स्त्री-पुरुष एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, पूरक हैं – मनोज अभिज्ञान

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man and women

दुनिया को स्त्री और पुरुष के खांचे में बांटकर देखने की आदत इतनी पुरानी और स्वाभाविक बना दी गई है कि उस पर प्रश्न करना ही कई लोगों को अटपटा लगता है। जैसे यह विभाजन कोई सनातन सत्य हो, जैसे जीवन की सारी व्याख्याएं इन्हीं दो श्रेणियों में पूरी हो जाती हों। लेकिन जरा शांत होकर देखें तो यह स्पष्ट होने लगता है कि यह दृष्टि प्रकृति से नहीं, समाज की बनाई हुई है। मनुष्य के अलावा शायद ही कोई जीव अपने अस्तित्व, संबंधों और व्यवहार को नर-मादा की नैतिक श्रेणियों में सोचता हो। वहां न अधिकार की भाषा है, न कर्तव्य की नैतिकता, न श्रेष्ठता या हीनता का विचार। जीवन बहता है, चलता है, जुड़ता है, टूटता है, फिर से बनता है। केवल मनुष्य ने इस प्रवाह को नाम दिए, सीमाएं तय कीं और फिर उन्हीं सीमाओं को सत्य घोषित कर दिया। स्त्री और पुरुष का विभाजन भी इसी तरह का सामाजिक निर्माण है, जिसने जीवन की प्राकृतिक जटिलता को दो सरल लेकिन कठोर खानों में कैद कर दिया है।

हम जीवन की जटिलता को दो खानों में बांटकर समझ लेना चाहते हैं क्योंकि यह आसान है, क्योंकि इससे व्यवस्था का भ्रम मिलता है। लेकिन प्रकृति कहीं भी इस तरह के सरलीकरण को स्वीकार नहीं करती। जंगल में कोई हिरण यह नहीं सोचता कि शेर नर है या मादा इसलिए वह खतरनाक है या सुरक्षित। पक्षियों के झुंड में उड़ान का नियम लिंग से तय नहीं होता। मधुमक्खियों के छत्ते में काम का बंटवारा है, पर वह नैतिक श्रेष्ठता या हीनता का सवाल नहीं बनता। केवल मनुष्य ने अपने सामाजिक डर, वर्चस्व की इच्छाओं और सत्ता की राजनीति को स्त्री और पुरुष के नाम पर स्थायी रूप दे दिया है। यह कहना कि दुनिया को स्त्री पुरुष के खांचे में देखना मूर्खता है, प्रकृति और जीवन के प्रति गंभीर समझ की ओर पहला कदम है।

वास्तविकता यह है कि नर और मादा, स्त्री और पुरुष, दो विरोधी ध्रुव नहीं हैं। वे किसी युद्ध के मैदान के दो पक्ष नहीं हैं। वे जीवन के एक ही प्रवाह की दो धाराएं हैं, जो अलग होकर भी एक दूसरे के बिना अर्थहीन हैं। पूरकता का अर्थ अधीनता नहीं होता, न ही श्रेष्ठता। पूरकता का अर्थ है कि जीवन की पूर्णता उनके सहयोग से ही संभव होती है। जैसे दिन और रात में से किसी एक को चुनकर जीवन नहीं चल सकता, वैसे ही नर और मादा को प्रतिद्वंद्वी बनाकर मनुष्य केवल भ्रम रचता है। प्रकृति में नर और मादा का संबंध कार्यात्मक है, नैतिक नहीं। वह जीवन के निरंतर बने रहने का माध्यम है, किसी को नियंत्रित करने का औजार नहीं।

समस्या जैविक भिन्नता में नहीं, बल्कि उस भिन्नता की सामाजिक व्याख्या में है। जैविक स्तर पर अंतर स्वाभाविक है। शरीर अलग हैं, हार्मोन अलग हैं, भूमिकाएं कुछ हद तक अलग हैं। लेकिन इन अंतरों को मूल्य से जोड़ना, उन्हें सत्ता और पहचान का आधार बनाना विशुद्ध मानवीय हस्तक्षेप है। मनुष्य ने शरीर विज्ञान को सामाजिक पदानुक्रम में बदल दिया। यहीं से स्त्री और पुरुष प्राकृतिक पूरकता से फिसलकर सामाजिक प्रतिस्पर्धा और असमानता में बदल गए। अन्य जीव यह गलती नहीं करते क्योंकि उनके पास सत्ता की ऐसी चेतना नहीं होती। वे अस्तित्व को जीते हैं, उसका वर्गीकरण नहीं करते।

स्त्री और पुरुष के खांचे में देखने की प्रवृत्ति केवल स्त्री को नुकसान नहीं पहुंचाती, पुरुष को भी करती है। पुरुष को शक्ति, कठोरता और भावनाहीनता के खांचे में बंद कर दिया जाता है। उसे सिखाया जाता है कि संवेदनशील होना कमजोरी है, सहयोग करना स्त्रैण है, और करुणा सत्ता के खिलाफ है। इस तरह स्त्री को सीमित करके पुरुष को भी अधूरा बना दिया जाता है। पूरकता का वास्तविक अर्थ तभी सामने आता है जब दोनों को अपनी मानवीय संभावनाओं के पूरे विस्तार के साथ जीने दिया जाए। जहां स्त्री केवल कोमलता का प्रतीक न बने और पुरुष केवल कठोरता का प्रतिनिधि न रहे।

प्रकृति हमें बार-बार यह सिखाती है कि जीवन द्वैत से नहीं, संतुलन से चलता है। नदी और किनारे, बीज और मिट्टी, वर्षा और धूप, ये सब पूरक हैं। कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं, न ही स्थायी रूप से मुख्य। स्त्री और पुरुष भी इसी संतुलन का हिस्सा हैं। जब हम उन्हें खांचों में बांधते हैं, तो हम संतुलन को तोड़ते हैं। तब संबंध प्रतिस्पर्धा में बदल जाता है और सहयोग शक्ति संघर्ष में। यही कारण है कि आधुनिक समाज, तकनीकी प्रगति के बावजूद, संबंधों में लगातार अधिक तनाव, असुरक्षा और हिंसा पैदा कर रहा है।

शरीर और मन, दोनों स्तरों पर विविधताएं हैं। लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा अब भी दो ही दराजों में सब कुछ ठूंसने की कोशिश करता है। जो इन दराजों में फिट नहीं बैठता, उसे असामान्य कहा जाता है। यह असामान्यता प्रकृति में नहीं, हमारे सोचने के तरीकों में है। जब हम जीवन को खुली प्रक्रिया की तरह देखते हैं, तब खांचे अप्रासंगिक हो जाते हैं।

नर और मादा की पूरकता को समझने का बेहतर तरीका यह है कि हम उसे संबंध के स्तर पर देखें, पहचान के स्तर पर नहीं। पहचान स्थिर होती है, संबंध गतिशील। पहचान दीवार बनाती है, संबंध पुल। जब स्त्री और पुरुष को पहचान के कठोर खानों में रखा जाता है, तो वे एक दूसरे को समझने के बजाय परिभाषित करने लगते हैं। जब उन्हें संबंध की तरह समझा जाता है, तो संवाद संभव होता है। संवाद वहां शुरू होता है जहां पूर्व निर्धारित अपेक्षाएं खत्म होती हैं। यहीं पूरकता जीवंत होती है।

भारत में प्रचलित फेमिनिज्म दरअसल छद्म नारीवाद है, क्योंकि वह स्त्री-पुरुष के खांचे को तोड़ने के बजाय उसी को और पक्का करता दिखाई देता है। यहाँ नारीवाद बराबरी की खोज से ज़्यादा प्रतिद्वंद्विता की भाषा बोलता है, सहयोग के बजाय आरोप की मुद्रा अपनाता है। वह यह मानकर चलता है कि स्त्री और पुरुष स्वाभाविक रूप से विरोधी हैं, जबकि समस्या सत्ता संरचनाओं में है, संबंधों में नहीं। इस दृष्टि में स्त्री को पीड़ित की स्थायी पहचान दे दी जाती है और पुरुष को अपराधी की, जिससे दोनों की मानवीय जटिलता गायब हो जाती है। ऐसा नारीवाद प्राकृतिक पूरकता को नहीं पहचानता, बल्कि उसे नकार कर नई ध्रुवीय राजनीति रचता है। परिणाम यह होता है कि वह पितृसत्ता को चुनौती देने के बजाय उसी के तर्क को उलटी दिशा में दोहराता है। वास्तविक मुक्तिवादी सोच खांचे तोड़ती है, जबकि छद्म नारीवाद उन्हीं खांचों में नई दीवारें खड़ी करता है।

यह भी याद रखना चाहिए कि पूरकता समानता का विरोधी विचार नहीं है। समान अधिकार और समान सम्मान के भीतर भी पूरक भूमिकाएं हो सकती हैं। समस्या तब पैदा होती है जब भूमिका को नियति बना दिया जाता है। जब कहा जाता है कि स्त्री का स्वभाव ऐसा ही है या पुरुष ऐसा ही होता है। स्त्री पुरुष के खांचे में चीजों को न देखने का अर्थ यह नहीं कि भिन्नताओं को नकार दिया जाए। इसका अर्थ है कि भिन्नताओं को सत्ता के औजार में न बदला जाए। इसका अर्थ है कि जीवन को सहयोग की प्रक्रिया के रूप में समझा जाए, न कि वर्गीकरण की परियोजना के रूप में। जब हम यह सीख लेते हैं, तब स्त्री और पुरुष दो नाम रह जाते हैं, दो अनुभव, जो मिलकर जीवन को संभव बनाते हैं। तब वे न प्रतियोगी होते हैं, न शत्रु। वे सहयात्री होते हैं, एक ही अस्तित्व यात्रा में, एक दूसरे के बिना अधूरे, और एक दूसरे के साथ ही पूर्ण।

जब हम इस खांचेबद्ध सोच से बाहर निकलकर स्त्री और पुरुष को जीवन के पूरक रूपों की तरह देखते हैं, तब दुनिया अधिक सहज, अधिक मानवीय और अधिक सच्ची दिखाई देने लगती है। तब संबंध सत्ता का खेल नहीं रह जाते, बल्कि सहयोग का अनुभव बन जाते हैं। तब भिन्नता डर का कारण नहीं रहती, बल्कि जीवन की समृद्धि का स्रोत बनती है। नर और मादा, स्त्री और पुरुष, स्थायी पहचान नहीं, बल्कि अस्तित्व की निरंतर प्रक्रिया के अलग-अलग क्षण हैं। उन्हें विरोध में खड़ा करना जीवन के उस गहरे संतुलन को तोड़ना है, जिस पर सृष्टि टिकी है। पूरकता का अर्थ यही है कि कोई पूरा अकेले नहीं होता, और कोई अधूरा दूसरे के कारण नहीं। जब यह समझ विकसित होती है, तभी हम वास्तव में मनुष्य होते हैं, न कि उन खांचों के कैदी जिन्हें हमने खुद ही गढ़ लिया है।


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