
।। एक ।।
भारतीय राजनीति में कल्याण की अवधारणा कोई नई नहीं, पर उसके अर्थ, उसका प्रयोजन और उसका रूप पिछले एक दशक में जिस तरह बदला है, उसने लोकतंत्र की पूरी संरचना को नया अर्थ दे दिया है। कल्याण अब दया का कार्य नहीं, बल्कि सत्ता की रणनीति बन चुका है। यह किसी राज्य का संवैधानिक दायित्व भर नहीं, बल्कि एक ऐसी राजनीतिक मुद्रा बन गया है जो हर चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान, और चुनाव के बाद भी अपनी चमक बनाए रखती है। इस चमक में जनता अपने जीवन की कठिनाइयों से थोड़ी देर के लिए राहत देखती है, और सत्ता अपनी स्थिरता का आधार। पर इस आदान-प्रदान में जो नई राजनीतिक आकृति उभरती है, वह भारत के लोकतंत्र का भविष्य भी बनाती है और उसकी कमजोरी भी।
यह कहना सरल है कि जनता लाभार्थी बन रही है, पर उसका अर्थ कहीं अधिक गहरा है। लाभार्थी केवल वह नहीं जो योजना का लाभ लेता है—लाभार्थी वह है जो धीरे-धीरे यह मानने लगता है कि उसका अस्तित्व, उसका भविष्य, उसकी सुरक्षा, यहाँ तक कि उसकी गरिमा भी सत्ता द्वारा प्रदत्त सुविधाओं पर निर्भर है। यह निर्भरता केवल आर्थिक नहीं होती—यह भावनात्मक, मानसिक और नैतिक भी होती है। एक ऐसी संरचना बनती है जिसमें नागरिकता का स्वाभाविक अधिकार—शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, आवास—धीरे-धीरे उपहार में बदल जाते हैं। और उपहार लेने वाला अपने मन के बहुत भीतर जाकर देने वाले के प्रति एक अघोषित ऋणबोध महसूस करता है। यही ऋणबोध आज की राजनीति का आधार बन रहा है।
इस राजनीति में दो बड़े स्तंभ हैं—पहला, योजनाओं की बढ़ती संख्या; और दूसरा, योजनाओं के संचार का अभूतपूर्व विस्तार। सरकारें अब केवल योजनाएँ नहीं बनातीं, वे योजनाओं को जनता के जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना देती हैं। मुफ्त अनाज, गैस कनेक्शन, आवास, पेंशन, छात्रवृत्ति, स्वास्थ्य बीमा, किसान सम्मान निधि, बिजली बिल में राहत—ये सब मिलकर एक ऐसा वातावरण रचते हैं जहाँ नागरिक अपने निजी प्रयास और सरकार के प्रयास में अंतर करना छोड़ देता है। वह अपनी उपलब्धियों को भी सत्ता का प्रसाद मानने लगता है। यह परिवर्तन सूक्ष्म है, पर स्थाई है।
दूसरी ओर राजनीति का संचार ऐसा हो गया है कि हर योजना जनता की चेतना में एक छवि के रूप में प्रवेश करती है: नेता कैमरे पर घर-घर लाभ बाँटते दिखाई देते हैं, योजनाओं को व्यक्तिगत कृपा की तरह प्रस्तुत करते हैं, और मीडिया इस दृश्य को लगातार दोहराते हुए यह स्थापित करता है कि कल्याण किसी नीति का परिणाम नहीं—किसी नेता की करुणा का प्रमाण है। इस करुणा की राजनीति में नीति गौण हो जाती है और व्यक्ति प्रमुख। यह व्यक्तिनिष्ठ सत्ता का विस्तार है, जिसमें योजनाएँ नेता का विस्तार बन जाती हैं।
योजनाओं के माध्यम से सत्ता तक पहुँचने का रास्ता अब अधिक सरल, अधिक सीधा और भावनात्मक हो गया है। जनता को दिखता है कि उसकी कठिनाइयाँ कम हो रही हैं—चाहे अस्थायी ही सही—और वह सत्ता के प्रति एक भावनात्मक विश्वास विकसित करती है। यह विश्वास मतदान में निर्णायक भूमिका निभाता है। चुनाव अब केवल विचारों या मुद्दों की प्रतिस्पर्धा नहीं रहे—वे सुविधाओं की स्थिरता और निरंतरता पर आधारित भरोसे की प्रतियोगिता बन गए हैं। जनता यह सोचने लगती है कि जो अभी दे रहा है, वही आगे भी देगा—और जो नहीं दे पा रहा, वह भविष्य में क्या आश्वासन देगा?
इस राजनीति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे बड़े पैमाने पर गरीबी, भूख, स्वास्थ्य की समस्याएँ कुछ सीमा तक कम होती हैं। यह राज्य के मानवीय चेहरे का विस्तार भी माना जा सकता है। पर इसकी कमी उतनी ही गहरी है—यह दीर्घकालीन आर्थिक संरचना को बदलने के बजाय अल्पकालिक राहत में उलझा देती है। रोजगार, औद्योगिक उत्पादन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, ग्रामीण विकास, कृषि सुधार—ये विषय पीछे चले जाते हैं। राजनीति को तत्काल परिणाम चाहिए, और योजनाएँ तत्काल परिणाम देती हैं। इसलिए दीर्घकालिक नीति-निर्माण लगातार कमजोर होता जाता है।
लाभार्थी राजनीति की एक और समस्या यह है कि यह जनता को वर्गों में बाँटती है—कौन लाभ ले रहा है और कौन छूट गया है। इस विभाजन से समाज में एक अघोषित असमानता और असंतोष पैदा होता है। लाभ पाने वाला संतुष्ट, और लाभ न पाने वाला उपेक्षित महसूस करता है। लोकतंत्र का सामाजिक संतुलन इसी उपेक्षा और संतुष्टि के बीच टूटता-बनता रहता है। चुनावों में इस उपेक्षा को भुनाने की कोशिश होती है, पर सत्ता में आते ही नई सरकार भी लाभार्थी मॉडल से बाहर नहीं निकल पाती। वह भी जनहित के नाम पर वही रास्ता चुनती है—क्योंकि जनता को राहत चाहिए, और राहत पाना उसके लिए अधिकार से जुड़ी बात नहीं, बल्कि आवश्यकता बन चुकी है।
इस राजनीति का सबसे गहरा प्रभाव यह है कि जनता की राजनीतिक चेतना कमजोर होती है। नागरिकता का विचार, जिसे संविधान ने बराबरी और अधिकारों के साथ परिभाषित किया था, अब लाभ और सुविधा के रूप में परिभाषित होने लगा है। जनता यह भूलने लगती है कि राज्य उसके कर से चलता है, उसके श्रम से चलता है, उसकी भागीदारी से चलता है। जनता यह मानने लगती है कि राज्य का दायित्व नहीं, बल्कि राज्य की कृपा है कि उसे सुविधाएँ मिल रही हैं। यह परिवर्तन लोकतंत्र की आत्मा में बदलाव का संकेत है।
जो लोकतंत्र जनता को अधिकार देता है, वही लोकतंत्र आज जनता को लाभार्थी बना रहा है। यह विरोधाभास बहुत महीन है, पर गहरा है। भारत के लोकतंत्र में अब संघर्ष विचारधाराओं का नहीं, लाभ और विकास के दो अलग रास्तों का है—एक रास्ता जो तात्कालिक सुविधाओं से जनता का जीवन सरल करता है; और दूसरा रास्ता जो संरचनात्मक सुधारों से लंबे समय का विकास चाहता है। राजनीति आज पहले रास्ते की ओर खिंची चली जा रही है, क्योंकि उसका लाभ तुरंत, स्पष्ट और वोटों में बदलने वाला होता है। दूसरा रास्ता कठिन है, समय चाहता है, और राजनीतिक जोखिम लाता है—इसलिए उसे टाल दिया जाता है।
लाभार्थी राजनीति के बढ़ने से जनता और सत्ता का संबंध बदलता है। पहले सत्ता जनता की इच्छा का परिणाम होती थी; अब जनता की इच्छा सत्ता की कृपा से प्रभावित होती है। यह लोकतांत्रिक निर्भरता की एक नई अवस्था है। इसकी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जनता अपने अधिकारों के लिए कम, और अपनी सुविधाओं के लिए अधिक सोचने लगती है। इससे लोकतांत्रिक नागरिकता कमजोर होती है और एक ऐसी जनता बनती है जो सत्ता के प्रति विनम्र है, पर उसकी समीक्षा करने में सहज नहीं।
फिर भी, यह कहना भी अधूरा होगा कि लाभार्थी राजनीति केवल नकारात्मक है। भारत की सामाजिक संरचना में, जहाँ गरीबी, असमानता और वंचना सदियों से व्याप्त हैं, वहाँ ऐसे कार्यक्रमों का मानवीय मूल्य भी है। पर राजनीति का संकट यह है कि मानवीय मूल्य अब राजनीतिक रणनीति बन गए हैं, और रणनीति ने मानवीयता को पीछे कर दिया है। राहत अब अधिकार नहीं, बल्कि चुनावी उपकरण बन गई है।
भविष्य में यह मॉडल और मजबूत होगा—क्योंकि जनता की आकांक्षाएँ बढ़ रही हैं और सरकारें उनकी आकांक्षाओं को नियंत्रित करने के लिए सुविधाओं का प्रयोग कर रही हैं। सवाल यह है कि क्या यह मॉडल नागरिकता को बदल देगा? क्या भारत का लोकतंत्र लाभार्थी लोकतंत्र बन जाएगा? क्या जनता अपने अधिकारों को भूलकर केवल सुविधाओं पर विचार करेगी? इन प्रश्नों का उत्तर अभी अस्पष्ट है, पर संकेत स्पष्ट हैं—भारतीय राजनीति एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुकी है जहाँ कल्याण नीति नहीं, बल्कि सत्ता का साधन बन चुका है। और सत्ता का यह साधन जितना आकर्षक है, उतना ही खतरनाक भी—क्योंकि यह जनता को सुरक्षित रखता है, पर स्वतंत्र नहीं।
।। दो ।।
भारतीय लोकतंत्र में कल्याण राजनीति का विस्तार केवल योजनाओं की बढ़ोतरी भर नहीं है; यह राजनीति के मनोविज्ञान और नागरिकता के स्वभाव में एक मौलिक परिवर्तन है। आज जब किसी घर में गैस कनेक्शन पहुँचता है, जब राशन सीधे घर तक आता है, जब दुर्घटना में 5 लाख तक का इलाज मुफ्त होता है, जब किसान के खाते में साल में तीन बार धन आता है—तो इन सबके पीछे एक नया सामाजिक संबंध तैयार होता है। यह संबंध नागरिक और राज्य के बीच का नहीं, बल्कि लाभार्थी और प्रदाता का संबंध है।
इस संबंध में राज्य एक विशाल अभिभावक बन जाता है—एक ऐसा अभिभावक जो सब पर निगरानी रखता है, सबकी ज़रूरतें जानता है, और अपने संसाधनों को योजनाओं में बदलकर जनता तक पहुँचाता है। जनता एक ऐसे परिवार में रहती है जहाँ उसका जीवन कई स्तरों पर राज्य पर निर्भर होने लगता है। पहले उसके व्यक्तिगत जीवन में परिवार, पड़ोस, समाज और श्रम की भूमिका अधिक थी; अब इन सभी की जगह योजनाएँ ले रही हैं। किसी भी संकट में व्यक्ति सबसे पहले “सरकार क्या देगी?” यह पूछता है, “मैं क्या करूँ?” कम पूछता है। यह निर्भरता धीरे-धीरे मान्यता में बदलती है, और यह मान्यता राजनीति का केंद्र बन जाती है।
कल्याण राजनीति की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि यह असमानता की गहरी खाइयों को ऊपर से ढक देती है। भूख अभी भी है, पर भूख मिटाने का इंतज़ाम दिखाई देता है। बेरोज़गारी है, पर बेरोज़गार को कुछ प्रत्यक्ष सुविधाएँ मिलती रहती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य की गुणवत्ता में गिरावट है, पर मुफ्त इलाज और छात्रवृत्ति जैसी योजनाएँ उस गिरावट को कुछ हद तक सहने लायक बना देती हैं। इस प्रकार कल्याण राजनीति असमानताओं को समाप्त नहीं करती—उन्हें व्यवस्थित कर देती है, ताकि वे विद्रोह न पैदा करें, बल्कि प्रबंधित रह सकें। यह प्रबंधन ही आधुनिक राजनीति की वास्तविक चतुराई है।
पर यह राजनीति लोकतांत्रिक चेतना के लिए जटिल चुनौती लाती है। जब नागरिक राज्य का ग्राहक बन जाता है, तब वह अपने अधिकार ग्राहक की तरह नहीं, बल्कि ऋणी की तरह महसूस करता है। वह अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रयोग पूरी शक्ति के साथ नहीं कर पाता, क्योंकि उसकी स्मृति में यह गहराई से बैठ चुका होता है कि उसके जीवन में जो थोड़ी-सी राहत है, वह इसी व्यवस्था से मिली है। यह स्मृति उसे सत्ता के प्रति अनुनयी बनाती है, और यही अनुनय लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करता है। लोकतंत्र की शक्ति नागरिक के प्रश्न में होती है—और लाभार्थी राजनीति धीरे-धीरे प्रश्न करने की क्षमता को कम कर देती है।
कल्याण राजनीति का यह विस्तार केवल ग्रामीण भारत में नहीं, शहरी गरीबों और मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से पर भी लागू होता है। शहरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय लोग भी अब योजनाओं की छाया में जीते हैं—उनके लिए कर-बोझ कम हुआ हो न हुआ हो, पर स्वास्थ्य बीमा, डिजिटल सब्सिडी, टैक्स-कटौती और पेंशन से संबंधित नीतियाँ उनको भी राजनीति का लाभार्थी बना देती हैं। इस प्रकार लाभार्थी मॉडल किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे समाज में फैल चुका है। यह विस्तार आने वाले समय में और बढ़ेगा, क्योंकि राज्य की संरचना ही ऐसी दिशा में चल पड़ी है जहाँ नागरिक से अपेक्षा कम, और नागरिक को सुविधा अधिक दी जाती है।
इस राजनीति का एक गहरा पहलू यह है कि इसने पहचान की राजनीति को भी नए रूप में ढाल दिया है। पहले जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर राजनीतिक पहचान बनती थी। अब योजनाएँ “नए समूह” बनाती हैं—गैस लाभार्थी समूह, किसान निधि समूह, राशन कार्ड समूह, पेंशन समूह आदि। इन नए समूहों की कोई जाति या धर्म नहीं होता; उनका आधार केवल योजना है। यह वर्ग-पुनर्संरचना राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पारंपरिक पहचानें कमजोर होती हैं और योजनात्मक पहचानें मजबूत। ऐसी पहचानें राज्य को अधिक मजबूत रखती हैं और नागरिक को अधिक नियोजित।
भविष्य में यह संरचना एक नई राजनीतिक संस्कृति का निर्माण करेगी। चुनावों में यह पूछा जाएगा कि किस योजना की निरंतरता बनी रहेगी, कौन-सा नेता किस सुविधा को आगे बढ़ाएगा, और कौन-सी पार्टी किस लाभ को सुनिश्चित करेगी। बहसें विचारों की जगह सुविधाओं पर केंद्रित होंगी। विपक्ष भी सत्ता में आने पर इसी मॉडल को अपनाएगा, क्योंकि जनता की आकांक्षा अब लाभ-आधारित हो चुकी है। इस प्रकार लाभार्थी राजनीति किसी एक पार्टी की रणनीति नहीं, बल्कि पूरे भारतीय राजनीतिक तंत्र का नया धर्म बन चुकी है।
पर इस धर्म का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह स्वतंत्रता की जगह सुरक्षा को केंद्र में रखता है। नागरिक अपने अधिकारों से अधिक अपनी सुविधाओं की रक्षा चाहता है। वह जानता है कि रोजगार अनिश्चित है, अर्थव्यवस्था अस्थिर है, जीवन तेजी से महंगा हो रहा है। ऐसे में योजनाओं के रूप में मिलने वाली राहत उसे सुरक्षा देती है। यह सुरक्षा असली सुरक्षा नहीं—पर मनोवैज्ञानिक सुरक्षा है, और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा अत्यंत शक्तिशाली होती है। यह सुरक्षा नागरिक को साहसी नहीं बनने देती; वह परिवर्तन से डरता है, संघर्ष से बचता है, और राज्य पर अधिक आश्रित होता जाता है।
यही वजह है कि कल्याण राजनीति लोकतंत्र को स्थिर भी बनाती है और जड़ भी। स्थिर इसलिए कि जनता राहत पाते हुए सत्ता को स्थिर रखती है। जड़ इसलिए कि संरचनात्मक बदलाव—उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, कृषि, प्रशासन—इन सब पर आवश्यक दबाव नहीं बन पाता। यह राजनीति जनता को संतुष्ट रखती है, पर समाज को गतिशील नहीं बनाती।
फिर भी यह कहना गलत होगा कि कल्याण राजनीति ने कुछ नहीं बदला। उसने बहुत कुछ बदला है—महिलाओं की रसोई में धुआँ कम हुआ, गरीब की थाली भरी, किसान के खाते में पहली बार नियमित धन पहुँचा, बुजुर्गों को जीवन का एक छोटा सहारा मिला, और गरीब के लिए इलाज दूर का सपना नहीं रहा। यह परिवर्तन छोटे नहीं—बहुत बड़े हैं। इनका मानवीय मूल्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। पर इन मूल्यों का राजनीतिक अर्थ तब बदल जाता है जब वे नीति से अधिक सत्ता का उपकरण बन जाते हैं।
भारत इसी द्वंद्व में जी रहा है—मानवीयता और राजनीति, अधिकार और लाभ, निर्भरता और सुरक्षा, लोकतंत्र और स्थिरता। कल्याण राजनीति इन दोनों पक्षों के बीच पुल भी है और अंतर भी। आने वाले वर्षों में यह राजनीति और गहरी होगी—क्योंकि नागरिक की ज़रूरतें बढ़ रही हैं, राज्य का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, और समाज की असमानताएँ पहले से अधिक स्पष्ट हो रही हैं।
अंततः प्रश्न यही है: क्या भारत में नागरिकता का अर्थ अधिकारों से हटकर सुविधाओं में बदल जाएगा? क्या लोकतंत्र प्रश्नों से ज़्यादा राहतों का लोकतंत्र बन जाएगा? क्या भविष्य का नागरिक एक ऐसा व्यक्ति होगा जो स्वतंत्र तो है, पर निर्भर भी? इन प्रश्नों का उत्तर भविष्य में मिलेगा, पर संकेत स्पष्ट हैं—कल्याण राजनीति अब राजनीति नहीं रही; वह समाज की संरचना, नागरिक की मानसिकता, और राज्य के चरित्र का स्थायी हिस्सा बन चुकी है। यह स्थायीपन कितना शुभ है और कितना असुरक्षित—यही आने वाला समय बताएगा।
।। तीन।।
लाभार्थी-राजनीति की संरचना में सबसे रोचक यह है कि यह नागरिकता को उसके अधिकारों से धीरे-धीरे हटाकर उसे सहायता के मनोविज्ञान में स्थापित कर देती है। लोकतंत्र का आदर्श नागरिक वह होता है जो अपनी समस्याओं को समझता है, शासन से सवाल करता है, संस्थाओं को जवाबदेह बनाता है और नीति निर्धारण में सहभागिता को मूल्य मानता है। पर लाभार्थी-राजनीति इस सक्रिय नागरिकता को एक ऐसी संरचना में रूपांतरित कर देती है जिसमें नागरिक स्वयं को ‘भागीदारी करने वाला जन’ नहीं बल्कि ‘सहायता प्राप्त करने वाला जन’ समझने लगता है। यह परिवर्तन सूक्ष्म है, लेकिन राजनीतिक विज्ञान में इसे cognitive transformation of citizenship कहा जाता है—अर्थात नागरिक अपनी राजनीतिक पहचान को ही बदल लेते हैं।
यही कारण है कि लाभार्थी-राजनीति में योजना की घोषणा ही राजनीति नहीं होती; उसकी कहानी भी राजनीति होती है। कहानी यह कि “सरकार ने दिया”, “नेता ने पहुँचाया”, “सत्ता ने संकट में साथ दिया”—जबकि वास्तविकता में वही सब करदाता के पैसे से संचालित होता है। लेकिन इस संरचना में करदाता-नागरिक अदृश्य हो जाते हैं, और दृश्य बना रहता है केवल दाता–ग्राही संबंध का मनोवैज्ञानिक रूप। यह दाता–ग्राही भाव लोकतंत्र के भीतर एक ऐसी शृंखला बनाता है जिसमें सत्ता ‘परोपकार’ की तरह दिखती है और जनता ‘पात्रता’ की तरह।
लाभार्थी-राजनीति का दूसरा बड़ा पक्ष यह है कि यह सामूहिकता को तोड़कर व्यक्ति को अलग-थलग कर देती है। जब एक समुदाय सड़क, अस्पताल, रोजगार, शिक्षा जैसे सार्वभौमिक अधिकारों की माँग करता है तो वह एक राजनीतिकीय समुदाय बनता है। लेकिन जब प्रत्येक व्यक्ति अपने मोबाइल नंबर पर आने वाले संदेश के आधार पर यह मूल्यांकन करने लगता है कि उसे गैस की सब्सिडी आई या नहीं, घर की किश्त कब मंजूर हुई, कार्ड पर राशन कितना मिला—तब राजनीति सामूहिकता से निकलकर पूर्णतः व्यक्तिगत अनुभव बन जाती है। व्यक्ति उन कारणों पर विचार नहीं करता कि उसे सहायता क्यों मिल रही है—वह केवल यह देखता है कि मिली या नहीं। इस तरह लोकतंत्र में नागरिकता की जगह उपभोगता (consumer) की मानसिकता आ जाती है।
लाभार्थी-राजनीति का तीसरा पक्ष मतदान व्यवहार से जुड़ा है। एक समय था जब चुनाव में जाति, वर्ग, विचारधारा या वादों की भूमिका प्रमुख होती थी। पर अब लाभार्थी संरचना ने एक नया कारक जोड़ा है—विश्वसनीयता (credibility) of delivery। जनता इस बात का आकलन करने लगी है कि कौन-सी सरकार योजनाओं को ज़मीन तक तेज़ी से पहुँचाती है। यह अपने-आप में गलत नहीं है, क्योंकि दक्ष प्रशासन किसी भी शासन की मूल अपेक्षा है। परंतु जब दक्षता ही लोकतंत्र का अंतिम मापदंड बन जाए, और अधिकार व जवाबदेही अस्तित्त्वहीन हो जाएँ, तब राजनीति धीरे-धीरे नागरिक प्रश्नों से हटकर प्रबंधकीय शासन में बदल जाती है।
इसका चौथा प्रभाव सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर पड़ता है। लाभार्थी योजनाएँ अक्सर गरीबी-निवारण का दावा करती हैं, पर उनके जरिए गरीबी का स्थायी समाधान न होकर गरीबी का संस्थानीकरण होता है। सहायता मिलती रहती है, पर संरचनाएँ नहीं बदलतीं—रोज़गार की गुणवत्ता, कृषि की स्थिरता, औद्योगिक अवसर, शिक्षा की पहुँच, स्वास्थ्य की मजबूती—ये वे पक्ष हैं जो सत्ता को कठिन निर्णय लेने को बाध्य करते हैं। लाभार्थी-राजनीति इन कठिन फैसलों को कुछ समय के लिए टाल देती है, क्योंकि सहायता की चमक कठिन सुधारों की सख़्ती को ढक देती है।
राजनीतिक विज्ञान में इसे status-quo bonding mechanism कहा जाता है—योजना की निरंतरता नागरिक को वर्तमान के साथ बाँध देती है, भविष्य के लिए संघर्ष की प्रेरणा कम कर देती है। इससे लाभार्थी राज्य अधिक शक्तिशाली होता जाता है और नागरिक अधिक निर्भर। यह निर्भरता धीरे-धीरे भावनात्मक भी हो जाती है—सत्ता आलोचना से बचती है और जनता उसके प्रति कृतज्ञता के भाव के साथ वोट करती है।
लाभार्थी-राजनीति का पाँचवाँ आयाम चुनाव प्रबंधन है। अब राजनीति केवल नीतियों से नहीं, डिजिटल नेटवर्किंग, डेटाबेस, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर की गति, और योजना-आधारित संचार-रणनीतियों से भी संचालित होती है। लाभार्थियों की सूची ही राजनीतिक मानचित्र होती है—कहाँ असंतोष है, कहाँ समर्थन है, किस क्षेत्र में योजना की पहुँच कम है, किसमें अधिक, किस समूह को क्या संदेश भेजना है—इन सबका विश्लेषण अब विज्ञान और एल्गोरिद्म के आधार पर होता है। इस तरह लोकतंत्र धीरे-धीरे एक data-driven electoral ecosystem बन जाता है।
इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि जनता का शासन के साथ संबंध—सहभागिता का, या प्राप्ति का? यदि वह प्राप्ति का है तो लोकतंत्र कार्यपालिका-प्रधान हो जाता है। यदि वह सहभागिता का है तो लोकतंत्र नागरिक-प्रधान रहता है। लाभार्थी-राजनीति यही संतुलन बदलती है।
लेकिन यह एकतरफ़ा कथा नहीं है। लाभार्थी-राजनीति ने देश के सबसे गरीब और हाशिये के नागरिक को कई बार वह सुरक्षा दी है जो उसे दशकों की उपेक्षा के बाद मिली। महिलाओं तक गैस सिलेंडर पहुँचना, घनी आबाद बस्तियों में स्वास्थ्य-इंश्योरेंस का विस्तार, सीधे खाते में सहायता, वृद्धावस्था-पेंशन की नियमितता—ये सब सामाजिक कल्याण की उपलब्धियाँ हैं। समस्या तब शुरू होती है जब कल्याण अधिकार के बजाय उपकार का रूप ले लेता है।
इसलिए समाजशास्त्र यह प्रश्न उठाता है कि क्या लाभार्थी-राजनीति लोकतंत्र को मजबूत करती है या उसे केवल स्थिर बनाती है? स्थिरता हमेशा मजबूती नहीं होती—कई बार स्थिरता जनता को निष्क्रिय भी कर देती है। निष्क्रिय नागरिक लोकतंत्र को दृढ़ नहीं रखते; वे केवल सत्ता के चालक-बल को सहज बनाते हैं।
आज भारत में यह विमर्श तीव्र हुआ है कि क्या लाभार्थी-संरचना एक नए राजनीतिक संस्कृति-परिवर्तन का संकेत है। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें सरकारी योजनाएँ केवल आर्थिक सहारा नहीं, बल्कि राजनीतिक पहचान भी बन जाती हैं। गाँवों और कस्बों की बातचीत में योजनाओं के नाम और नेतृत्व की छवियाँ एक साथ उद्धृत होती हैं। सत्ता यह समझती है कि अब राजनीति केवल विचारधारा या विमर्श से नहीं, बल्कि दैनिक जीवन की उपयोगिता से संचालित होती है। इस उपयोगिता को ही वह लाभार्थी-राजनीति कहती है।
लोकतंत्र का भविष्य इसी प्रश्न पर टिका है कि क्या लाभार्थी-राजनीति आगे चलकर भारतीय नागरिक को अधिक सक्षम बनाएगी या अधिक आश्रित? क्या वह अधिकारों की संवैधानिक परंपरा को विस्तार देगी या केवल सहायता की संस्कृति को मज़बूत करेगी? क्या यह नागरिक को सक्रिय बनाएगी या उसे संतुष्ट रखकर विवेकहीन बना देगी?
इन्हीं प्रश्नों के बीच लाभार्थी-राजनीति भारत की नई राजनीतिक कथा गढ़ रही है—एक ऐसी कथा जिसमें विकास, सहायता, प्रबंधन और मनोविज्ञान सब शामिल हैं। लोकतंत्र की यह नई यात्रा उतनी ही जटिल है जितनी आवश्यक—और इसके परिणाम इसी पर निर्भर करेंगे कि नागरिक सहायता को उपाय समझते हैं या उपकार।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.

















जनता को लाभार्थी की राह पर चलने के लिए किसने मजबूर किया था। जातिगत प्रलोभन आरक्षण आदि का प्रलोभन,जब किसी को नशे की लत लग जाती है तो उसे सिर्फ और सिर्फ मादक पदार्थ ही चाहिए।18 वर्ष बाकी है आजादी का 100तक लगने में पर अब भी गधे घोड़े नहीं बन पाये क्या कर रही थी हमारी पिछली सरकारें और दा ग्रेट संविधान जिसने जातिवादी विष को और भी घातक बना दिया