहते थे कि देश और विशेषकर बिहार को कम से कम एक बार ऐसी राजनीति की जरूरत पड़ेगी जिससे उसकी संस्थाएं सुधर जाएं, उसके भीतर से सच्चे और समर्पित और निष्कलुष लोग पैदा हो जाएं। तेजस्वी यादव की यह बात सही है कि बिहार को अपमानित करने और बरगलाने के लिए बाहरी लोगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार के लोग अपने भीतर से राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे ईमानदार और कर्मठ लोग पैदा करने को तैयार हैं?


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