मानवाधिकार : साहित्य और मीडिया

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Human Rights

Parichay Das

— परिचय दास — 

धुनिक विश्वदृष्टि में मनुष्य का स्थान धीरे-धीरे एक सार्वभौमिक नैतिक इकाई के रूप में स्थापित हुआ। इस बौद्धिक यात्रा में “अधिकार” की अवधारणा मानवीय विवेक की ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में उभरी। व्यक्ति को स्वतंत्र, स्वायत्त और गरिमामय अस्तित्व के रूप में देखने की यह प्रक्रिया केवल राजनीतिक दर्शन तक सीमित नहीं रही; उसने साहित्य और संचार माध्यमों के अंतःकरण को भी रूपांतरित किया। इस परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार, साहित्य और मीडिया का संबंध किसी बाहरी गठजोड़ का नहीं बल्कि एक साझा नैतिक चेतना का विस्तार है जो आधुनिक सभ्यता की आत्मा में स्थायी रूप से प्रवेश कर चुका है।

मानवाधिकार की अवधारणा ने मनुष्य और सत्ता के बीच के पारंपरिक रिश्ते को उलट दिया। अब सत्ता का आधार शक्ति नहीं बल्कि उत्तरदायित्व बनने लगा। यह दृष्टि मानती है कि व्यक्ति केवल राज्य का प्रजा नहीं बल्कि उसके अस्तित्व का नैतिक केंद्र है। इसी बदलाव ने साहित्य को भी एक नया नैतिक दायित्व प्रदान किया। साहित्य अब केवल सौंदर्य बोध की साधना नहीं रहा; वह मनुष्य की पीड़ा, उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा और उसके अस्तित्व के संघर्ष का सूक्ष्म अभिलेख बन गया। यहाँ शब्द केवल कल्पना के वाहन नहीं बल्कि चेतना के औजार बने—ऐसे औजार, जो अदृश्य पीड़ा को दृश्य और मौन को मुखर करने लगे।

इसी बौद्धिक पृष्ठभूमि में मीडिया का उदय एक निर्णायक मोड़ के रूप में हुआ। मीडिया केवल सूचना का माध्यम नहीं बल्कि सामाजिक सत्य का सार्वजनिक मंच बन गया। इसकी शक्ति इस बात में निहित है कि यह अदृश्य को दृश्य और दूरस्थ को निकट बना देता है। जब किसी अन्याय का चित्र लाखों आँखों तक पहुँचता है या किसी पीड़ित की कथा असंख्य कानों तक जाती है तब व्यक्तिगत दुःख सामूहिक चेतना में रूपांतरित हो जाता है। यह रूपांतरण अधिकार की अवधारणा को केवल दर्शन से व्यवहार में उतार देता है।

साहित्य और मीडिया के बीच एक गहन अंतर्संबंध विकसित हुआ जो अधिकारों की चेतना को व्यापक बनाता है। साहित्य जहाँ संवेदना का गहरा संस्कार रचता है, वहीं मीडिया उस संस्कार को सामाजिक दृश्यता प्रदान करता है। एक उपन्यास जो मनुष्य के अपमान को अत्यंत सूक्ष्मता से चित्रित करता है, वही मीडिया के माध्यम से व्यापक सामाजिक विमर्श का विषय बन सकता है। इस प्रकार दोनों मिलकर एक ऐसी सांस्कृतिक संरचना निर्मित करते हैं, जहाँ अधिकार केवल कानूनी शब्दावली नहीं, बल्कि सामाजिक अनुभूति का हिस्सा बन जाते हैं।

साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि यह दृष्टि मनुष्य को एकांत इकाई की तरह नहीं बल्कि एक सार्वभौमिक नैतिक समुदाय के सदस्य के रूप में देखती है। प्रत्येक व्यक्ति का दुःख केवल उसका व्यक्तिगत दुःख नहीं रहता; वह सम्पूर्ण मानवता की पीड़ा में शामिल हो जाता है। यही वह भावभूमि है, जहाँ साहित्य करुणा को भाषा देता है, और मीडिया उस करुणा को जन-संचार का रूप प्रदान करता है। परिणामस्वरूप एक ऐसा सार्वजनिक नैतिक क्षेत्र निर्मित होता है, जहाँ अन्याय और असमानता के प्रति संवेदनशीलता विकसित होने लगती है।

इस पूरी प्रक्रिया में एक गहरा अंतर्विरोध भी उभरता है। जब अधिकारों की भाषा लोकप्रिय होती है, तब उनके बाज़ारीकरण का ख़तरा भी पैदा होता है। मीडिया कभी-कभी संवेदना को तमाशा बना देता है और साहित्य भी कभी-कभी पीड़ा को केवल सौंदर्य का उपकरण बना लेता है। ऐसी स्थिति में मानव गरिमा केवल एक विमर्श भर बनकर रह सकती है किंतु तब भी इस दृष्टि की मूल शक्ति समाप्त नहीं होती, क्योंकि इसके भीतर आत्मालोचना की क्षमता मौजूद रहती है। यही आत्मालोचना उसे बार-बार अपने मूल नैतिक आग्रह की ओर लौटने की प्रेरणा देती है।

यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकार, साहित्य और मीडिया का यह संयुक्त चिंतन आधुनिक चेतना का वह क्षेत्र है जहाँ मनुष्य स्वयं को केवल जीवित प्राणी के रूप में नहीं, बल्कि गरिमामय सत्ता के रूप में पहचानता है। यहाँ अधिकार किसी दिए गए वरदान की तरह नहीं बल्कि निरंतर चलने वाली बौद्धिक और नैतिक साधना के रूप में उपस्थित रहते हैं। साहित्य इस साधना को भाषा और कल्पना का विस्तार देता है और मीडिया उसे सामाजिक जीवन की प्रत्यक्ष भूमि पर उतार देता है। इस तरह यह पूरा ताना-बाना आधुनिक मानवता की उस अदृश्य संरचना का निर्माण करता है, जहाँ न्याय, स्वतंत्रता और गरिमा केवल आदर्श नहीं बल्कि सतत सजग चेतना के रूप में जीवित रहते हैं।

इस समापन बिंदु पर स्पष्ट होता है कि मानवाधिकार, साहित्य और मीडिया का संबंध किसी तात्कालिक राजनीतिक परियोजना का नहीं, बल्कि मनुष्यत्व के दीर्घकालिक आत्म-विकास का परिणाम है। यह विकास अभी पूर्ण नहीं हुआ है पर इसकी दिशा स्पष्ट है—एक ऐसी दुनिया की ओर, जहाँ मनुष्य को उसकी अस्मिता से कम नहीं आँका जाएगा और जहाँ शब्दों, चित्रों और ध्वनियों के माध्यम से उसकी गरिमा की रक्षा लगातार होती रहेगी।

मनुष्य केवल देह नहीं, एक चेतना है—ऐसी चेतना जो स्पर्श से आहत होती है, शब्द से जागती है और मौन में अपना सबसे सच्चा चेहरा देखती है। जब संसार ने पहली बार अपने भीतर यह स्वीकार किया कि प्रत्येक व्यक्ति का जन्म कुछ अटूट स्वतंत्रताओं के साथ होता है, उसी क्षण साहित्य ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी और शब्दों में न्याय की धड़कन भर दी। अधिकार केवल संविधान की ठंडी धाराओं में नहीं बसे होते, वे कविता के कोमल स्पर्श में, कथा के भीतर बहते आँसुओं में, और निबंध के मंथर आत्मस्वर में भी साँस लेते हैं।

साहित्य का जन्म ही असमानता के विरुद्ध एक सूक्ष्म विद्रोह है। आदिम गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई आकृतियाँ केवल शिकार का विवरण नहीं थीं, वे मनुष्य के भय, साहस और जीने के अधिकार की पहली कलात्मक घोषणा थीं। समय के साथ सभ्यताएँ बदलीं, साम्राज्यों ने सत्ता की जंजीरें गढ़ीं लेकिन साहित्य उन जंजीरों के बीच से होकर भी मनुष्य की अस्मिता की ज्योति को बुझने नहीं देता रहा। एक उपन्यास का अकेला पात्र लाखों गुमनाम मनुष्यों की पीड़ा को अपनी आँखों में समेट लेता है, और कविता उनकी टूटी आवाज़ को भाषा का आकाश देती है।

ललित गद्य में अधिकारों का स्वर अक्सर बहुत धीमे उतरता है—बिना शोर के, बिना नारे के। यह एक शांत झील की तरह होता है, जिसकी सतह पर कोई हलचल नहीं दिखती, किंतु गहराई में असंख्य स्मृतियाँ, अपमान, अपूर्ण इच्छाएँ और दबे हुए प्रश्न तैरते रहते हैं। जब कोई लेखक भूखे बच्चे की आँखों का वर्णन करता है, या किसी स्त्री के मौन को शब्द देता है तो वह केवल एक दृश्य नहीं रचता, वह मनुष्यता के मूल स्थान को छू लेता है। वहाँ अधिकार आदेश के रूप में नहीं, संवेदना के रूप में उपस्थित होते हैं—एक नैतिक अनिवार्यता की तरह।

कविता इस यात्रा में सबसे कोमल और सबसे उग्र माध्यम बन जाती है। उसकी पंक्तियाँ कभी पंख बनती हैं, कभी चोट। वह सत्ता के गलियारों तक नहीं जाती, बल्कि सीधे हृदय की देहलीज़ पर दस्तक देती है। प्रेम की कविता भी अंततः स्वतंत्रता की ही एक आकांक्षा है—अपने होने की, अपने चुनने की, अपने सपने बुनने की स्वतंत्रता। जब कवि कहता है कि मनुष्य आकाश की तरह खुला होना चाहता है, तब वह किसी नियम का संदर्भ नहीं देता, केवल आत्मा की स्वाभाविक उड़ान को शब्द देता है।

मानव गरिमा की धारणा धीरे-धीरे साहित्य की आत्मा में एक स्थायी मूल्य बन गई। मध्यकाल की कथाओं से लेकर आधुनिक समय की कहानियों तक, हर जगह मनुष्य को मात्र साधन नहीं, एक उद्देश्य के रूप में देखने की दृष्टि विकसित होती गई। उपन्यासों के विद्रोही पात्र, नाटकों के मौन दर्शक, और कविताओं के उदास गीत—सब मिलकर यह स्मरण कराते रहे कि कोई भी व्यवस्था तब तक पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक वह प्रत्येक व्यक्ति के दुःख को अपने भीतर अनुभव न कर सके। जब पाठक किसी पीड़ित पात्र के साथ चलने लगता है, उसकी भूख, उसकी अपमानजनक चुप्पी, उसकी टूटी उम्मीदों को महसूस करता है तब कानून से पहले उसका मन उत्तरदायी हो उठता है। यही वह बिंदु है, जहाँ साहित्य अपने सबसे गहरे अर्थ में अधिकारों का विस्तार बन जाता है।

इस समूचे अनुभव में साहित्य कोई घोषणा-पत्र नहीं लिखता, कोई जुलूस नहीं निकालता। वह केवल इतना करता है कि मनुष्य को मनुष्य के सामने नग्न सत्य के साथ खड़ा कर देता है। और उस क्षण, जब आँखें झुक जाती हैं, जब मन थोड़ी देर को शर्मिंदा होता है, तब कहीं भीतर बहुत चुपचाप एक नई नैतिक दुनिया जन्म लेती है। अधिकार कहीं बाहर नहीं होते—वे पाठक की अंतरात्मा में उतर आते हैं, और वहीं से अपनी सबसे सच्ची यात्रा शुरू करते हैं।

यही कारण है कि साहित्य और अधिकारों का संबंध किसी नीति से नहीं, करुणा से बनता है। नीति समय के साथ बदल सकती है, सत्ता दिशा बदल सकती है, पर साहित्य में जगा हुआ मनुष्यत्व स्थायी होता है। जब तक संसार में एक भी कविता लिखी जाती रहेगी, एक भी कथा कही जाती रहेगी, तब तक मनुष्य अपने भीतर यह याद रखेगा कि उसे केवल जीना ही नहीं, गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी है।

जब सुबह का पहला अख़बार दरवाज़े के नीचे से फिसलकर कमरे की ख़ामोशी तोड़ता है, तो वह केवल ख़बरें नहीं लाता—वह मनुष्य की पीड़ा, आशा और प्रतिरोध की धड़कनें भी साथ लाता है। मीडिया वस्तुतः समाज की सामूहिक आँख है, जो अंधेरे में भी देखने का साहस रखती है और चुप्पी के मोटे पर्दों को धीरे-धीरे हटा देती है। वहीं से मानवाधिकारों की मौन पुकार शब्दों, चित्रों और स्वरों में ढलकर हमारे भीतर उतरती है।

हर स्क्रीन, हर पन्ना, हर माइक्रोफोन एक अनकही ज़िम्मेदारी से भरा होता है। जब किसी कोने में कोई आवाज़ दबाई जाती है, तो मीडिया उस दबे हुए कंपन को पकड़ कर दुनिया के सामने रख देता है। यह कोई अदालत नहीं, कोई क़ानून की किताब नहीं, बल्कि एक संवेदनशील पुल है—शोषित और समाज के बीच, मौन और प्रश्न के बीच। एक छोटी-सी रिपोर्ट भी कई बार इतिहास का रुख मोड़ देती है, क्योंकि उसमें केवल तथ्य नहीं, मनुष्यता की पुकार भी छिपी होती है।

ललित गद्य की दृष्टि से देखें तो मीडिया किसी नदी की तरह है—कभी शांत, कभी उफनती हुई। उसमें सूचनाओं की लहरें बहती हैं, पर साथ ही पीड़ा की गहराइयाँ भी। जब कैमरा किसी बच्चे की सूनी आँखों पर ठहरता है, या माइक किसी कांपती आवाज़ को दुनिया तक पहुँचाता है, तब वह क्षण मात्र समाचार नहीं रह जाता; वह सामूहिक चेतना का एक स्पर्श बन जाता है। वहाँ अधिकार कोई कानूनी धारणा नहीं रह जाते, वे मानव चेहरे की महीन रेखाओं में उभर आते हैं।

मीडिया की सबसे बड़ी शक्ति उसका शीशा होना है—वह समाज को उसका ही चेहरा दिखाता है। कई बार यह चेहरा कुरूप होता है, हिंसा, भेदभाव और अन्याय से भरा हुआ। उस समय मीडिया का काम फूल बरसाना नहीं, बल्कि सच का कड़वा जल चढ़ाना होता है। यह वही क्षण है, जब मानवाधिकार केवल विचार नहीं रहते, वे समाज के अंतःकरण में चुभन पैदा करते हैं—एक ऐसी चुभन, जो परिवर्तन की पहली शर्त बन जाती है।

मीडिया केवल आलोचना का माध्यम नहीं। वह आशा का निर्माण भी करता है। जब वह उन चेहरों को जगह देता है, जिन्होंने अंधेरे में भी दीपक जलाए हैं; जब वह उन आवाजों को सुनाता है जो न्याय की भाषा बोलती हैं; तब वह केवल सूचनाओं का प्रसार नहीं करता बल्कि मनुष्यता के भविष्य की एक कोमल रूपरेखा गढ़ता है। उस क्षण शब्द, तस्वीर और ध्वनि मिलकर एक ऐसा नैतिक वातावरण बनाते हैं, जिसमें गरिमा एक स्वप्न नहीं, एक संभव यथार्थ लगने लगती है।

मीडिया एक संवेदनशील वाद्य की तरह है—जिस पर समाज के दुःख, क्रोध और उम्मीद की उँगलियाँ चलती हैं। कभी उसकी ध्वनि तीखी हो जाती है, कभी बहुत मधुर पर उसकी उपस्थिति स्वयं में एक आश्वासन है कि कोई देख रहा है, कोई सुन रहा है और किसी कोने में पड़ी मनुष्यता पूरी तरह अकेली नहीं है। मानवाधिकार और मीडिया का यही मौन संवाद है—बिना शोर के लेकिन गहराई से समाज की आत्मा को छू लेने वाला।

मानवाधिकार, साहित्य और मीडिया का समवेत स्वर आधुनिक सभ्यता की उस अंतरंग चेतना को प्रकट करता है जहाँ मनुष्य को मात्र संख्या, उपभोक्ता या सत्ता की इकाई के रूप में नहीं बल्कि एक स्वायत्त, संवेदनशील और गरिमामय अस्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह संबंध किसी औपचारिक अनुबंध या संस्थागत ढाँचे का नहीं बल्कि मानवीय अनुभूति के गहरे स्तर पर निर्मित एक नैतिक संवाद का रूप ले चुका है। साहित्य जहाँ मनुष्य के भीतर करुणा, सह-अनुभूति और आत्मचिंतन की सूक्ष्म चेतना जगाता है, वहीं मीडिया उस चेतना को सामाजिक धरातल पर दृश्य और प्रभावी बनाता है।

इस प्रक्रिया में अधिकार किसी ग्रंथ या दस्तावेज़ की सीमाओं में नहीं बँधते, बल्कि मनुष्य की दैनिक अनुभूति का हिस्सा बनते हैं। जब एक कविता पीड़ा की भाषा रचती है या एक समाचार दृश्य अन्याय को सामने लाता है, तब वे केवल सूचना या सौंदर्य नहीं प्रदान करते—वे मानवीय गरिमा की रक्षा का मौन संकल्प रचते हैं। यह मौन संकल्प ही वास्तव में आधुनिक मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि इसमें शक्ति का नहीं, संवेदना का प्रभुत्व स्थापित होता है।

फिर भी यह मार्ग पूर्णतः सरल नहीं है। साहित्य कभी-कभी यथार्थ से पलायन का मार्ग चुन लेता है और मीडिया अनेक बार संवेदना को बाज़ार की वस्तु बना देता है किंतु यही अंतर्विरोध उनकी जीवंतता का प्रमाण भी है। इन असंगतियों के भीतर ही आत्मालोचना की संभावना जन्म लेती है और वहीं से परिवर्तन का बीज अंकुरित होता है। मानवाधिकार का विचार इन्हीं संघर्षों के बीच अपनी वास्तविक गहराई प्राप्त करता है, क्योंकि वह केवल आदर्श नहीं रह जाता बल्कि सतत प्रश्न की आकृति धारण कर लेता है।

मानवाधिकार, साहित्य और मीडिया की संयुक्त परंपरा एक सतत जागरण की प्रक्रिया है—एक ऐसी प्रक्रिया जो मनुष्य को बार-बार उसकी मानवीय जिम्मेदारियों की ओर लौटाती है। यही जागरण समाज की नैतिक रीढ़ का निर्माण करता है और यही भविष्य की आशा का आधार बनता है, जहाँ स्वतंत्रता, न्याय और गरिमा केवल घोषणाएँ नहीं बल्कि जीवित अनुभूतियाँ बनकर सामाजिक चेतना में स्थायी रूप से स्पंदित होती रहती हैं।


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