६ दिसंबर १९९२ की समीक्षा : तैंतीस बरस बाद

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babari Masjid

र देश का अपना संस्कृति कोश होता है जो उसके स्मृति संसार के सुख-दुख की घटनाओं से पैदा विमर्श को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करता रहता है। 16वीं शताब्दी के प्रथम मुगल शासक बाबर के एक प्रशासक मीर बाकी द्वारा अयोध्या में बनाई बाबरी मस्जिद को श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के आवाहन पर एकत्रित स्वयंसेवकों की भीड़ द्वारा ६ दिसम्बर १९९२ को दिनदहाड़े नष्ट किया जाना एक अविस्मरणीय घटना है। इसके बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री ‌श्री नरसिंह राव से लेकर पुलिस अधिकारी श्री मलय कृष्ण धर ने किताबें लिखी हैं।‌ लिब्रहान आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मंडल के अपने अपने निष्कर्ष से प्रकाशित हुए हैं।‌ इस सबसे स्वाधीनोत्तर भारतीय‌ इतिहास में इसे ”अस्मिता की राजनीति’ को बढ़ावा देने वाले एक सफल आंदोलन के रुप में जगह मिल चुकी है। इस घटना का क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयाम भी था। इसलिए आज तीन दशकों की दूरी के कारण इसे अनेकों कोणों से देखा जा सकता है।

राजनीतिक समाजशास्त्र में इसे ‘सामाजिक न्याय की राजनीति’ (अर्थात अन्य पिछड़ा वर्ग को मंडल आयोग की सिफारिश पर शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दिए गए २७ प्रतिशत आरक्षण ) का विरोध कर रहे सवर्ण हिंदू जमातों का जवाब माना गया है। मंडल बनाम कमंडल। इससे उत्तर भारत और मध्य भारत की हिंदू प्रभु जातियों में ‘अगडा़ बनाम पिछड़ा’ का ध्रुवीकरण बेपर्दा हो गया। शूद्र मानी गई जातियों में ‘पिछडा़’ और ‘अति-पिछडा़’ का नया विवाद महत्वपूर्ण हो गया। कांग्रेस, समाजवादी और वामपंथी दलों में आरक्षण को लेकर धुंध फैल गई। परिवर्तन की राजनीति में गतिरोध पैदा हो गया क्योंकि सामाजिक न्याय का आर्थिक समता और राजनीतिक विकेंद्रीकरण से संबंध विच्छेद हो गया। कर्पूरी ठाकुर फार्मूला और अब्दुल नज़ीर साहब के कर्नाटक माडल को मंडल आयोग ने पीछे छोड़ दिया।

हिंदू आस्था और अस्मिता के आग्रही इसे ‘सांस्कृतिक पराधीनता के एक प्रतीक के निर्मूलन ‘ और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अभ्युदय से जोड़ कर देखते हैं। हिंदुत्व के दावेदार ‘अयोध्या तो एक झांकी है, काशी – मथुरा बाकी है!’ से लेकर ‘तीन नहीं, अब तीस हजार ! बचे नहीं कोई मस्जिद – मज़ार!!’ के नारे लगाते हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियां नयी निडरता के साथ सामाजिक हिंसा की पहृल करने लगीं। मुसलमानों के प्रति नफ़रत का विस्तार करने लगी। लेकिन १९९९ मैं भारतीय जनता पार्टी के सत्तारोहण के बाद समावेशी होने की अनिवार्यता के कारण सांप्रदायिक सद्भावना के नारे अपनाए गए । २०१४ में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ बाद १८० डिग्री का परिवर्तन किया गया : सबका विकास, सबका साथ, सबका विश्वास, सबका प्रयास।

बाबरी मस्जिद विध्वंस ने मुसलमानों में ‘अल्पसंख्यक’ होने के भाव‌ को गहरा किया। गांधी – नेहरू की भारतीय राष्ट्रीयता की परिभाषा को मिली चुनौती ने मुसलमानों में ‘पहचान’ की अलगाववादी व्याख्या के समर्थकों का पलड़ा भारी कर दिया। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ और ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा!’ जैसे गानों की जगह इस्लामी बंधुत्व की जरूरत की चर्चा, पाकिस्तान, ओवैसी और जमाते इस्लामी के मंच का आकर्षण बढ़ने लगा। हिजाब और बुर्के की वापसी, पांचों वक्त की नमाज़, रमजान के रोज़े रखना और ‘खुदा’ की जगह ‘अल्ला’ कहने के आग्रह की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। मुस्लिम असामाजिक तत्वों की राजनीतिक दखल का विस्तार हुआ। शिया – सुन्नी, सैय्यद – पसमांदा, और उत्तर – दक्षिण के फासले भी महत्वपूर्ण हो गये।

रामजन्म भूमि – बाबरी मस्जिद विवाद ने उदार हिंदुओं को न घर का रखा न घाट का। एक तरफ ‘जिस हिंदू का खून न खौला, खून नहीं वो पानी है। जो राममंदिर के लिए काम न आई वह बेकार जवानी है!’ का शोर था। दूसरी तरफ शाह बानो के फैसले से लेकर रामजन्म भूमि आंदोलन के दबाव में केंद्रीय सरकार लगातार पीछे हट रही थी। ‘का को करूं सिंगार, पिया मोर आंधर!’ । ‌श्री राजीव गांधी से लेकर ‌श्री नरसिंह राव तक ‘मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति’ के आरोपी जैसा आचरण कर रहे थे

भारत की बनावट में बहुलता की प्रधानता है। यह संगम की पूजा करने की ओर झुका हुआ समाज है। इसलिए ‘अद्वैत’, ‘एकता’, ‘पूर्णता’, ‘शुद्धता’ और ‘पवित्रता’ की दुर्लभता है। आग्रह है। तलाश है। प्रयास है। वसुधैव कुटुंबकम् का जीवन दर्शन है। षडदर्शन का स्वीकार है। एकम् सद् बहुधा वदंति का शास्त्रीय आधार है और फिर भी सबके अपने अपने आस्था कवच और कर्मकांड हैं। एक ओंकार के अनेक अवतारों की मान्यता है। अनेकता में एकता का जीवन दर्शन और एकता में अनेकता का, जाति- उपजाति – गोत्र और संप्रदाय का जटिल समाजशास्त्र है। ऐसे देश‌ में छ दिसंबर १९९२ को पूर्व प्रचारित तरीके से एक धर्म विशेष के विवादग्रस्त आराधना स्थान पर दूसरे धर्म विशेष के एक लाख से अधिक लोगों द्वारा एक राजनीतिक दल के संरक्षण में एकत्रित होकर तोड़ फोड, कब्ज़ा और अपने आराध्य के जन्म स्थान के रूप में पूजा अर्चना की घटना के तैंतीस बरस बाद ‘प्रभाव वर्णन’ आसान काम नहीं है।

किसी भी घटना की तरह बाबरी मस्जिद विध्वंस का भी एक पक्ष और प्रतिपक्ष है।‌‌ १ अरब चालीस करोड़ का बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश तब इस घटनाक्रम के समर्थको और‌ निंदकों में बंट गया byथा। उदासीनता की गुंजाइश नहीं थी। आज भी एक विभाजन है। लेकिन इस बीच दो पीढ़ियों ने जन्म लिया और उनके अपने अपने सरोकार भी हैं। इसलिए पक्ष और प्रतिपक्ष के df में शामिल लोगों में नये प्रश्नों और प्रसंगों के कारण एकता नहीं बची है। प्रतिपक्ष तो तब भी धर्म और धर्म निरपेक्षता, मुस्लिम – गैर-मुस्लिम, हिंदू – गैर हिन्दू , राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आदि आधारों पर बिखरा हुआ था। सरकार द्वारा नियुक्त लिब्रहान आयोग ने ११ बरस लंबी जांच पड़ताल के बाद इसे पूर्व नियोजित और दंडनीय हरक़त क़रार दिया। लेकिन न्यायालय ने सभी ६२ आरोपियों को कई बरसों तक चली कानूनी कार्रवाई के बाद निर्दोष पाया!


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