
— डॉ अवधेश कुमार राय —
आज प्रसिद्ध समाजवादी नेता व स्वत्रंतता सेनानी राजनारायण जी की पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 31 दिसंबर, 1986 को उनकी मृत्यु डॉ राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल नई दिल्ली में हुईं थी। राजनारायण जी का जन्म 25 नवम्बर, 1917 को मोती कोट वाराणसी में हुआ था । वे एक संपन्न परिवार मे पैदा हुये थे, जिसका संबंध वाराणसी के राजघराने से था । उन्होने अपनी पढाई एम ए ,एल एल बी वाराणसी के बी .एच. यू. से की थी। वे शुरू में ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए थे और उन्हें आचार्य नरेंद्र देव जी का सान्निध्य प्राप्त था। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन मे सक्रिय रूप से भाग लिया था और वाराणसी में इसका नेतृत्व किया था। उस समय वे बी. एच. यू . मंडल काँग्रेस के अध्यक्ष थे। वे 28 सितंबर 42 से 7 अगस्त 46 तक, 3 साल 10 महीने जेल में बंद रहे । अंग्रेजी सरकार ने ‘ 42’ के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें पकड़ने के लिए 5000 का इनाम रखा था। आजादी के बाद वे राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव व जयप्रकाश जी के साथ समाजवादी आंदोलन से जुड़े । 1952 में वे उत्तर प्रदेश मे पहले विरोधी दल नेता थे। वे 52 से 62 तक उत्तरप्रदेश बिधान सभा के सदस्य रहे तथा 66-72 तथा 74-77 तक 10 वर्ष राज्य सभा के सदस्य रहे। राजनारायण जी ने अपना राजनीतिक जीवन कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से शुरू किया था और 1948 तक इससे जुड़े रहें ।
उसके बाद सोशलिस्ट पार्टी , प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के वे कार्यकारिणी सदस्य थे। जब लोहिया ने 1956 में पुनः सोशलिस्ट पार्टी बनाई तब इससे जुड़ गए और 1961 से 64 तक इसके अध्यक्ष रहे। फिर सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के विलय के बाद वे महासचिव बनाए गए और एस एस जोशी अध्यक्ष बने । वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 64 से 72 तक एक महत्वपूर्ण नेता रहे । बाद में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी बनाई और 74 में में चरण सिंह के साथ लोकदल में विलय कर दिया और 74 से 77 तक लोकदल में रहें जिसका बाद में 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया। 1979 में उन्होंने जनता पार्टी छोड़ कर फिर जनता (एस) बनाया और उसके अध्यक्ष रहे ।जीवन के अंत में 84 में उन्होंने फिर सोशलिस्ट पार्टी बनाई और 31 दिसंबर, 86 मृत्यु तक इसके अध्यक्ष रहें । आपात काल में 19 महीने जेल में रहने के बाद 1977 में इंदिरा ग़ांधी को रायबरेली से पराजित करके लोकसभा मे पहुचे थे । इसके पहले वे 1971 में भी रायबरेली से चुनाव लड़े थे, जहां उन्हें पराजय मिली थी, लेकिन उन्होंने इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी और 12 जून 1975 को कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया। जिसके बाद ही देश में आपातकाल लगा था।
राजनारायण जी सच्चे समाजवादी थे। उन्होने 50 बार से ज्यादा जेल की यात्रा की तथा 1५ साल जेल मे काटी । जिसमे 3 साल आजादी के पूर्व था। डॉ लोहिया कहते थे कि राजनारायण का हृदय शेर का है, लेकिन स्वभाव ग़ांधी का है और इनके जैसे 2-4 लोग हो जाए तो ,लोकतंत्र की हत्या नही हो सकती। वे हमेशा जन आंदोलन से जुड़े रहे। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितो के प्रवेश के लिए महीनों संघर्ष किया। जिसमें अंततः उन्हें सफलता मिली। इसी तरह वाराणसी के बेनिया बाग़ में विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ने में वह सफल रहे। उन्हें विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ने के अपराध में 27 महीने जेल काटनी पड़ी और उन्हें इसका खमियाजा चुनाव में भी भुगतना पड़ा। वे वाराणसी से 62 का विधानसभा चुनाव मात्र 500 वोट से हार गए। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी परिवार के किसी सदस्य को अपने साथ नहीं रखा न दिल्ली आने दिया। उन्होंने कभी भी संपत्ति या संतति के लिए राजनीति नही की। वे जब मरे तब उनके पास मात्र 1450 रुपये थे । यहां तक उन्होंने सांसद व विधायक का भत्ता तक नही लिया था । मधुलिमये जी की पत्नी चंपा लिमए जी ने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में उनके मृत्यु के बाद एक लेख लिखा था और इस बात का उल्लेख किया था कि राजनारायण जी ने सांसद व विधायक का भत्ता तक नहीं लिया था और उनके मरने के बाद भारत सरकार ने उनकी पत्नी मुन्नी देवी को 56,000 रुपए दिए थे । वे सोशलिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘जन ‘ के संपादक मंडल के सदस्य थे तथा स्वयं वारानसी से एक साप्ताहिक ‘जनमुख ‘ निकालते थे।
राजनारायण जी सच्चें लोहिया वादी थे और संघर्ष उनके जीवन का पर्याय था। समाजवादी समाज के लिए वे सदैव समर्पित रहें, उनका घर हमेशा पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए खुला रहता था। उनके लिए उनका पार्टी का कार्यकर्ता ही सब कुछ था और उसका हमेशा सहयोग करते रहते थे । यहां तक जब वे अस्पताल में अंतिम सांसें ले रहे थे तब भी अपने एक कार्यकर्ता के लिए विकल थे । उनके एक सहयोगी पूर्व विधायक राधेश्याम उपाध्याय को वे 5000 देना चाहते थे, लेकिन उनके पास मात्र 2000 थे । पूर्व समाजवादी कल्पनाथ राय उन्हें अस्पताल में देखने आए थे, उन्होंने कहा कि तुम्हारे पास 3000 है, नहीं तो घर से ले आवो, क्योंकि इसे राधेश्याम की लड़की की शादी के लिए देना है। उनमें असीम करुणा और दया थी। जीवन के अंत में अधिकांश बड़े नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया था जिन्हें उन्होंने राजनीति में आगे बढ़ाया था, लेकिन आम कार्यकर्ता उनसे हमेशा जुड़ा रहा। उनकी मृत्यु पर वाराणसी में उमड़ा अपार जनसमूह इसका सबूत था , जो राजनरायण अमर रहें का उद्घोष कर रहा था और उन्हें कबीर बता रहा था।उनका संपूर्ण जीवन वंचितों और समाजवादी मूल्यों के लिए समर्पित था । आज उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन।
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