मधु लिमये: संसदीय राजनीति के महान प्रहरी

0

Jayant Jigashu

— जयंत जिज्ञासु —

ज भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद है, पर इसकी रूह रुग्ण हो चली है. ऐसे में जोड़, जुगत, जुगाड़ या तिकड़म से सियासत को साधने वाले दौर में मधु लिमये (1 मई 1922 – 8 जनवरी 1995) की बरबस याद आती है. राजनीति के चरमोत्कर्ष पर हमें सन्नाटे में से ध्वनि, शोर में से संगीत और अंधकार में से प्रकाश-किरण ढूंढ़ लेने का अदभुत कौशल मधु लिमये में दीखता है. भारत की समाजवादी राजनीति के वैचारिक प्रकाशपुंज, सच्चे ध्वजवाहक व प्रतिनिधि राजनेता मधु लिमये ने चार दशक तक देश की राजनीति को कई तरीक़ों से प्रभावित किया. वे प्रखर वक्ता और सिद्धांतकार थे.

मधु लिमये स्वाधीनता संग्राम में तक़रीबन 4 साल (1940-45 के बीच), गोवा मुक्ति संग्राम में पुर्तगालियों के अधीन 19 महीने (1955 में 12 साल की सज़ा सुना दी गई), और आपातकाल के दौरान 19 महीने मीसा के तहत (जुलाई 1975 – फरवरी 77) कई जेलों में रहे. वे तीसरी, चौथी, पांचवी व छठी लोकसभा के सदस्य रहे, पर इंदिरा गांधी द्वारा अनैतिक तरीक़े से पांचवी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाए जाने के विरोध में उन्होंने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था. उनके सान्निध्य में रहते हुए पहली बार के सांसद शरद यादव ने भी त्यागपत्र दिया. समूची लोकसभा में बस यही दो सदस्य इस तरह के प्रतिकार का उदाहरण प्रस्तुत कर पाये.

लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-52), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित), सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (1958-59), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (1967-68), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (1967), जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 1977-79), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (1979-82) रहे. लोकदल (के) के गठन के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कहा.

दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर वे 1964 के उपचुनाव में बिहार के मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लड़े व मज़दूरों के हिमायती नेता की अपनी सच्ची छवि के बल पर जीते. दोबारा 1967 के आमचुनाव में प्रचार के दौरान तौफ़ीक़ दियारा में उन्हें पीट-पीट कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया, पर उनके माथे पर ज़रा भी शिकन नहीं. कुर्ता ख़ून से सना हुआ, पर उस हालत में भी अविचल रह कर उन्होंने टाउन हॉल पहुंच कर लोगों को संबोधित किया. बाद में जब सदर अस्पताल में वे भर्ती हुए, तो भेंट करने वालों का तांता लगा हुआ था. सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते. पर, तीसरी दफे वे कांग्रेस प्रत्याशी डीपी यादव से त्रिकोणीय मुक़ाबले में हार गये.

यह भी चकित करने वाला ही है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी की कैबिनेट (1977) में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था. मोरारजी भाई और चौधरी चरण सिंह, दोनों चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लिमये व राज नारायण कैबिनेट में शामिल हों. मोरारजी वित्त मंत्री के अपने कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे. पर, लिमये चाहते थे कि गंभीर मुक़दमा झेल रहे जॉर्ज फर्नांडिस, विद्वान नेता मधु दंडवते, समरेंद्र कुंडू (उड़ीसा से आने वाले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की पृष्ठभूमि के नेता) और पिछड़े वर्ग से आने वाले जुझारू नेता पुरुषोत्तम कौशिक (रायपुर से पहली बार जीत कर आये थे) जैसे लोग मंत्री बनें, और ये चारों सांसद क्रमश: संचार व उद्योग, रेल, विदेश (राज्य मंत्री) एवं नागरिक उड्डयन (राज्य) विभाग के मंत्री बनाये गये। गांधी शांति प्रतिष्ठान में जब जेपी ने लिमये को कैबिनेट में शामिल होने को कहा, तो मधु जी ने मानीखेज़ ढंग से कहा, “समाजवादी कांग्रेस से बाहर निकले, कारक तत्त्व तो वही हैं”.

जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद लोकदली ख़ेमे के हिस्से बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और हरियाणा में सरकार चलाना आता, सोशलिस्ट ख़ेमे में असम, वहीं जनसंघी खेमे में गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली। पर जनता पार्टी में विलय के बावजूद जनसंघी लोग अपने सांप्रदायिक एजेंडे को तजने को तैयार नहीं थे और बीच-बीच में वे अपने प्रशिक्षण के मुताबिक़ आचरण करते थे। इससे मधु लिमये सरीखे सोशलिस्ट को गहरा आघात पहुंचता था। ‘गैलैक्सी ऑव द इंडियन सोशलिस्ट लीडर्स’ और ‘महात्मा गांधी एंड जवाहरलाल नेहरू, अ हिस्टोरिक पार्टनरशिप’ जैसी किताब के ज़रिए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन व राष्ट्र-निर्माण के अथक संघर्ष को उकेरने वाले मधु लिमये के मानस को समझा जा सकता है। किसी सूरत में वे फ़िरकापरस्ती से समझौते को तैयार नहीं थे, भले सरकार क़ुर्बान हो जाये. उन्होंने इस ज्वलंत सवाल को पुरज़ोर तरीक़े से उठाया. वे जनसंघ से आए लोगों की दोहरी सदस्यता (जो आरएसएस के भी सदस्य थे) का विरोध कर मोरारजी की सरकार गिराने व चरण सिंह की सरकार बनवाने वाले प्रमुख सूत्रधारों में से एक थे. संसद में जिस मंत्री को वे नज़र उठा कर देख लेते थे, वे सहम उठते थे.

जब मधु लिमये बिहार के बांका से चुनाव लड़ रहे थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री व कांग्रेसी नेता दारोगा राय ने क्षेत्रवाद का विचित्र स्वरूप पेश करते हुए विरोध करना शुरू किया, वे अपनी सभाओं में बोलते थे, “मधु लिमैया, बम्बइया”. इस पर लिमये के मित्र जॉर्ज फ़र्नांडिस ने धारदार भाषण दिया था, और चुटकी ली थी, “ग़नीमत है कि दारोगा जी चम्पारण आंदोलन के वक़्त परिदृश्य में नहीं थे, नहीं तो ये गांधी को तो बिहार की सीमा में घुसने ही नहीं देते. अच्छा हुआ कि श्रीमान त्रेता युग में पैदा नहीं हुए, नहीं तो ये अयोध्या के राम की शादी जनकपुर (नेपाल) की सीता से कभी होने ही नहीं देते. मुझे तो कभी-कभी चिंता होती है कि दारोगा जी का यही रवैया रहा तो लोग दूसरे गांव जाकर विवाह ही नहीं कर पाएंगे, और आधे युवक-युवती कंवारे रह जाएंगे. यह क्षेत्रवाद का ज़हर हमें रसातल में पहुंचा देगा”. बस, मधु लिमये के पक्ष में ग़ज़ब के जनसमर्थन का माहौल बना, और उन्होंने दो बार (1971 का उपचुनाव और 1977 का आमचुनाव ) इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी की. एक बार जुझारू वामपंथी नेता कॉमरेड वासुदेव यादव (सीपीआई) को उन्होंने मामूली अंतर से हराया था.

शरद यादव कहते हैं कि 1970 में वे जबलपुर युनिवर्सिटी स्टूडेंट्स युनियन के अध्यक्ष बन गए थे. 1974 में वे तत्कालीन सरकार की ग़लत नीतियों के विरोध करने के चलते जेल में बंद थे. जिस जबलपुर सीट की नुमाइंदगी संविधान सभा के सदस्य रहे कद्दावर कांग्रेसी नेता सेठ गोविन्द दास कर रहे थे, उनका निधन हो गया. दादा धर्माधिकारी की राय पर जयप्रकाश नारायण ने 1974 के उपचुनाव में शरद यादव को पीपल्स’ कैंडिडेट (जनता प्रत्याशी) बनाया, और सेठ गोविन्द दास की जगह कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे उनके पोते रविमोहन को शरद यादव ने हरा दिया. उनके प्रचार में मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेयी समेत सभी बड़े नेता गए थे. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने शरद यादव को कहा था, “मधु लिमये की सोहबत में रहना, वे संसदीय व्यवस्था के बहुत बड़े विद्वान हैं”. जब शरद यादव मध्य प्रदेश से चुनाव जीत कर दिल्ली आए, तो मधु लिमये ने गर्मजोशी से नवयुवक सांसद का अभिनंदन किया और सोशलिस्ट पार्टी का एसोसशिएट मेंबर बना दिया. यह मधु लिमये की उदात्तता थी कि वे नयी पौध को आजीवन सींचते रहे. मूल्यों के प्रति उनका नैतिक आग्रह आजीवन अक्षुण्ण रहा.

जब मंडल कमीशन लागू हुआ, तो क्रीमी लेयर का बखेड़ा खड़ा हुआ, लोग कहते हैं कि उसके पीछे भीतर से लिमये साहब का भी दिमाग़ था. जो तथाकथित उच्च जाति के लोग प्रसोपा (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी) वाली पृष्ठभूमि से थे, उनमें से कुछ मंडल लगने से खु़ुश थे, कुछ नाराज़, वहीं सोपा (सोशलिस्ट पार्टी) वाली पृष्ठभूमि के अगड़े वर्ग के कुछ नेता कतिपय तिकड़म कर रहे थे, कुछ खुल कर समर्थन में थे. क्रीमी लेयर का प्रावधान लाने में मधु लिमये और कई सोशलिस्ट लीडर्स, जिनके लिए मेरे मन में बहुत आदर है, बीजारोपण कर रहे थे.

एनजी गोरे, मधु दंडवते जैसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बैकग्राउंड वाले लीडर्स मंडल कमीशन की एक सिफ़ारिश लागू होने से बहुत प्रसन्न थे. 1989 के चुनाव में जनता दल के घोषणापत्र में मंडल कमीशन की सिफ़ारिश लागू करने की चर्चा सुनने पर एस एम जोशी ने अपनी प्रसन्नता जताई थी. शरद यादव जब उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा, “अब मैं चैन से इस संसार से विदा ले सकूंगा”. वे चुनाव के पहले कैंसर से जूझते हुए अप्रैल 1989 में गुज़र गये थे.

आज उसी मर्यादा, सलीक़े, लोकलाज व सदाशयी लोक व्यवहार का संसदीय राजनीति में सर्वथा अभाव दीखता है. हम अगर विचार-विनिमय, बहस व विमर्श की चिरस्थापित स्वस्थ परंपरा को फिर से ज़िंदा कर पाएं, तो जम्हूरियत की नासाज़ रूह की थोड़ी तीमारदारी हो जाएगी, और यही होगी लिमये जी के प्रति सच्ची भावांजलि. आएं, हम अर्जित लोकतंत्र को प्रबंधित लोकतंत्र में परिणत होने से बचाएं!

(लेखक ने जेएनयू के मीडिया अध्ययन केंद्र से पीएचडी की, सम्प्रति राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

(साभार, द प्रिंट)


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment