पुनर्जागरण की जरूरत और पाखंडियों के स्वर – डॉ योगेन्द्र

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फ़िल्म Sujata

विमल राय की एक फिल्म है -’सुजाता ‘। जब मैं महज एक वर्ष का था, तब यह फिल्म बनी थी यानी 1959 में। ब्लैक एंड व्हाइट में बनी फिल्म इतने वर्षों के बाद भी अच्छी लगती है। कथ्य, अदाकारी और फिल्मांकन लाजवाब है। नूतन, धर्मेन्द्र, शशिकला , तरुण बोस, ललिता पवार और सुलोचना कलाकार हैं। कथ्य है अछूतोद्धार। नूतन जिसका नाम सुजाता है, वह एक अछूत कन्या है जो संयोगवश तरुण बोस और सुलोचना के परिवार में पलती है। कहना न होगा कि तरुण बोस और सुलोचना तथाकथित खानदानी ब्राह्मण परिवार के हैं। पालने के क्रम में ही परिवार में संवेदनशील घटनाएं घटती रहती हैं। नूतन पूरी तन्मयता से परिवार की सेवा करती है और तरुण बोस और सुलोचना को ही अपने माता-पिता मानती है। शशिकला तरुण बोस और सुलोचना की बेटी है। जब नूतन का परिचय सुलोचना ‘ बेटी जैसी ‘ कह कर करवाती है, तब वह टूटती है, लेकिन परिवार में लगी रहती है। धर्मेन्द्र ललिता पवार की बेटी का लड़का है। वह किताबों में डूबा रहता है।

ललिता पवार शशिकला से शादी करवाना चाहती है। धर्मेन्द्र नूतन से प्यार कर बैठता है। जब यह खबर बाहर आती है तो दोनों परिवार स्तब्ध रह जाते हैं। सुलोचना नूतन पर इल्ज़ाम लगाती है कि तुमने अपनी बहन का हक छीना है। एक दिन इसी अंतर्द्वंद्व में वह सीढ़ियों पर लुढ़क जाती है। काफी खून बह जाता है और उसे खून की जरूरत पड़ती है। डाक्टर खून का मिलान करता है। परिवार के किसी भी सदस्य से खून नहीं मिलता। खून अछूत कन्या नूतन से मिलता है। सभी को अहसास होता है कि अछूत एक कृत्रिम और अमानवीय सामाजिक व्यवस्था है। फ़िल्म महात्मा गांधी के अछूतोद्धार से प्रभावित है। धर्मेन्द्र गांधी का जिक्र भी करता है।

देश कहां से कहां तक आ गया। आज भी अछूत होने का दंश मौजूद है। अम्बेडकर वादियों ने गांधी पर हमले किए, लेकिन जाति के पैने विष दंत टूटे नहीं। डॉ अम्बेडकर ने तो ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ यानी ‘जाति का विनाश’ नामक किताब लिखी। उनकी सदिच्छा तो जाति के खात्मे की थी। हालत यह है कि जाति तो है ही, सैकड़ों उप जातियां हैं। ये उपजातियों का रोग अगड़े और पिछड़े दोनों में है।‌ एक ही जाति के उपजातियों में भी छोटे – बड़े का भाव है। सभी उप जातियों में भी सहजता पूर्वक शादी नहीं होती। चांद पर एक नयी दुनिया बसाने की ख्वाहिश पालने वाली इस दुनिया ने धरती पर एक बराबरी वाला समाज नहीं बना सका। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘ सभ्यता और संस्कृति पर लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा है -” अस्तव्यस्तता, सशंकता और अरक्षणीयता का जहां अंत होता है, सभ्यता वहां से शुरू होती है।” यह देश आज भी अस्त-व्यस्त है, शंकालु है और अरक्षणीय है। हम सब एक दूसरे से मिलते कम हैं, शंका ज्यादा करते हैं। मनुष्य मनुष्य के अंदर स्वाभाविक प्रवाह नहीं है। मैंने जब एक सरकारी विद्यालय में योगदान करने गया था तो वहां के विज्ञान शिक्षक ने साफ़ साफ़ पूछा-’ कौन आश्रम?’

आश्रम जान कर ही संबंध बनाये जाते हैं। विज्ञान पढ़ लेने से वैज्ञानिक समझ का विकास नहीं हो जाता। विमल राय की समझ स्पष्ट थी। करूणा और मानवीयता की भावनाएं ही वास्तविक संस्कृति का निर्माण कर सकती हैं। शेष सांस्कृतिक पुनर्जागरण का ढोल पीटते रहिए। यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण नहीं, प्रति पुनर्जागरण काल है, जहां झूठ और नफ़रत की नदी बहायी जा रही है। जब भी जागरण हुआ है, तब अंध विश्वास, पाखंड और असत्य के खिलाफ बिगुल फूंका गया है। यहां तो अंध विश्वास, पाखंड और असत्य को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित करने की भरपूर कोशिश की जा रही है।


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