
इतिहासकार और लेखक राजमोहन गांधी ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘रिवेंज एंड रिकॉनसिलिएशन’ में भारतीय उपमहाद्वीप के ऐतिहासिक और पौराणिक विवादों और युद्धों का मोटा खाका खींचते हुए इसकी बेचैनी पर एक मार्मिक टिप्पणी की है। उनका कहना है कि यह उपमहाद्वीप तब तक अशांत रहने वाला है जब तक 1947 के विभाजन में मारे गए दस लाख लोगों की अतृप्त आत्माएं इसके आसमान में मंडराती रहेंगी। यहां शांति तभी आने वाली है जब उन आत्माओं को शांति मिलेगी। अगर भारतीय संसद में वंदे मातरम और मनरेगा पर मचे घमासान और नतीजतन बने तीखे ध्रुवीकरण से लेकर बांग्लादेश में विजय दिवस 16 दिसंबर के आसपास भड़की हिंसा और भारत से बढ़ती तकरार को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि इस उपमहाद्वीप में अपनी विरासत को लेकर राजनीतिक आम सहमति बुरी तरह भंग हो चुकी है। यहां अपने पुरखों और राष्ट्रपुरुषों को लेकर भारी मतभेद है और वह उनके स्मारकों पर हिंसा और उनके नामों को मिटाने की हद तक पहुंच चुकी है।
भारत में जिस तरह महात्मा गांधी के नाम को रोजगार के अधिकार संबंधी एक कानून से हटा दिया गया और उसके पक्ष में फूहड़ और बचकाने तर्कों की बौछार की गई उससे अब यही आशंका पैदा होती है कि वह दिन दूर नहीं जब बात राजघाट तक के अस्तित्व तक पहुंचेगी। नोटों से गांधी का नाम हटाने और तमाम दूसरी अन्य योजनाओं और इमारतों से उनका नाम हटाने की मांग तो चल ही रही है। नेहरू तो पहले से ही इस राष्ट्र के दुश्मन बताए जा रहे थे। भारत अगर छह दिसंबर 1992 के बाद लगभग 33 वर्षों से चुनावी प्रक्रिया और समय समय पर होने वाली हिंसक घटनाओं के माध्यम से प्रतिक्रांति की दीर्घकालिक प्रक्रिया में उलझा हुआ है तो 1971 में पाकिस्तान के दमन से आजाद हुआ बांग्लादेश 1975 से अपने राष्ट्रपिता और संस्थापकों की हत्या और फिर उनके आदर्शों की हत्या के दुष्चक्र में फंसा हुआ है।
बांग्लादेश में उसके संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान के स्मारकों को ध्वस्त करने का काम 5 अगस्त 2024 के बाद से शुरू हो गया था और पिछले दिनों 24 धानमंडी स्थित मुजीबुर्रहमान के घर को हथौडों से तोड़ा गया और फिर बुलडोजर लगाकर खोद दिया गया। जाहिर सी बात है कि जब बांग्लादेश के मौजूदा कथित इंकलाबी मुजीब की भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो वे अपने मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका को कैसे स्वीकार करेंगे। भले ही 16 दिसंबर को भारत स्थित बांग्लादेश के उच्चायोग में उसका स्मरण करते हुए शानदार कार्यक्रम हुआ और उसमें कई गणमान्य भारतीयों ने हिस्सा लिया लेकिन दूसरे ही दिन भारत में बांग्लादेश के उच्चायुक्त को बुलाकर हिदायत देने और बांग्लादेश में भारतीय उच्चायोग और वाणिज्य दूतावासों पर हमले शुरू हो गए। इंकलाबी मंच के नेता शरीफ हुसैन हादी की हत्या के बाद भारत और बांग्लादेश के संबंध और बिगड़ गए हैं। अवामी लीग को दरकिनार करके अगले माह होने वाले वहां के आम चुनावों में भारत एक प्रमुख मुद्दा बन गया है।
अगर गौर से देखा जाए तो पाकिस्तान और फिर उससे टूट कर बने नए देश बांग्लादेश में आधुनिक राष्ट्र राज्य और उसके साथ लोकतंत्र की स्थापना की परियोजना इनके जन्म के साथ ही लड़खड़ाती रही है। वह इतनी बार लड़खड़ाई है कि उसे विफल कहना ही उचित होगा। यही स्थिति श्रीलंका, नेपाल और म्यांमार की भी कही जा सकती है। इनके बीच भारत काफी हद तक लोकतंत्र और आधुनिक राष्ट्र राज्य के ढांचे को बचाते हुए अपना विकास करता रहा है। लेकिन अब जबकि भारत की चुनाव प्रणाली पर भी गंभीर सवाल उठ खड़े होने लगे हैं और राजनीतिक व्यवहार और संसदीय बहसों में स्तरहीनता और मर्यादाहीनता प्रबल होती जा रही है, देश में राज्यों में अल्पसंख्यकों से भेदभाव करने वाले कानून बनते जा रहे हैं तो भारत की आधुनिकता और लोकतंत्र पर बड़े सवाल खड़े हो गए हैं। जब तक भारत स्वतंत्रता संघर्ष में विकसित किए गए आधुनिकता और लोकतंत्र के मूल्यों को अपनाए हुए था तब तक यह आशा भी बनी हुई थी कि वह अपने पड़ोसी देशों में इन मूल्यों की स्थापना में मददगार साबित होगा। लेकिन जबसे भारत स्वयं ही इन मूल्यों से जंग में उतर गया है तबसे यह आशा भी धूमिल हो गई है।
इस उपमहाद्वीप की त्रासद होती स्थितियों पर पाकिस्तानी शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फहमीदा रियाज़ की ‘नया भारत’ नाम की नज़्म एकदम सटीक बैठती हैः-
तुम भी बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे
सारे उल्टे काज करोगे
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन में गुन गाना
बस परलोक पहुंच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहां पर
तुम भी समय निकालते रहना
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना
निश्चित तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप सांप्रदायिकता, बहुसंख्यकवाद, कट्टरपंथ, अवैज्ञानिकता, तानाशाही और हिंसा की जकड़ में घिरता जा रहा है। भारत में भले ही सत्ता स्थानांतरण लोकतांत्रिक ढंग से होता रहा हो लेकिन पड़ोसी देशों में तख्तापलट सामान्य रवायत रही है। पर भारत इन प्रवृत्तियों से कब तक बच पाएगा कुछ कहा नहीं जा सकता। उप महाद्वीप की इन बीमारियों के बारे में एक कारण तो औपनिवेशिक विरासत बताई जाती है। औपनिवेशिक शासकों ने इस महादेश में जितने विवाद थे उन्हें कई गुना बढ़ाने का काम किया है। लेकिन उम्मीद थी कि औपनिवेशिक दासता खत्म होने और विभाजन के बाद वे समस्याएं हल हो जाएंगी। पर बाद में भे साम्राज्यवादी शक्तियां भारत समेत पड़ोसी देशों को अस्थिर करने में निरंतर अपनी भूमिका का निर्वाह करती रहती हैं। यह भूराजनीतिक कारण तब और बढ़ जाते हैं जब आर्थिक वैश्वीकरण ने इस इलाके के संसाधनों पर अपने दांत गड़ा दिए।
अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद ने देशी पूंजीवाद से मिलकर ऐसे तंत्र का निर्माण किया है जिसकी लोकतंत्र में आस्था नहीं है। उसने इस काम के लिए ऐसे दलों को तैयार किया है जो न सिर्फ कट्टरपंथी हैं बल्कि अपनी उस विरासत से जंग लड़ रहे हैं जिसने आधुनिक राष्ट्र और लोकतंत्र का निर्माण किया है। अब यह बात करना तो दुष्कर है ही कि इस उपमहाद्वीप में एक साझी विरासत रही है, राष्ट्रों के भीतर भी उनकी अपनी ऐसी विरासत ढूंढना कठिन हो गया है जिस पर सारी पार्टियां और सारे नागरिक सहमत हों। हमारे पुरखों ने कई बार इस समस्या के समाधान के लिए विभिन्न देशों के बीच पारस्परिक संवाद और संबंध कायम करने की कोशिश की है। डॉ राम मनोहर लोहिया तो भारत-पाक महासंघ की बात करते ही थे, लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर बस लेकर गए तो भाजपा के लोगों ने भी कहना शुरू कर दिया कि दीन दयाल उपाध्याय भी महासंघ के हिमायती थे। यहां तक कि जब 25 दिसंबर 2015 को अचानक काबुल से लौटते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर उनसे मिलने लाहौर पहुंच गए तब भी भाजपा के बौद्धिकों ने महासंघ की कल्पना की चर्चा शुरू की थी।
1857 और भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की विरासत में ऐसा बहुत कुछ है जो इस उपमहाद्वीप की आपस में नजदीकी रिश्तेदारी कायम करता है। महान क्रांतिकारी भगत सिंह का आज भी सीमा के दोनों ओर बराबर सम्मान है। भारत जिस मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा सभ्यता के गुणगान करता है वह आज पाकिस्तान में है। जिस चटगांव में भारतीय वाणिज्यदूतावास पर हमला हो रहा है कभी वह क्रांतिकारियों का अड्डा था। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सतीश सब्बरवाल जब एक बार लाहौर में पाकिस्तानी छात्रों रूबरू हुए तो उनका सवाल था कि जब भारत और पाकिस्तानी समाज में बहुत कुछ साझा है तो उनका विभाजन क्यों हुआ? इस सवाल के जवाब में उन्होंने ‘स्पाइल्स आफ साइलेंस’ जैसी पुस्तक लिख डाली। लेकिन इस उपमहाद्वीप की विडंबना यह है कि न तो उसके बौद्धिकों के पास तमाम विवादों के बीच अपने साझा अतीत को समझने की दृष्टि है और न ही आतंकवाद, कट्टरता और राष्ट्रीय उन्माद से आगे बढ़कर अपने भविष्य की योजना बनाने की राजनीतिक इच्छा शक्ति है। यह कार्य आज की स्थिति में नितांत असंभव लग रहा है। लेकिन महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि मानव समाज का इतिहास और विज्ञान की प्रगति हमें यह सिखाती है कि जो काम कभी असंभव लगता है उसके भविष्य में संभव होने की संभावना बनी रहती है। क्या यह उपमहाद्वीप इस नजरिए से अपनी आने वाली पीढ़ी की चिंता करते हुए भविष्य को संवार सकेगा?
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