— परिचय दास —
।। एक ।।
वह समय जब भारतीय आत्मा अपने को पहचानने की बेचैनी में थी और इतिहास अपने विराट कंधों पर एक नए युग की नींव जमा रहा था, तब एक स्वर उभरा—मृदु, विचारपूर्ण, और गहन—आचार्य नरेंद्र देव का। वे किसी सभा के शोरगुल में उठी हुई आवाज़ नहीं थे; वे भीतर की शांति में अंकुरित वह दृष्टि थे जो राजनीतिक उथल-पुथल को पार करते हुए मानवता के आदर्शों तक पहुँचती है। उनकी उपस्थिति किसी सिंहासन की कठोरता नहीं थी; वह किसी ज्ञान–मंदिर के मूर्तिमुख, शांत, पर गहरे, धारदार विचारों का प्रवाह था, जो वाणी से अधिक मौन में चमकता था।
आचार्य नरेंद्र देव—नाम में जैसे कोई धवल सुबह निकलती हो, किसी सूने पथ पर ओस की लकीर छोड़ती हुई। वे नेता थे, पर नेतृत्व उनकी महत्वाकांक्षा न थी; शिक्षक थे, पर उनका अध्यापन केवल पुस्तक–कक्ष की चहारदीवारी तक सीमित न था; चिंतक थे, पर चिंतन किसी जड़ निष्कर्ष की गिरफ्त में नहीं था। वे ऐसे व्यक्ति थे, जिनके स्वभाव में बुद्ध का करुण–शांत तेज था और मार्क्स की सामाजिक न्याय–लालित्य की लौ भी। जैसे दो धाराएँ—एक प्राचीन तपोभूमि से आती हुई, दूसरी आधुनिक परिवर्तन की क्रांतिकांक्षा—उनके भीतर ही मिलकर एक बहुस्तरीय धारा बना देती थीं। उनके विचारों में कहीं अहिंसा थी, तो कहीं अन्याय के विरुद्ध कठोर निर्णायकता। उनकी आँखों में करुणा का धुँधलका तो था, पर बौद्धिक दृढ़ता की अग्नि भी उतनी ही शुद्ध रूप से जलती थी।
विद्या उनके लिए केवल शब्दों का आकार नहीं थी; वह मनुष्यता का मार्ग थी। वे जब बोलते, तो लगता जैसे ज्ञान अपने शुद्धतम रूप में श्रोता के मन में उतर रहा हो। प्रत्येक वाक्य में विचारों की गरिमा, प्रत्येक भाव में चरित्र की स्वच्छता। उनके कक्ष में कोई छात्र आता तो वह केवल किताबें नहीं लेकर जाता, बल्कि जीवन–दृष्टि का बीज लेकर लौटता। उन्होंने सीख को आदेश नहीं बनाया, उसे प्रसाद बना दिया; उन्होंने शिष्य को श्रोता नहीं माना, उसे सहयात्री माना। उनकी शिक्षा में वाद–प्रतिवाद का महत्त्व था, पर निंदा–विकृति का स्थान नहीं; वे विचारों के विन्यास से आत्मा का निर्माण करते थे, हथियारों की चमक से राजनीति नहीं।
उन्हें देखकर लगता, कितना संतुलित हो सकता है मनुष्य—कितना संतुलित बिना कठोर हुए, बिना नर्म होकर बिखरे हुए। वे संघर्षों के मध्य थे, पर संघर्ष में भी सौंदर्य खोज लेते थे। उनकी राजनीति तर्क से चलती थी, पर हृदय से पोषित थी। वे समाजवाद के पुरोधा थे, पर उनके समाजवाद में मनुष्यता की ऊष्मा थी—वह ठंडा सिद्धांत नहीं, धड़कता विश्वास था। वे जानते थे कि मनुष्य केवल नारा नहीं, केवल श्रम नहीं; वह संवेदना है, आत्मसम्मान है, स्वप्न है। उन्होंने सिद्धांतों को बोझ नहीं बनाया—उन्हें दीपक बना दिया, जो मार्ग दिखाता है, दिशा देता है, पर जलाता नहीं।
उनकी भाषा में विनय थी; वे कभी चिल्लाए नहीं, फिर भी एक पीढ़ी को दिशा दे गए। वे आयोजनों के मंच पर चमकने नहीं आए, बल्कि युग–नायक बनने आए; वे चमकते नहीं थे, पर प्रकाश देते थे। उनकी चुप्पी में विचारों का स्पंदन था, और उनकी मुस्कान में विश्वास का विस्तार। वे उस दुर्लभ जाति के मनुष्य थे, जिनका जीवन स्वयं एक दस्तावेज़ होता है—जिसे पढ़ा नहीं जाता, जिया जाता है। उन्होंने राजनीति को साधना बनाया, और साधना को किसी धर्म–मत का दायरा नहीं रहने दिया; वह मनुष्य के समग्र हित का व्रत था।
उनका बौद्ध–अध्ययन गंगा के शांत जल की तरह था—गहराई लिए, पर बहता हुआ। वे बौद्ध दर्शन में केवल शांति नहीं खोजते थे; वे उसमें मनोवैज्ञानिक जागरूकता, नैतिक विवेक और सामाजिक न्याय का आलोक ढूँढते थे। उनके लिए इतिहास मृत कथाएँ नहीं था; वह जीवित था, और उसकी हर धड़कन में वर्तमान का स्पंदन। भारत उनके भीतर केवल भौगोलिक सीमा नहीं था—वह एक चेतना था, एक शील, एक स्वप्न। वे जानते थे कि राष्ट्र प्रेम खाली रोमांच नहीं होना चाहिए; वह चिंतन होना चाहिए, श्रम होना चाहिए, समर्पण होना चाहिए। उन्होंने सत्ता को नहीं, मूल्य को पूजा; उन्होंने राज–नीति में आदर्श की फूल–शय्या बिछाना चाहा, न कि हिंसात्मक विजय की धूल उड़ाना।
उनकी विनम्रता में एक अव्यक्त अभिमान भी था—अपने विचारों पर विश्वास का अभिमान। वे दूसरों को छोटा कर खुद को बड़ा नहीं बनाते थे; वे अपने भीतर की ऊँचाई से चल कर दूसरों को ऊँचा उठाना चाहते थे। उनका व्यक्तित्व एक नदी जैसा था—निर्विघ्न, शीतल, पर गहरा। वे राजनीतिक हवा में ऋतु–परिवर्तन के साथ दिशा नहीं बदलते थे; उनकी दिशा भीतर से तय होती थी, बाहरी शोर से नहीं। वे किसी भीड़ का नेतृत्व नहीं चाहते थे—वे चेतना का नेतृत्व चाहते थे। उनकी दृष्टि में भविष्य का नक्शा था, और हृदय में वर्तमान की पीड़ा। वे केवल आलोचक नहीं थे; वे स्वप्न–निर्माता थे।
आचार्य नरेंद्र देव का जीवन बताता है कि क्रांति केवल तलवारों से नहीं आती; वह विचारों से आती है, वह नैतिक दृढ़ता और समझ की धूप से आती है। वे आग नहीं थे, पर प्रकाश थे; वे तूफान नहीं, पर दिशा–दर्शक दीप थे। उन्होंने दूसरों की रचना नहीं, स्वयं की साधना की; और इस साधना में उन्होंने भारत के प्राण–स्रोतों को फिर से स्पंदित किया। वे किसी पुरस्कार में नहीं समाए; वे किसी राजनीतिक उपाधि में बंधे नहीं रहे। उनका जीवन एक अनलिखी कविता की तरह है—जहाँ शब्द कम हैं, पर अनुभूति अधिक है; जहाँ अर्थ खुले हैं, पर संकेत गहरे।
आज जब हम राजनीति में नैतिक साहस को खोजते हैं, विचारों में शुद्धता को तलाशते हैं, छात्र–जीवन में अनुशासन और स्वतंत्रता के सामंजस्य की आकांक्षा रखते हैं, समाजवाद की गहराई और करुणा को समझना चाहते हैं, तब हमें आचार्य नरेंद्र देव याद आते हैं। जैसे कोई प्राचीन वटवृक्ष जिसकी छाया में थका हुआ समय विश्राम पाता है; जैसे कोई मौन शिक्षक जो इतिहास की कोमल उँगली पकड़कर आज को संवेदना सिखाता है; जैसे कोई संत जो सांसारिक युद्ध–भूमि में उतरकर भी मन की शांति को नहीं खोता।
वे केवल इतिहास के पात्र नहीं; वे समय के चिर–प्रेरक हैं। वे ऐसे दीपगृह हैं, जो बताते हैं—विचार हमेशा ऊँचा रखो, मनुष्य को केंद्र में रखो, संघर्ष में भी सौंदर्य और शांति की राह मत खोना। परिवर्तन केवल नारों से नहीं आता—सत्य, संवेदना और साहस से आता है। और यह कि एक मनुष्य, यदि वह अपनी आत्मा की शुचिता बनाए रखे, तो वह युगों को दिशा दे सकता है, बिना शोर किए, बिना गर्जन के, केवल अपने चरित्र की ज्योति से।
आचार्य नरेंद्र देव—एक नाम नहीं, एक आलोक। वह स्मृति नहीं, प्रेरणा हैं। और प्रेरणा कभी बूढ़ी नहीं होती; वह समय की किसी धूल से ढँक जाती है, पर जैसे ही थका हुआ मन उसे झटकता है, वह फिर उज्ज्वल हो उठती है। उनकी वाणी आज भी कहती है—मनुष्य बनो, सत्य के पक्ष में खड़े रहो, और अपने भीतर के दीपक को प्रज्वलित रखो; कि इतिहास अंततः उन्हीं के कदमों की आहट सुनता है, जो शक्ति से नहीं, सत्य से चलते हैं।
।। दो ।।
आचार्य नरेंद्र देव के चिंतन को समझने का अर्थ है भारतीय बुद्धि की उस धारा को पहचानना, जो न केवल स्वतंत्रता–संग्राम की राजनीति में सक्रिय थी, बल्कि मनुष्य की आत्मा में भी एक नई रोशनी जगाना चाहती थी। उनका सिद्धांत किसी घोषणापत्र की कठोर रेखाओं में बंद नहीं था; वह अनुभव, अध्ययन, अध्यात्म, और सामाजिक न्याय की सम्मिलित चेतना से निर्मित था। उनके विचारों में मनुष्य केंद्र था—न कोई सत्ता, न कोई वर्ग, न कोई भय, न कोई पूजा। वे उस मनुष्य को पुनर्स्थापित करना चाहते थे, जो इतिहास के शोषण, धर्म के दंभ, और राजनीति की लालसाओं के बीच कहीं अदृश्य हो गया था।
उनके सिद्धांतों की जड़ में सत्य की प्रतिष्ठा है—सत्य केवल बौद्धिक नहीं, नैतिक भी; केवल आदर्श नहीं, व्यवहार भी। वे सत्य को किसी जाति, वर्ग या पंथ का अनुचर नहीं मानते; वह अपने आप में एक स्वायत्त शक्ति है। इसीलिए उनका समाजवाद किसी मतवाद का अनुकरण न होकर मनुष्य की नैतिक उन्नति का साधन बनता है। वे कहते हैं, समाजवाद केवल आर्थिक व्यवस्था का सुधार नहीं है; यह मन की संस्कृति का भी परिवर्तन है, जहाँ स्वामित्व की लालसा शांत होकर सहयोग का विनम्र वृक्ष उगाती है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज की सामूहिकता — दोनों को वे एक ही संगीत की दो स्वर-लहरियाँ मानते हैं। एक का वर्चस्व दूसरे की मृत्यु है; संतुलन में ही सौंदर्य है।
उनका समाजवाद पश्चिमी युगधर्म का अंधानुकरण नहीं, बल्कि भारतीय बौद्ध परंपरा से निकला हुआ मानवीय समाजवाद है। उन्होंने करुणा को सिद्धांत का हृदय बनाया। संघर्ष उनके चिंतन में है, पर वह हिंसा का नहीं, चेतना का संघर्ष है। वे मनुष्य को बदलने की बात करते हैं, न कि केवल प्रणाली को; क्योंकि जो मनुष्य लालच और अहंकार से भरा है, वह किसी भी व्यवस्था में जाकर अंततः अन्याय ही बोएगा। इसलिए उनका समाजवाद ईंट–पत्थर की व्यवस्था नहीं, मनुष्यता की भूमि है, जहाँ श्रम सम्मान है, और श्रमण—यानी मन की साधना—सर्वोपरि है। वे आर्थिक समानता को नैतिक समानता के बिना अधूरा मानते हैं।
उनके सिद्धांतों का दूसरा प्रमुख स्तंभ राष्ट्रीयता की उदात्त व्याख्या है। राष्ट्र उनके लिए भूखंड नहीं, चेतना है; जनसमूह नहीं, संस्कृति की निर्मल धारा है; इतिहास की स्मृति है, भविष्य की आकांक्षा है। उनकी राष्ट्रीयता संकीर्णता का बीज नहीं बोती; वह आत्म–सम्मान और उदारता दोनों का संगम है। वे मानते थे कि राष्ट्र तभी महान होता है, जब वह न्याय, बंधुत्व, और विचार–स्वतंत्रता जैसे मूल्यों का संवाहक हो। उनका राष्ट्रभाव किसी एक धर्म या भाषा को केंद्र में रखकर नहीं बना; इसमें वेद से लेकर बौद्ध धम्म, कबीर से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक बौद्धिकता तक का विस्तार था। गांधी की अहिंसा और बुद्ध की करुणा, मार्क्स की समानता और टॉलस्टॉय की सादगी—इस मिश्रण में ही उनकी राष्ट्रीयता की आत्मा चमकती है।
धर्म के प्रति उनकी दृष्टि भी विशिष्ट थी। वे धर्म को संस्था नहीं, साधना मानते थे; उसे नियमन नहीं, विमुक्ति का मार्ग कहते थे। धर्म यदि मनुष्य को ऊँचा उठाए तो वह धर्म है; यदि बाँधे, तो वह केवल परंपरा का आवरण है। उनकी दृष्टि में बौद्ध दर्शन केवल ध्यान या निर्वाण की खोज नहीं, बल्कि नैतिक अनुशासन और सामाजिक जागरूकता की महान यात्रा है। बौद्ध चिंतन में उन्होंने वह करुणा पाई जो शोषितों की पीड़ा का स्पर्श करती है और वह विवेक पाया जो अंध–श्रद्धा और मिथ्या–मान्यताओं को चुनौती देता है। उनकी बौद्ध–व्याख्या में प्रतीत्यसमुत्पाद केवल दार्शनिक सूत्र नहीं, समाज की पारस्परिकता का वैज्ञानिक आधार है—जहाँ कोई अकेला नहीं, सब जुड़े हैं; इसलिए किसी का दुःख व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक है।
उनके सिद्धांतों में शिक्षा का स्थान अत्यंत ऊँचा है। वे शिक्षा को ज्ञान का संचय नहीं, व्यक्तित्व का विकास मानते थे। शिक्षा मनुष्य को स्पृहा और संतोष, दोनों का संतुलन देना चाहिए। अध्ययन केवल बुद्धि को भरता नहीं—यदि सही हो, तो वह आत्मा को भी चौड़ा कर देता है। वे शिक्षा में तर्क की अनिवार्यता पर जोर देते हैं, पर तर्क को भावनाएँ और नैतिक मूल्य से पृथक नहीं करते। उनकी शिक्षा–दृष्टि में शिक्षक उपदेशक नहीं, सह–यात्री है; छात्र अनुयायी नहीं, विचारों का सह–निर्माता है। वे कहते थे, शिक्षा तभी सार्थक है जब वह मनुष्य को मुक्त करे—डर से, अज्ञान से, संकीर्णता से, और धुंध से।
उनके विचारों में लोकतंत्र केवल मतदान का ढाँचा नहीं; वह जीवन–अनुभव है। लोकतंत्र तब जीवित है जब मनुष्य स्वतंत्र सोच सकता है, बोल सकता है, असहमति प्रकट कर सकता है, और फिर भी प्रेमपूर्वक एक–दूसरे के साथ रह सकता है। वे लोकतंत्र में नैतिकता की अनिवार्यता देखते हैं। यदि नैतिकता खो जाए, तो शासन चाहे जन–चयनित हो, वह जनता से दूर हो जाता है। उनके लिए सत्ता साधन है, लक्ष्य नहीं; और सत्ता की पवित्रता जनता के प्रति आस्था और उत्तरदायित्व से आती है। वे जनता के संघर्ष को महत्त्व देते हैं, पर यह भी कहते हैं कि संघर्ष की दिशा सही हो; अन्यथा आंदोलन भी अहंकार बन सकता है।
उनकी भाषा और विचार–विन्यास में विवेक और विनम्रता साथ–साथ चलते हैं। वे आदर्शवादी थे, पर आदर्श के नाम पर यथार्थ से पलायन नहीं करते थे। वे व्यवहारवादी थे, पर व्यवहार को शुष्क लाभ–हानि की गणित नहीं बनाते थे। उनके सिद्धांत सिखाते हैं कि मनुष्य को बदलना कठिन है, पर असंभव नहीं; और बदलाव बाहरी आदेश से नहीं, आंतरिक जागृति से आता है। न्याय की स्थापना केवल कानून से नहीं होती; वह मनुष्य के चरित्र में गढ़नी होती है। और यह चरित्र उसी समाज में बन सकता है, जहाँ विचार–स्वतंत्रता, आर्थिक न्याय, और नैतिक अनुशासन एक साथ हों।
आज जब दुनिया विभाजनों, प्रदर्शन–प्रधान राजनीति, और उपभोगवादी स्वप्नों में उलझी है, तब आचार्य नरेंद्र देव की विचार–परंपरा हमें याद दिलाती है कि वास्तविक प्रगति मनुष्य को केंद्र में रखकर होती है—न कि बाज़ार को या सत्ता को। सच्ची राजनीति वह है, जो मनुष्य के श्रम को सम्मान दे, उसकी बुद्धि को स्वतंत्रता दे, और उसके हृदय को करुणा से भर दे। उनका सिद्धांत कहता है कि संघर्ष की आवश्यकता है, पर संघर्ष मनुष्य के विरुद्ध नहीं, मनुष्य में छिपे अन्याय और मोह के विरुद्ध। वे बताते हैं कि समाज की मरम्मत हथियारों से नहीं, चरित्र से होती है; और चरित्र का निर्माण ज्ञान, श्रम, और करुणा से होता है।
उनका सिद्धांत एक वाक्य में कहा जाए तो—मनुष्य ही साध्य है, बाकी सब साधन। यही उनकी विरासत है, यही उनका मार्ग है। यह मार्ग आसान नहीं, पर उज्ज्वल है; धीमा है, पर स्थायी है; मौन है, पर प्रभावशाली है। और इस मार्ग पर चलकर ही समाज अपने भीतर वह प्रकाश पा सकता है, जो संघर्ष को दया से, असहमति को सम्मान से, और स्वंय को समीक्षण से जोड़ता है। यही उनकी विचार–परंपरा का नील–ध्वज है, जो युगों के ऊपर फहरता रहता है, समय की आँधी से विचलित हुए बिना, जैसे किसी पहाड़ी की चोटी पर खड़ा शांति का दीप।
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